सब को वहशत है मिरी वहशत के सामाँ देख कर
सब को वहशत है मिरी वहशत के सामाँ देख कर
चाक-दामाँ देख कर चाक-ए-गरेबाँ देख कर
बे-ख़बर काँटों से था अहल-ए-मोहब्बत का शुऊ'र
पाँव रखने थे ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ देख कर
अल्लाह अल्लाह जज़्बा-ए-उल्फ़त की मोजिज़-कारियाँ
वो परेशाँ हो गए मुझ को परेशाँ देख कर
याद आया फिर मुझे अफ़साना-ए-तूर-ओ-कलीम
इक तजल्ली सी तिरे आरिज़ पे रक़्साँ देख कर
चारागर अब मुझ से मेरी लज़्ज़त-ए-ईज़ा न पूछ
ख़ंदा-ज़न होते हैं ज़ख़्म-ए-दिल नमकदाँ देख कर
है मोहब्बत का अगर दोनों तरफ़ यकसाँ असर
वो परेशाँ क्यूँ नहीं मुझ को परेशाँ देख कर
इस में मुज़्मर हैं बहुत नग़्मे हयात-ए-इश्क़ के
छेड़ मिज़राब-ए-जुनूँ साज़-ए-रग-ए-जाँ देख कर
इस जुनूँ का चारागर अब और ही कुछ कर इलाज
और वहशत बढ़ चली है कुंज-ए-ज़िंदाँ देख कर
वा नहीं होता लब-ए-शिकवा सर-ए-महशर 'रईस'
अपने सर पर ख़ंजर-ए-क़ातिल का एहसाँ देख कर
- पुस्तक : Kaif-e-sadrang (पृष्ठ B-111 E-115)
- रचनाकार : Rais Niyazii Bachrauni
- प्रकाशन : Anjuman Taraqqi Urdu Haryana (1984)
- संस्करण : 1984
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