उजाड़ आँखों में रत-जगों का अज़ाब उतरा है नीम-शब को
उजाड़ आँखों में रत-जगों का अज़ाब उतरा है नीम-शब को
जो दर्द जागा है शाम ढलते तो शेर लिक्खा है नीम-शब को
मैं ख़ाली कमरे के सर्द गोशे में रोज़ तन्हा ये सोचता हूँ
ये कौन हँसता है दिन ढले तक ये कौन रोता है नीम-शब को
हमारे बच्चों की सब्ज़ आँखों में रौशनी के कँवल नहीं हैं
उदास साया सा रोज़ आकर ये मुझ से कहता है नीम-शब को
दुआएँ ले कर हम अपने होंटों पे जाने किस सुख के मुंतज़िर हैं
हमें ख़बर है कि इस नगर में अज़ाब उतरा है नीम-शब को
दहकते सूरज का ज़ुल्म कच्चे घरों के बासी ही झेलते हैं
ये बात सोची नहीं थी दिन में जो ख़्वाब देखा है नीम-शब को
किसे ख़बर है ये कौन सी शय वजूद-ए-शम्अ को चाटती है
ये देखते हैं कि एक साया लरज़ता रहता है नीम-शब को
तुम्हारी यादों की धीमी लय है या मैं हूँ या फिर कोई नहीं है
तो सूने आँगन में कौन आकर दिया जलाता है नीम-शब को
ये आगही के उदास लम्हों में कर्ब क्या है अज़ाब क्या है
वो जानता है जो अपने रब की तरह से तन्हा है नीम-शब को
तुम अपने सारे गुज़शता लम्हे भुला ही देना मगर ये करना
उसे दुआओं में याद रखना जो तुम को रोता है नीम-शब को
अगर कभी तुम मिलोगे उस से ये जान लो ‘नून-मीम-दानिश'
वो आदमी है जो दर्द पाता है ख़्वाब बोता है नीम-शब को
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