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यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया

नजीब अहमद

यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया

नजीब अहमद

MORE BYनजीब अहमद

    यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ रहने दिया

    कि उस ने रब्त कोई दरमियाँ रहने दिया

    मिरी नज़र ही समुंदर की आख़िरी हद थी

    मिरी थकन ने मुझे पर-फ़िशाँ रहने दिया

    किसी ने कश्ती उतारी तो थी समुंदर में

    मगर हवा ने कोई बादबाँ रहने दिया

    कोई तो बर्फ़-ब-कफ़ दश्त की तरफ़ आया

    किसी ने बहर में पानी रवाँ रहने दिया

    हर एक लफ़्ज़ में यूँ कर दिया लहू शामिल

    कि दास्ताँ को फ़क़त दास्ताँ रहने दिया

    'नजीब' किस तरह जागें कि इन अंधेरों ने

    सहर का तारा सर-ए-आसमाँ रहने दिया

    स्रोत :
    • पुस्तक : Urdu Adab (पृष्ठ 66)
    • रचनाकार : Iqbal Hussain
    • प्रकाशन : Iqbal Hussain Publishers (Jan, Feb. Mar 1996)
    • संस्करण : Jan, Feb. Mar 1996

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