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स्वर्ग में सुवर

मोहम्मद हमीद शाहिद

स्वर्ग में सुवर

मोहम्मद हमीद शाहिद

MORE BYमोहम्मद हमीद शाहिद

    जब से थूथनियों वाले आए हैं, दुख मौत की अज़ीयत से भी शदीद और सफ़्फ़ाक हो गए हैं।

    ताहम एक ज़माना था... और वो ज़माना भी क्या ख़ूब था कि हम दुख के शदीद तजुर्बे से ज़िंदगी की लज़्ज़त कशीद किया करते। उस लज़्ज़त का लपका और चसका ऐसा था कि ख़ाली बखियों के भाड़ में भूक के भड़ भूंजे छोले तड़तड़ाते भुनते रहते मगर हम हयात अफ़रोज़ लुत्फ़ से सरशार होते थे। बजा कि हम बेबसी के मुक़ाबिल रहते थे लेकिन हमें अपनी बेबसी का इस शिद्दत से एहसास नहीं होता था। हिम्मत बंधी रहती और हम मौत का मुक़ाबला भरपूर ज़िंदगी के दिलनवाज़ हौसले से करते थे।

    वो फड़की वाला साल भला कोई कैसे भूल पाएगा कि जिसमें बैतुलें, कजलियाँ, कमोरियाँ और नाचियाँ एक एक करके मौत की ओढ़ ले रही थीं, बज़ाहिर क़दरे सख़्त-जान नज़र आने वाली बरबरी नस्ल की टेडी ठिगनियाँ भी इसी मौत की वादी में कूदने के बहाने तलाश करने लगी थीं... तब जिस तरह हमने अपने डूबते दिलों पर क़ाबू पाया था वो कुछ हम ही जानते थे। उसी बरस छोटी पतली दुम और बड़े हवाने वाली वो सुर्ख़ बैतुल, कि जिसे हम सब रति कहते थे, फड़की से फड़क गई थी और कुछ ही घंटों के अंदर अंदर मोटे सींगों वाली चतरी, लटके हुए कानों वाली भूरी और तिकोन जैसे थनों वाली लंगड़ी पल की पल में बेसुध हो गई थीं। तब हम पै दर पै सदमात के कलकत्ते तेल में तलते थे मगर हमारी रूहों पर हयाती अपने मन मोहने फूलों की कलियाँ बनाती थी। ऐसे में आवाज़ों का मेला सा लग जाता... ओए फ़ज़लू देख इस निमानी का पिंडा गर्म है इसे उधर ले जा... ओए शरीफ़े, वहाँ चितरी माँ को क्यों टोहे जाता है इधर और इस बग्गी के खुरों को देख, इनके अंदर वरम आगए हैं। मेरू, निज़ामां, खेरा, शौक़ी, नामां, छूनी... हम सब भाग भाग कर एक एक के पास पहुंचते थे, हर एक का मुँह खोल खोल कर देखते, बदन टटोलते, हवाने टोह कर अंदाज़े लगाते, टांगें दुहरी करके खुरों को कुरेदते, दुमें उठाते और उँगलियाँ घुसेड़ घुसेड़ कर मौत की उन अलामतों को भी तलाश कर लिया करते थे जो बज़ाहिर नज़र आती थीं।

    फड़की की निशानियाँ हमें कभी मिलतीं... उस मूज़ी मर्ज़ की अलामतें हैं भी क्या, हम कभी जान पाए... जब तक अंदाज़े उस तरफ़ जाते फड़की अपना वार चल चुकी होती और हम फड़कने वाली को छोड़ दूसरियों को बचाने में लग जाते थे। जिसका थोड़ा सा जस्सा गर्म होता, जिसके उठे कान ढलकने लगते या फिर जो दाँतों को बाहम पीस रही होती, हम उसे अलग कर दिया करते थे। इस बरस हमें फड़की की मौतों ने लताड़ कर रख दिया था... मगर हम इस बरस भी इतने बेबस नहीं हुए थे जितना कि बाद में थूथनियों वालों के सबब हो गए थे।

