ज़मीं पे रह नहीं सकते वो आन-बान के साथ
ज़मीं पे रह नहीं सकते वो आन-बान के साथ
बदलते रहते हैं जो रंग आसमान के साथ
तमाम दिन वो अँधेरों से लड़ते रहते हैं
जो लोग सुब्ह को उठते नहीं अज़ान के साथ
वो मुझ से रखता है दूरी हज़ारों मीलों की
खड़ी है झोंपड़ी जिस की मिरे मकान के साथ
हमें पढ़ाया गया है यही तो मकतब में
रवय्या मंफ़ी न रखना किसी ज़बान के साथ
अमीरों ही के लिए मत बहा पसीने को
उगा तो ख़ोशा-ए-गंदुम भी ज़ाफ़रान के साथ
बिखेर देता कभी का मुझे अकेला-पन
न रहता जुड़ के अगर अपने ख़ानदान के साथ
ये ज़ख़्म-ए-शौक़ जो दिल पर लगा है ऐ 'शीबान'
महकते रहना हमेशा इसी निशान के साथ
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