यूँ ही है नूर वहदत का दिल-ए-इंसाँ में आ जाना
यूँ ही है नूर वहदत का दिल-ए-इंसाँ में आ जाना
कि जैसे आँख के तिल में जहाँ-भर का समा जाना
न लेते नाम भी वो ज़ुल्म का भूले से दुनिया में
अगर इतना समझ लेते कि है पेश-ए-ख़ुदा जाना
ये फ़ितरत हुस्न की है और वो तीनत मोहब्बत की
जिसे तुम ने जफ़ा समझा उसे हम ने वफ़ा जाना
बयाँ कर देना हाल-ए-ज़ार हम सहरा-नशीनों का
अगर कूचे में इस ज़ालिम के ओ बाद-ए-सबा जाना
मिले फ़ुर्सत अगर तुम को तो बा'द मर्ग दम-भर को
बरा-ए-फ़ातिहा बेकस की तुर्बत पर भी आ जाना
न समझी तुम ने कुछ हस्ती हमारी इश्क़ में लेकिन
तुम्हें अपने से भी हम ने सिवा समझा सिवा जाना
हक़ीक़त में वही मंज़िल-शनास-ए-राह-ए-इरफ़ाँ है
कि जिस ने अपनी हर इक साँस को बाँग-ए-दरा जाना
समझता कोई जीते-जी तो हाँ इक बात थी 'शो'ला'
मिरे मरने पे दुनिया ने मुझे जाना तो क्या जाना
- पुस्तक : Naghmah-e-Fikr (पृष्ठ 19)
- रचनाकार : Shola Saiyed Momin Husain Taqvi Kararivi
- प्रकाशन : Shabistan 218 Shahah ganj Allahabad (1968)
- संस्करण : 1968
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