सर-ए-शाम उस ने मुँह से जो रुख़-ए-नक़ाब उल्टा
सर-ए-शाम उस ने मुँह से जो रुख़-ए-नक़ाब उल्टा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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सर-ए-शाम उस ने मुँह से जो रुख़-ए-नक़ाब उल्टा
न ग़ुरूब होने पाया वहीं आफ़्ताब उल्टा
जो किसी ने 'क़ैस-ओ-लैला' उसे ला के दी मुसव्वर
न हया के मारे उस ने वरक़-ए-किताब उल्टा
मैं हिसाब-ए-बोसा जी में कहीं अपने कर रहा था
वो लगा मुझी से करने तलब और हिसाब उल्टा
जो हैं आश्ना-ए-मशरब वो किसी से हों न साइल
इसी वास्ते रहे है क़दह-ए-हबाब उल्टा
मह-ए-चार-दह का आलम मैं दिखाऊँगा फ़लक को
अगर उस ने पर्दा मुँह से शब-ए-माहताब उल्टा
जो ख़फ़ा हुआ मैं जी में किसी बात पर शब-ए-वस्ल
सहर उठ के मेरे आगे वहीं इस ने ख़्वाब उल्टा
बा-सवाल-ए-बोसा उस ने मुझे रुक के दी जो गाली
मैं अदब के मारे उस को न दिया जवाब उल्टा
कहीं चश्म-ए-मेहर उस पर तो न पड़ गई हो या रब
जो निकलते सुब्ह घर से वो फिरा शिताब उल्टा
मैं हुआ हूँ जिस पे आशिक़ ये शगर्फ़ माजरा है
कि मिरे इवज़ लगा है उसे इज़्तिराब उल्टा
किसी मस्त की लगी है मगर इस के सर को ठोकर
जो पड़ा है मय-कदे में ये ख़ुम-ए-शराब उल्टा
ये मक़ाम-ए-आफ़रीं है कि ब-ज़ोर मुसहफ़ी ने
उन्ही क़ाफ़ियों को फिर भी ब-सद आब-ओ-ताब उल्टा
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