    पहले बेबसी ज़रूर थी लेकिन हिम्मत ही टूट जाये ऐसी लाचारी और बेकसी थी। फड़की वाले साल ही आने वाले बरसों में... हम कोई कोई सबील कर ही लिया करते थे। जब बकरीयों में से किसी की चाल बिगड़ जाती और अगले दिन पहले से भी ज़्यादा लंगड़ाने लगती, कोई अपने खुर ज़मीन पर झटक झटक कर मारती या किसी का बदन ढलकने लगता, किसी के मुँह में सफ़ेद-सफ़ेद छाले निकल आते या थनों के सफ़ेद दाने फट कर सुर्ख़ हो जाते, किसी के मुँह से झाग और रालें बहने लगतीं या किसी के हवाने के ग़दूद सूज जाते, दूध कम निकलता या फिर दूध की फुटकियां बन जातीं, मुँह और आँखों की झिल्लियाँ ज़र्द होने लगतीं या फिर नाक मुँह और पीछे से लेसदार माद्दा निकलने लगता, किसी का फल गिर जाता या उनमें से किसी का पहला मेमना अगली टांगों के बजाए पहले पीछा निकालने लगता, कोई सोए की पीड़ों से चीख़े जाती या झिल्ली फट जाती और हम तरकीबें कर कर के फल छोड़ने में मदद दे रहे होते या तरोहने वाली की ज़िंदगी बढ़ाने के केखन कर रहे होते तो हमें दुख, मौत और ज़िंदगी दोनों के मुक़ाबिल करता था। मरने वालियाँ मर जातीं... जिन्हें ज़िंदा रहना होता था उन्हें हम बचा लेते थे। अक्सर बहुत ज़्यादा नुक़्सान हो जाता... इतना ज़्यादा कि हमारी कमरें टूट जातीं मगर यही तो हमारी ज़िंदगी थी... हमें याद रहता था कि किस साल फड़की का हमला हुआ था, कब मुँह खुराया, गल घोटू और माता ने कब फेरा डाला था, चांदनी से चशमक कब हुई थी, संग रहनी के सबब किस-किस ने चरना चुगना छोड़ दिया था, किसे ख़ारिश हुई थी, कौन निमोनिए से मरी थी, किस के फेफड़ों में कृम पड़ गए थे और नाक मक्खी ने किसे औंधाया था।

    सर्दियों की यख़-बस्ता रातें होतीं या गर्मियों की खड़ी दोपहरें, हम एक एक लम्हे को... एक एक वाक़िए को,और हर एक मुतास्सिर होने वाली या मर जाने वाली को याद करते थे... और उसी मौत के खेल में से ज़िंदगी का चहचहा बरामद हो जाया करता था।

    ये ठीक से बताना तो बहुत मुश्किल है कि बकरीयों के ये उजड़ और हम कब से साथ साथ थे ताहम चिट्टे दूध जैसी उजली दाढ़ी और नूरानी चेहरे वाले बाबा जी, जिन्हें हमेशा बकरियों के उजड़ के दरमियाँ लरज़ते हाथों में अपनी कमर जैसा ख़म लेती लाठी के साथ ही देखा गया था, ने बताया था कि हमारे गाँव स्वर्ग की ज़मीन और हमारे बदनों की मिट्टी के अज्ज़ा का मुतालिबा ही यही था कि हम इस पाक फ़रीज़े में मशग़ूल रहते। बाबा जी का वजूद और उनकी बातें हमें ईमान जैसी लगा करती थीं लेकिन जब उन्होंने ये बताया था तो उस वक़्त तक हम ख़ासे होश-मंद हो चुके थे, लिहाज़ा हमें पाक फ़रीज़े के लफ़्ज़ों ने चौंका दिया था और हम में से कई एक ने दुहराया था,

    “बाबाजी पाक फ़रीज़ा?”

