शहर-दर-शहर दीदा-वर भटके
शहर-दर-शहर दीदा-वर भटके
ज़ोम-ए-बातिल में ताजवर भटके
ख़ुद-सरी में जो मो'तबर भटके
हम-सफ़र उन के बे-ख़बर भटके
फ़न की पगडंडियों पे चलते हुए
कभी भटके तो बे-हुनर भटके
हम जो भटके तो ना-शनासा थे
राहबर क्यूँ इधर उधर भटके
एक आलम को जिस ने भटकाया
कभी यूँ हो कि वो नज़र भटके
अपनी मंज़िल का इल्म होते हुए
फिर भी हम जान-बूझ कर भटके
ज़िंदगी के लिबास-ए-ख़स्ता में
धूप में हम बरहना-सर भटके
किस में हिम्मत थी हम को भटकाता
अपनी ख़्वाहिश पे उम्र-भर भटके
हाए उस गुल-बदन की हसरत में
यूँ भटकना न था मगर भटके
उस को भी पा सके नहीं 'फ़रहत'
जिस की ख़्वाहिश में दर-ब-दर भटके
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