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सब को वहशत है मिरी वहशत के सामाँ देख कर

रईस नियाज़ी

सब को वहशत है मिरी वहशत के सामाँ देख कर

रईस नियाज़ी

MORE BYरईस नियाज़ी

    सब को वहशत है मिरी वहशत के सामाँ देख कर

    चाक-दामाँ देख कर चाक-ए-गरेबाँ देख कर

    बे-ख़बर काँटों से था अहल-ए-मोहब्बत का शुऊ'र

    पाँव रखने थे ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ देख कर

    अल्लाह अल्लाह जज़्बा-ए-उल्फ़त की मोजिज़-कारियाँ

    वो परेशाँ हो गए मुझ को परेशाँ देख कर

    याद आया फिर मुझे अफ़साना-ए-तूर-ओ-कलीम

    इक तजल्ली सी तिरे आरिज़ पे रक़्साँ देख कर

    चारागर अब मुझ से मेरी लज़्ज़त-ए-ईज़ा पूछ

    ख़ंदा-ज़न होते हैं ज़ख़्म-ए-दिल नमकदाँ देख कर

    है मोहब्बत का अगर दोनों तरफ़ यकसाँ असर

    वो परेशाँ क्यूँ नहीं मुझ को परेशाँ देख कर

    इस में मुज़्मर हैं बहुत नग़्मे हयात-ए-इश्क़ के

    छेड़ मिज़राब-ए-जुनूँ साज़-ए-रग-ए-जाँ देख कर

    इस जुनूँ का चारागर अब और ही कुछ कर इलाज

    और वहशत बढ़ चली है कुंज-ए-ज़िंदाँ देख कर

    वा नहीं होता लब-ए-शिकवा सर-ए-महशर 'रईस'

    अपने सर पर ख़ंजर-ए-क़ातिल का एहसाँ देख कर

    स्रोत :
    • पुस्तक : Kaif-e-sadrang (पृष्ठ B-111 E-115)
    • रचनाकार : Rais Niyazii Bachrauni
    • प्रकाशन : Anjuman Taraqqi Urdu Haryana (1984)
    • संस्करण : 1984

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