    हमें अच्छी तरह याद है कि उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा था,

    “उचियाँ शानाँ वाले के सदक़े ये धंदा पाक फ़रीज़ा ही तो है।”

    फिर उनकी आँखें मुहब्बत के पानियों से भर गई थीं। उन्होंने दोनों हाथों में निहां अक़ीदत की कपकपाहट और लरज़ती उंगलियों की सारी पोरों को बाहम मिला कर ख़्याल ही ख़्याल में बोसा लेते होंटों पर थर्राती सिसकारी को छू लिया और हमसे यूं बे-नियाज़ हो गए कि उनकी छाती के अंदर गूँजती आवाज़ हम तक पहुँचने लगी थी।

    बाबा जी के चल बसने के बाद हम मूंगफली की काश्त की तरफ़ राग़िब हो गए।

    ये लगभग वही बरस बनता है जब उधर की एक बड़ी बादशाही में एक मूंगफली वाले को हुक्मरानी मिल गई थी। ये बात हमें शहर से आने वाले ब्योपारियों ने बताई थी। उन्होंने हमें उधार बीज दिया था और ये भी बताया था कि मूंगफली तो सोने की डली होती है। उस साल हमने बेदिली से थोड़ा सा बीज ज़मीन में दबा दिया था और बाक़ी भून कर मज़े ले-ले कर गुड़ के साथ खा गए थे... ताहम जब फ़सल तैयार हुई और खड़ी फ़सल का सौदा करने ब्योपारी पहुँच गए तो हमें मूंगफली वाक़ई सोने की डली जैसी लगने लगी थी।

    स्वर्ग की ज़मीन की दो रूप थे... ऊपर के जुनूब मशरिक़ी हिस्से की सारी ज़मीन रेतीली थी, हम उसे उताड़ कहते। उताड़ की ज़मीन ऐसी रेतीली भी थी कि मुट्ठी में भरें तो ज़र्रे फिसलने लगें... रेतीली मीरा कह लें, मगर उसे मीरा यूं नहीं कहा जा सकता था कि बारिश का झबड़ा पड़ता तो पानी सीधा उसके अंदर उतर जाता, ऊपरी तहों में ठहरता ही नहीं था। कई धूपें जो लगातार पड़ जातीं तो वत्र का निशान तक मिलता। नीचे शुमाल मग़रिबी हिस्से की ज़मीन रकड़ थी... रकड़ भी नहीं, शायद पथरीली कहना मुनासिब होगा... पथरीली और खुरदुरी। उस पर भी पानी ठहरता, फ़ौरन फिसल कर गाँव को दो लख़्त करते नमीली कस में जा पड़ता था। उस हिस्से के ढलवानी इलाक़ों में कहीं कहीं ऐसे टुकड़े थे जिनमें वत्र ठहर जाता था और ज़मीं बीज भी क़बूल कर लेती थी। ऐसे क़तआत इतना अनाज और चारा उगाही लेते थे कि गाँव वालों के मेदों में भड़कती आग के शोले बुझते तो थे ताहम मद्धम ज़रूर पड़ जाते, और लहारियाँ भी भूकी रहती थीं।

    सारे उताड़ में बकरियाँ ख़ूब चरती थीं। यहाँ हर नस्ल और हर मिज़ाज की बकरियों की भूक मिटाने और उनके बदनों को फ़र्बा बनाने का सामान मौजूद था। अपने खुरों को दरख़्तों के तनों पर जमा कर ऊपर की शाख़ों से रिज़्क़ नोचने वालियों के लिए लज़्ज़त भरे पत्तों वाले मुख्तलिफ़-उन-न्नौअ दरख़्तों के झुंड थे, थोड़ा सा गर्दन को ख़म देकर चरे जाने और आगे ही आगे बढ़े जाने वालियों के लिए झाड़ियाँ और बेलें थीं। बिछी हुई और फैलती हुई नर्म-ओ-शीरीं घास भी हर कहीं थी कि जिसे बरबरियाँ शौक़ से खातीं और अपनी नस्ल तेज़ी से बढ़ाती थीं, मगर जिस तेज़ी से थूथनियों वाले पलीदों ने नस्ल बढ़ाई थी उसने स्वर्ग वालों की नींदें हराम कर दी थीं।

