ज़रा सी चोट लगी थी कि चलना भूल गए
ज़रा सी चोट लगी थी कि चलना भूल गए
शरीफ़ लोग थे घर से निकलना भूल गए
तिरी उमीद पे शायद न अब खरे उतरें
हम इतनी बार बुझे हैं कि जलना भूल गए
तुम्हें तो इल्म था बस्ती के लोग कैसे हैं
तुम इस के बा'द भी कपड़े बदलना भूल गए
हमें तो चाँद सितारों को रुस्वा करना था
सो जान-बूझ के इक रोज़ ढलना भूल गए
'हसीब'-सोज़ जो रस्सी के पुल पे चलते थे
पड़ा वो वक़्त कि सड़कों पे चलना भूल गए
- पुस्तक : Dhoop Phir Nikal aai (पृष्ठ 45)
- रचनाकार : Haseeb soz
- प्रकाशन : Lamhe lamhe Publications, Imam bara Alapur, Badaun (2017)
- संस्करण : 2017
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