संग-दिल ज़माने को कैसे कोई समझाए कैसे जीते मरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
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संग-दिल ज़माने को कैसे कोई समझाए कैसे जीते मरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
मोहम्मद इश्तियाक़ आलम
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संग-दिल ज़माने को कैसे कोई समझाए कैसे जीते मरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
दर्द-ओ-ग़म के घेरे में हर घड़ी अकेले में टूटते बिखरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
उम्र काट देते हैं ख़ुद को आज़माने में बात ये हक़ीक़त है आज भी ज़माने में
बार-ए-ग़म उठाते हैं ज़ख़्म दिल पे खाते हैं और आह भरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
जब्र के किनारे से सब्र के जज़ीरे तक हर क़दम क़यामत है फिर भी इन की हिम्मत है
थाम कर जिगर अपना ग़म के इस समुंदर में डूबते उभरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
इश्क़ है ख़ुदा जिन का इश्क़ ही इबादत है इश्क़ जिन की दुनिया है इश्क़ जिन की जन्नत है
ऐसे लोग दुनिया में ख़ौफ़ किस से खाते हैं कब किसी से डरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
खोए खोए रहते हैं अपनी दास्तान-ए-दिल कब किसी से कहते हैं देखो ऐसे जीते हैं
भूल कर ज़माने को हर घड़ी तसव्वुर की झील में उतरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
तब्सिरों में रहते हैं तज़्किरों में रहते हैं इश्क़ के फ़सानों में हैं ये दास्तानों में
पत्थरों की बस्ती से ले के दिल का आईना शान से गुज़रते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
इश्क़ करने वालों की बात ही निराली है इश्क़ करने वालों की शान ही अजब है कुछ
जितने ग़म उठाते हैं जितने अश्क पीते हैं उतने ही निखरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
तुम तो अपने वा'दों को यूँही तोड़ देते हो तुम तो अपनी क़समों को पल में भूल जाते हो
वाक़ई जो आशिक़ हैं अपने अहद-ओ-पैमाँ से कब भला मुकरते हैं वो जो इश्क़ करते हैं
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