    उताड़ से परे उधर जहाँ हमवार ज़मीन पर सरकारी रुख थी, थूथनियों वाले वहाँ से ग़ोल दर ग़ोल आते थे और हमारी ज़मीनों पर तबाही मचा कर वापस रुख में जा छुपते थे। जब तक बकरियाँ हमारे इल्तिफ़ात का महवर रहीं, तबाही मचा कर छुप जाने वालों की तादाद भी महदूद रही या फिर... शायद उनका फेरा ही इधर कम-कम लगता होगा। ताहम हम एहतियात भी तो किया करते थे। बेरी, कनेर और कीकर के दरख़्तों की ख़ारदार टहनियों के छापों की खतियाँ जोड़ कर हम बकरीयों के बाड़ों को चारों तरफ़ से महफ़ूज़ बना लिया करते थे। जब कभी थूथनियों वाले इधर निकलते और अपनी थूथनियों को उन छापों पर मारते तो कांटों की चुभन उन्हें उलटा भागने पर मजबूर कर देती थी... लेकिन जब हमें मूंगफली की फ़सल ने लगभग बकरीयों से ग़ाफ़िल ही कर दिया तो वो अंदर तक घुस आते। उनकी तादाद इस क़दर बढ़ चुकी थी कि नाचार हम स्वर्ग वालों को उन्हें भगाने के लिए पालतू कुत्तों की तादाद बढ़ा देना पड़ी थी।

    यूँ नहीं था कि पहले स्वर्ग वाले कुत्ते नहीं रखते थे... गाँव के मुस्तक़िल मकीनों पर ही क्या मौक़ूफ़, वहाँ मुख़्तसर अर्से के लिए आने वाले ख़ानाबदोशों की झोंपड़ियों में भी कुत्ते होते थे। ख़ानाबदोशों के पास उमूमन गद्दी नस्ल के कुत्ते होते जबकि स्वर्ग वालों में से जिन्हें ख़रगोश का शिकार मर्ग़ूब था वो जहाज़ी और ताज़ी रखा करते थे। एक दो शौक़ीन मिज़ाजों के पास अलसेशियन थे जबकि गाँव के खोजियों के पास प्वाईंटर था... ताहम बाक़ी सब घरों में वो आम नस्ल के कुत्ते थे जो अजनबियों को देखकर उछल-उछल कर भौंकते थे या फिर बकरियों को शाम पड़ने पर दौड़ दौड़ कर इकट्ठा करते थे।

    स्वर्ग वालों ने कुत्तों की तादाद बढ़ाई ज़रूर थी मगर ये तादाद कभी काफ़ी हो पाती थी कि लाइन लगाने वाला ये बेशर्म जानवर बढ़ता भी बड़ी सुरअत से था। हर अढ़ाई महीने के बाद उनकी हराम ज़ादियों की बक्खियाँ भर जातीं और साल बाद पता चलता कि पिछले बरस के मुक़ाबले इस बार तीन गुना ज़ाइद आए और मूंगफली के खेतों को खोद कर पलट गए।

    शुरू-शुरू में अपने ईमानों को बचाने के लिए हम उस पलीद नस्ल का नाम भी ज़बान पर लाते थे। उन्हें मारने को जी भी चाहता कि उन्हें देखते ही कराहत होने लगती थी मगर जब ये बहुत ज़्यादा ज़ियाँ करने लगे तो हमने बंदूक़ें उठालीं। ख़ूब मंसूबा बंदी कर के उनका शिकार करते और फिर जब सरकार ने किसी सरकारी मस्लिहत के तहत अस्लिहा रखने पर पाबंदी लगादी तो हमें शिकारी कुत्तों की तादाद बढ़ा देना पड़ी।

