ये बात तिरी चश्म-ए-फुसूँ-कार ही समझे
ये बात तिरी चश्म-ए-फुसूँ-कार ही समझे
सहरा भी नज़र आए तो गुलज़ार ही समझे
इक बात जिसे सुन के हया आए चमन को
इक बात जिसे नर्गिस-ए-बीमार ही समझे
इस तरह दुकाँ दिल की सजाऊँ कि ज़माना
देखे तो उसे मिस्र का बाज़ार ही समझे
क्या शाम-ओ-सहर उस की है क्या उस के शब-ओ-रोज़
दुनिया को भी जो काकुल-ओ-रुख़्सार ही समझे
कहता ही रहा दिल कि ये सहरा-ए-जुनूँ है
हम थे कि उसे साया-ए-दीवार ही समझे
वो भी तो चमन ज़ाद थे जो शाख़-ए-चमन को
गर्दन पे लटकती हुई तलवार ही समझे
हर चंद था दामन में लिए वुसअ'त-ए-कौनैन
इस दिल को मगर नुक़्ता-ए-परकार ही समझे
ज़ाहिद को भला कब थी यहाँ फ़ुर्सत-ए-तफ़्हीम
रहमत को तिरी तेरे गुनहगार ही समझे
वो हाल 'रज़ा' तुम ने बना रक्खा है दिल का
देखे जो कोई इश्क़ का आज़ार ही समझे
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