टूटा तिलिस्म-ए-वक़्त तो क्या देखता हूँ मैं
टूटा तिलिस्म-ए-वक़्त तो क्या देखता हूँ मैं
अब तक उसी जगह पे अकेला खड़ा हूँ मैं
ये कश्मकश अलग है कि किस कश्मकश में हूँ
आता नहीं समझ में बहुत सोचता हूँ मैं
मैं अहल तो नहीं हूँ कि देखे कोई मगर
दुनिया मुझे भी देख तिरा आइना हूँ मैं
अक्सर ग़ुरूर-ए-फ़िक्र जब उतरा दिमाग़ से
मैं दंग रह गया कि ये क्या लिख गया हूँ मैं
मेरा कलाम वहइ नहीं है तो फिर मुझे
ये ज़ो'म क्यूँ न हो कि ख़ुद अपना ख़ुदा हूँ मैं
मुझ से नहीं उसे मिरे फ़र्दा से है उमीद
मंज़िल से कोई और फ़क़त रास्ता हूँ मैं
क्या फ़ाएदा मुझे जो पलट कर जवाब दूँ
अपने लिए कहाँ हूँ बुरा या भला हूँ मैं
ग़ाफ़िल अब और क्या हूँ किसी से कि 'उम्र भर
आवारगी की गोद में सोता रहा हूँ मैं
क्या ये जगह है जिस की तमन्ना में आज तक
दिन रात शहर शहर भटकता फिरा हूँ मैं
मशअ'ल-ब-दस्त घूमते गुज़री है एक 'उम्र
अब किस के इंतिज़ार में ठहरा हुआ हूँ मैं
- पुस्तक : अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता (पृष्ठ 33)
- रचनाकार : अनवर शऊर
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2024)
- संस्करण : 3rd
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