तेरी ख़ातिर ऐ दिल-ए-बेताब हैं बर्बाद हम
तेरी ख़ातिर ऐ दिल-ए-बेताब हैं बर्बाद हम
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
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तेरी ख़ातिर ऐ दिल-ए-बेताब हैं बर्बाद हम
फिर रहे हैं मारे मारे चार-सू नाशाद हम
जा के बज़्म-ए-यार में ख़ुद ही हुए हैं जब असीर
किस तरह लाएँ ज़बाँ पर शिकवा-ए-बेदाद हम
जिस की ख़ातिर अहल-ए-दुनिया की निगाहों से गिरे
ख़ून-ए-दिल से लिख रहे हैं आज वो रूदाद हम
आज तक जिस ने किसी पर रहम खाया ही नहीं
उस पे होता क्या असर करते भी जो फ़रियाद हम
इक न इक दिन पंजा-ए-सय्याद में आना ही था
रहते कैसे गुलसिताँ में इस तरह आज़ाद हम
हर तरफ़ फैला हुआ है जब तिरा दाम-ए-फ़रेब
ता-ब-कै बचते तिरे फंदों से ऐ सय्याद हम
गुलसिताँ भर था मगर उस शाख़ पर बिजली गिरी
रख रहे थे आशियाँ की जिस जगह बुनियाद हम
बन गया है बनते बनते इक मिज़ाज-ए-मुस्तक़िल
दिल धड़कता है तुझे करते हैं जब भी याद हम
क़त्ल-गह में पूछता है ऐ सितमगर हाल-ए-दिल
ज़ब्ह कर दे कि कहेंगे कुछ न अब जल्लाद हम
बेवफ़ा बेदाद-गर से मिलने की अब ज़िद न कर
उस की महफ़िल में न जाएँगे दिल-ए-नाशाद हम
कुछ समझ ही में नहीं आता है 'अह्मर' इस का भेद
एक ज़ालिम के लिए क्यों हो गए बर्बाद हम
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