ज़ब्त के बा-वस्फ़ दिल क्यों बे-अदब होने लगा
ज़ब्त के बा-वस्फ़ दिल क्यों बे-अदब होने लगा
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत
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ज़ब्त के बा-वस्फ़ दिल क्यों बे-अदब होने लगा
क्यों निगाहों से अयाँ रंग-ए-तलब होने लगा
क्या हुई मेरी वफ़ाओं की अक़ीदत क्या हुई
बेवफ़ाई का गिला क्यों ज़ेर-ए-लब होने लगा
बे-क़रारी दिल की फ़ितरत ज़ब्त-ए-ग़म मेरी सरिश्त
कशमकश का ताज़ा सामाँ रोज़-ओ-शब होने लगा
दिल की ख़ुशनूदी अगर मंज़ूर है ख़ामोश रह
जोश-ए-ग़म तो आज-कल कुछ बे-अदब होने लगा
'फ़ितरत' और बे-मेहरी-ए-तक़दीर का शिकवा ग़लत
ये नहीं होने का ऐ दिल ऐसा कब होने लगा
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