    हम उन कुत्तों को लेकर शिकार पर निकलते तो हमारे हाथों में कुल्हाड़ियाँ, बरछियाँ और बल्लम भी होते। कुत्ते उन्हें दौड़-दौड़ कर घेरते और हमारी जानिब धकेलते जाते। हम उन पर हमला आवर हो जाते और उनकी तिक्का बोटी कर देते थे। ताहम ये ऐसा मूज़ी था कि हम में से किसी किसी को हर बार ज़रूर ज़ख़्मी कर देता था।

    हम उनका शिकार खेलते थे मगर उनकी तादाद रोज़ बरोज़ बढ़ती जाती थी। जिस तेज़ी से वो बढ़ रहे थे उसके मुक़ाबले में हमारे हाथ लगने वालों का तनासुब आटे में नमक के बराबर था। लिहाज़ा तशवीश हमारे बदनों के ख़ून का हिस्सा हो गई थी।

    थूथनियों वालों की बढ़ती तादाद हमें मूंगफली की काश्त से रोक पाई कि इस फ़सल के तुफ़ैल भूक हमारी बक्खियों से निकल कर उन्हें फ़र्बा बना गई थी। ब्योपारी खड़ी फ़सल का इतना उम्दा भाव लगाते और नक़द रक़म से हमारी झोलियाँ भर देते कि हमारे दीदे हैरत से बाहर को उबलने लगते थे। ये हैरत तब भी कम होने में आई जब हमें ये पता चला था कि ब्योपारी तो उधर शहर में कारख़ाने वालों से कि जो उसका तेल निकालते थे या उसे मज़े-मज़े के खानों का हिस्सा बनाते थे, हमें दिए जाने वाले भाव से कई गुना कमाते थे... कि... कोई और जिन्स हमें इतना भाव देती थी, शायद इसी भाव की लश्क ने हमें बकरियों से बिदका दिया था।

    धीरे-धीरे सारे उताड़ पर मूंगफली ही काश्त होने लगी। ये इलाक़ा उसकी काश्त बर्दाश्त के लिए ख़ूब मौज़ूँ निकला। इस फ़सल को निस्बतन लम्बा और गर्म मौसम चाहिए, तो वो इस इलाक़े वालों का अज़ली मुक़द्दर था। कम अज़ कम जितनी बारिश उस फ़सल की तलब थी इतनी ख़ुशक-साली के मौसम में भी हो ही जाया करती थी। ज़मीन भारी हो तो बहुत सा फल वही दबाए रखती है, सारा उताड़ रेतीला मीरा था, इधर पौदे पर हाथ रखा जाता उधर हल्की-फुल्की ज़मीन फलियों के गुच्छे उगल देती। हम सर्दियों के ख़ातमे से पहले-पहले हल चला कर मूंगफली की काश्त के लिए वत्र महफ़ूज़ कर लिया करते थे। अंग्रेज़ी हिसाब से तीसरे महीने के आधे में इसकी गिर्यां बोई जातीं। ये बुवाई कभी-कभार चौथे के आधे तक चलती थी। जब फलियाँ बनने पर आतीं तो हम उनके बचाव के लिए जंगली चूहों के बिल ढूंढ-ढूंढ कर उनमें ज़हर की गोलियां डाला करते। चूहे और सह फलियों के ख़ास दुश्मन थे मगर हमें शहर वाले ब्योपारियों ने साइनो गैस, कि जिसे हम पहले-पहल सैनू गैस कहते तो शहर वाले हँसा करते थे, और ज़हर की गोलियाँ ला दी थीं, ये उनके तदारुक के लिए ख़ूब मुअस्सर थीं और हम खुश थे कि हमने तक़रीबन उन पर क़ाबू पा ही लिया था... मगर थूथनियों वालों ने हमारे सारे हौसले छीन लिये थे। एक एक बकरी को बीमारी से, बघियाड़ों से और मौत के मुँह से बचाने वाले हम सब बेबस हो चुके थे। कभी हम मुस्तक़िल दुखों से मुक़ाबिल होने में हमा-वक़्त मसरूफ़ रहते थे और अब बेबसी की फ़ुर्सत सारी मसरूफ़ियत पर ग़ल्बा पा गई थी।

