वो हुस्न-ए-बर्क़-तलअ'त का मिरी आँखों में घर करना
वो हुस्न-ए-बर्क़-तलअ'त का मिरी आँखों में घर करना
वो मंज़र फिर ज़रा ऐ जज़्ब-ए-दिल पेश-ए-नज़र करना
ग़म-ए-हस्ती में फिर होने लगी है बे-ख़ुदी ज़ाइल
ज़रा फिर इक नज़र फिर दो-जहाँ से बे-ख़बर करना
ख़ुदारा छोड़ दे ऐ चारा-फ़रमा चश्म-ए-साक़ी पर
हज़ीं दिल को नशात-ए-ज़िंदगी से बहरा-वर करना
कोई हसरत हो कुछ तो ज़ाद-ए-राह-ए-ज़ीस्त मिल जाए
बहुत दुश्वार है बे-मुद्दआ शाम-ओ-सहर करना
न ग़ैरों ने मुझे पूछा न अपनों ने मुझे समझा
मिरे हिस्सा है 'कौकब' ज़िंदगी तन्हा बसर करना
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