तुम्हें रस्म-ए-वफ़ा आई न हम तर्ज़-ए-करम समझे
तुम्हें रस्म-ए-वफ़ा आई न हम तर्ज़-ए-करम समझे
ग़रज़ आईन-ए-उल्फ़त को न तुम समझे न हम समझे
मिज़ाज-ए-गर्दिश-ए-दौराँ अगर समझे तो हम समझे
किसी के काकुल-ए-बरहम का अक्स-ए-पेच-ओ-ख़म समझे
जबीनें चूमती हैं आज भी नक़्श-ए-क़दम उन के
जो अहल-ए-दिल तिरे अबरू को मेहराब-ए-हरम समझे
शुऊर-ए-बंदगी है या ये एजाज़-ए-मोहब्बत है
कि हम महरूमियों को भी तिरा हुस्न-ए-करम समझे
हर इंसाँ हुब्ब-ए-दुनियावी में ता-हद्द-ए-जुनूँ गुम है
हक़ीक़त को मगर दुनिया की अक्सर लोग कम समझे
सराब-ए-ज़िंदगी से फेर ले नज़रें अगर कोई
लहू की गर्दिश-ए-पैहम नफ़स का ज़ेर-ओ-बम समझे
कटी मश्क़-ए-सुख़न में उम्र इतनी फिर भी हम 'अतहर'
न क़दर-ए-हर्फ़ पहचाने न तौक़ीर-ए-क़लम समझे
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