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ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है

शमशाद सहर

ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है

शमशाद सहर

MORE BYशमशाद सहर

    ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है

    काँच के का'बे में पत्थर का ख़ुदा माँगे है

    आज फिर अपने पयम्बर की पनाहों के लिए

    अहद-ए-आशोब कोई ग़ार-ए-हिरा माँगे है

    ज़िंदगी आज है इंसान की तो मिस्ल-ए-क़फ़स

    उम्र-ए-पैहम के लिए अपनी चिता माँगे है

    हुस्न-कारी के लिए आज ये दिलदार-ए-सुख़न

    रंग-ए-ख़ूँ और ज़रा बू-ए-हिना माँगे है

    मिन्नत-ए-गोश नहीं क़ाफ़िला-ए-वक़्त-ए-'सहर'

    लम्हा लम्हा वो मगर बाँग-ए-दरा माँगे है

    स्रोत :
    • पुस्तक : Sahil se duur (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : Shamshaad sahar
    • प्रकाशन : Urdu Markaz, 15 chajju Bag, Patna (1996)
    • संस्करण : 1996

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