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तरह-ए-कशां जिसे हिज्रान-ए-यार कहते हैं

रशीद कौसर फ़ारूक़ी

तरह-ए-कशां जिसे हिज्रान-ए-यार कहते हैं

रशीद कौसर फ़ारूक़ी

MORE BYरशीद कौसर फ़ारूक़ी

    तरह-ए-कशां जिसे हिज्रान-ए-यार कहते हैं

    हम उस को वस्ल हमेशा बहार कहते हैं

    रवा-रवी में जो ख़ाका सा खिंच गया था कभी

    उसे भी मोतक़िदाँ शाह-कार कहते हैं

    वो मोहमलात से नुक्ते निकाल सकता है

    इसे फ़तानत-ए-अन्क़ा शिकार कहते हैं

    नहीं हैं सनअत-ए-ज़ुल-वज्हतैन के क़ाएल

    कि हर्फ़-ए-हक़ हो तो हम आश्कार कहते हैं

    बहार नाम है तहज़ीब-ए-मौसम-ए-दिल का

    अवाम मौसम-ए-गुल को बहार कहते हैं

    उन्हीं से पूछ कि ये इस्तिआरा किस से है

    नफ़स को जो नफ़स-ए-मुस्तआर कहते हैं

    वफ़ा कर तो हमारी वफ़ा की दाद ही दे

    तिरे फ़िराक़ को हम इंतिज़ार कहते हैं

    यहीं तलक जो मिरे साथ के लौट गए

    वो संग-ए-मील को संग-ए-मज़ार कहते हैं

    किनार-ए-यार वहाँ से बस इक शलंग पे है

    वो जिस को कज-कुलहाँ औज-दार कहते हैं

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