वो भी माहिर था बहुत बात को उलझाने में
वो भी माहिर था बहुत बात को उलझाने में
हम भी डरते थे किसी एक तरफ़ जाने में
तेज़-रफ़्तारी में रक्खा नहीं साँसों का हिसाब
'उम्र को भूल गए वक़्त को चमकाने में
इक सफ़र और तरह का अभी करना है हमें
आप से आप की तस्वीर तलक जाने में
ख़ूब तरकीब निकाली थी न पीने की मगर
जाम टूटा ही नहीं जाम से टकराने में
शुक्र ये है कि मुलाक़ात ज़ियादा न चली
वक़्त कटता ही न था वक़्त को दुहराने में
भूलने में तो उसे देर ज़ियादा न लगी
ग़म-गुसारों ने बहुत वक़्त लिया जाने में
हैं तो नादान मगर इतने भी नादान नहीं
बात बनती हो तो आ जाते हैं बहकाने में
क्या ग़म-ए-दह्र कोई याद अगर ज़िंदा हो
क्या शब-ए-हिज्र अगर धूप हो पैमाने में
क्या करें कैफ़ियत-ए-बे-ख़बरी का 'शारिक़'
यार अंजान हुए जाते हैं अनजाने में
- पुस्तक : खिड़की तो मैंने खोल ही ली (पृष्ठ 114)
- रचनाकार : शारिक़ कैफ़ी
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2022)
- संस्करण : 3rd
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