सहबा शगुफ़्तगी की छलकती ज़रूर है
सहबा शगुफ़्तगी की छलकती ज़रूर है
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है
उठती है जो भी मौज ग़म-ओ-इज़तिराब की
आँखों से अश्क बन के ढलकती ज़रूर है
जो बे-समर है उस को ये हासिल नहीं शरफ़
फलदार शाख़ हो तो लचकती ज़रूर है
साबित ये कर रही है मिरी आह-ए-आतिशीं
सीने में ग़म की आग भड़कती ज़रूर है
पा कर किसी के नूर-ए-हिदायत की रौशनी
बे-नूर ज़िंदगी भी चमकती ज़रूर है
बा-एहतियात नज़रें मिलाने के बावजूद
फ़र्त-ए-अदब से आँख झपकती ज़रूर है
परवाने बे-क़ुसूर नहीं हैं मगर 'अज़ीज़'
लौ शम्अ-ए-नाज़ की भी लपकती ज़रूर है
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