    मूंगफली की काश्त बजाये ख़ुद ज़्यादा मसरूफ़ियत का मशग़ला निकला। पहले बरस जब उताड़ को हमवार करना पड़ा था, अपने-अपने नाम खतोए गए ख़सरों के हिसाब से खेतों के गिर्द हदें बनाई थीं। खेतों के अंदर जाने वाले कीकरों, बेरियों, झड़ बेरियों और कनेरों को काट काट कर बालन बनाने के लिए उनके टूटे टूटे किए थे। हल चला कर खबल और मरवा को जड़ों से उखेड़ा गया और एक जगह इकट्ठा किया था... बस वो पहला बरस ही शदीद मसरूफ़ियत वाला निकला। यही पहला बरस बकरियों के पेट भर कर चरने का आख़िरी साल बन गया था। वो दरख़्तों से उतरने वाले सब्ज़ पत्तों से लदी छाँगों पर मुँह मारते हुए या उखड़ी हुई नर्म-नर्म झाड़ियों को जबड़ों में चबाते और ढे़रों की सूरत पड़े घाड़े को चरते हुए हमें इस बात का एहसास तक दिला पाई थीं कि आने वाले बरसों में उनकी बखियाँ ख़ाली भभान रहेंगी हत्ता कि वो ख़ुद भी रहेंगी। ताहम हमारे पेट चरबेले होने शुरू हो गए और अजब तरह की फ़ुर्सत ने हमारे वजूदों में काहिली का बे-लज़्ज़त पानी भर दिया था।

    मूंगफली की काश्त के बाद से लेकर ज़मीन रंग फलियाँ बनने तक हम फ़ारिग़ रहने लगे। फलियाँ बनतीं तो हम बिलों को तलाश करके उनमें ज़हरीली दवा डालते। ये भी कोई ऐसी मसरूफ़ियत निकली थी कि हमारे वजूदों में ज़िंदगी की हुमक भर देती लिहाज़ा बहुत जल्द ऊब जाया करते, खाटें लम्बी करते और अब तक पक्के हो चुके घरों के दबीज़ सायों में दराज़ हो जाते।

    हमें कसालत ने जकड़े रखा और थूथनियों वाले इस क़दर बढ़ गए कि कुत्तों की ख़ातिर-ख़्वाह तादाद बढ़ा देना पड़ी।

    और अब ये हो चुका है कि कुत्ते बहुत ज़्यादा हो गए हैं... बहुत ज़्यादा और बहुत क़वी। इतने ज़्यादा कि हमारे हिस्से का रिज़्क़ भी खा जाते हैं और इतने क़वी कि उनकी ज़ंजीरें हमारी हथेलियों को छील कर हमारे हाथों से निकल जाती हैं। ये कुत्ते हमारे खेत उजाड़ने वालों के आदी हो गए हैं... आदी, ख़ौफ़-ज़दा या फिर उन ही जैसे, मुम्किन है उन पलीदों के बार-बार बदन तान कर खड़ा हो जाने के सबब कोई सहम उनके दिलों में समा गया हो। मुआमला कुछ भी हो, सूरत-ए-अहवाल ये है कि थूथनियों वालों को गुर्राहटों की ओट मयस्सर गई है। कुत्ते दूर खड़े फ़क़त गुर्राए जाते हैं। हमसे ज़ख़्मी हथेलियों में बल्लम, बरछियाँ और कुल्हाड़ियाँ थामी ही नहीं जा रहीं, लिहाज़ा हम ख़ौफ़ और अंदेशों से काँपे जाते हैं और कुछ यूँ दिखने लगा है कि जैसे इस बार थूथनियों वाले, इन्ही कुत्तों की गुर्राहटों की मुहाफ़िज़त में हमारे सारे खेत खोद कर ही पलटेंगे।

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