शम्अ' की तरह पिघलते रहिए
शम्अ' की तरह पिघलते रहिए
अपनी ही आग में जलते रहिए
आज इंसाँ का मुक़द्दर है यही
हर नए साँचे में ढलते रहिए
ज़िंदा रहने की तमन्ना है अगर
अपना चेहरा भी बदलते रहिए
छाँव की तरह बढ़ा भी कीजे
धूप की तरह न ढलते रहिए
ज़िंदगी की है अलामत लग़्ज़िश
क्यूँ बहर-गाम सँभलते रहिए
काम लीजे न ज़बाँ से अपनी
ख़ाक बस चेहरे पे मलते रहिए
ज़ेहन भी शल न कहीं हो जाए
वक़्त-ज़ारों से निकलते रहिए
- पुस्तक : Be-Chehrah Lamhe (पृष्ठ 38)
- रचनाकार : Alqama Shibli
- प्रकाशन : Shaharyaar Brothers Publications (1975)
- संस्करण : 1975
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