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ये बारीक उन की कमर हो गई

असद अली ख़ान क़लक़

ये बारीक उन की कमर हो गई

असद अली ख़ान क़लक़

MORE BYअसद अली ख़ान क़लक़

    ये बारीक उन की कमर हो गई

    कि नज़रों में तार-ए-नज़र हो गई

    पड़ा दोनों ज़ुल्फ़ों का उन की जो अक्स

    नज़ाकत से दोहरी कमर हो गई

    गले चढ़ने मस्ती में मस्तों के मुँह

    बड़ी दुख़्तर-ए-रज़ ये निडर हो गई

    वो अब काट तेग़-ए-निगह का नहीं

    कुछ आँखों पर उन की नज़र हो गई

    मिरा नक़्द-ए-दिल मार बैठे हसीं

    ये दौलत इधर से उधर हो गई

    किया उन के मुँह पे जो वस्फ़-ए-दहन

    फ़क़त रंजिश इस बात पर हो गई

    खुली ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से पीरी में आँख

    शब-ए-नौजवानी सहर हो गई

    लिफ़ाफ़े पर अपना लिक्खा था नाम

    ख़ता इतनी नामा-बर हो गई

    किया हँस के सुन कर सवाल-ए-विसाल

    तुम्हें जुरअत अब इस क़दर हो गई

    क़दम रखते ही खड़खड़ा मार रीछ

    अदू उन की ज़ंजीर-ए-दर हो गई

    अजल से कोई कह दे फिर जाए आप

    मसीहा को मेरे ख़बर हो गई

    झूटों भी उतना किसी ने कहा

    शब-ए-ग़म तिरी बे-सहर हो गई

    बुरे या भले हाल गुज़री 'क़लक़'

    ग़रज़ हर तरह से बसर हो गई

    स्रोत :
    • Mazhar-e-Ishq

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