उम्र भर ठोकरें खा-खा के सँभलते रहना
उम्र भर ठोकरें खा-खा के सँभलते रहना
हौसला जीने का रखते हो तो चलते रहना
वस्ल की रात हो हर रोज़ बदन की ख़्वाहिश
ख़सलत-ए-इश्क़ है ता-उम्र मचलते रहना
सोचता हूँ तो बहुत देर तलक हँसता हूँ
मेरा दिन भर तिरी गलियों में टहलते रहना
ये दुआ दे के कहा उस ने के माशा-अल्लाह
जान से जाने तलक ख़ून उगलते रहना
रोज़ दर रोज़ यहाँ आबरू लुट जाती है
इतना आसान कहाँ घर से निकलते रहना
इस नए दौर में छू लेते बुलंदी लेकिन
हम ने सीखा ही नहीं रंग बदलते रहना
अब तो शायद है यही अपना मुक़द्दर 'रिज़वान'
सोचना तुझ को तिरे हिज्र में जलते रहना
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