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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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हास्य/व्यंग्य शेर

अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से

लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से

अकबर इलाहाबादी

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं

कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

अकबर इलाहाबादी

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए

अकबर इलाहाबादी

लिपट भी जा रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है

नहीं नहीं पे जा ये हया की ड्यूटी है

अकबर इलाहाबादी

ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए

मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए

अकबर इलाहाबादी

वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'

जागना रात भर मुसीबत है

अकबर इलाहाबादी

हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया

कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है

अकबर इलाहाबादी

जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर

मुसलमानी में ताक़त ख़ून ही बहने से आती है

अकबर इलाहाबादी

इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम

वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया

अकबर इलाहाबादी

बताऊँ आप को मरने के बाद क्या होगा

पोलाओ खाएँगे अहबाब फ़ातिहा होगा

अकबर इलाहाबादी

धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का

चंदा वसूल होता है साहब दबाव से

अकबर इलाहाबादी

मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में

शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार हो

अकबर इलाहाबादी

कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया

जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया

अकबर इलाहाबादी

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में

कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

अकबर इलाहाबादी

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

अकबर इलाहाबादी

बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था

हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा

शौक़ बहराइची

लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं

सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है

अकबर इलाहाबादी

जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी

मुल्ला की दौड़ मस्जिद 'अकबर' की दौड़ भट्टी

अकबर इलाहाबादी

बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने

क्या शहर-ए-मोहब्बत में हज्जाम नहीं होता

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें

मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

अकबर इलाहाबादी

बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफ़ाम के

ला मुझे दे दे तिरे किस काम के

मुज़्तर ख़ैराबादी

जब भी वालिद की जफ़ा याद आई

अपने दादा की ख़ता याद आई

मोहम्मद यूसुफ़ पापा

आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम

हम तो ए.बी में रहे अग़्यार बी.ए हो गए

अकबर इलाहाबादी

हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह देखा

कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर

अकबर इलाहाबादी

तअल्लुक़ आशिक़ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था

मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीवी मियाँ हो कर

अकबर इलाहाबादी

इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह मोड़ेंगे

जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को छोड़ेंगे

अकबर इलाहाबादी

बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है

मैं चल दिया ये कह के कि आदाब अर्ज़ है

अकबर इलाहाबादी

मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी

अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को

अकबर इलाहाबादी

इल्म में झींगुर से बढ़ कर कामराँ कोई नहीं

चाट जाता है किताबें इम्तिहाँ कोई नहीं

ज़रीफ़ लखनवी

इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह मोड़ेंगे

जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को छोड़ेंगे

अकबर इलाहाबादी

वाक़िफ़ नहीं कि पाँव में पड़ती हैं बेड़ियाँ

दूल्हे को ये ख़ुशी है कि मेरी बरात है

लाला माधव राम जौहर

अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में

तो शैख़ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर मसाजिद में

अकबर इलाहाबादी

कॉलेज से रही है सदा पास पास की

ओहदों से रही है सदा दूर दूर की

अकबर इलाहाबादी

बुत-कदे में शोर है 'अकबर' मुसलमाँ हो गया

बे-वफ़ाओं से कोई कह दे कि हाँ हाँ हो गया

अकबर इलाहाबादी

एक काफ़िर पर तबीअत गई

पारसाई पर भी आफ़त गई

अकबर इलाहाबादी

हक़ीक़त को छुपाया हम से क्या क्या उस के मेक-अप ने

जिसे लैला समझ बैठे थे वो लैला की माँ निकली

राग़िब मुरादाबादी

बेगम भी हैं खड़ी हुई मैदान-ए-हश्र में

मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ख़ुदा माँग

हाशिम अज़ीमाबादी

पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से

साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है

अकबर इलाहाबादी

उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर

ख़ैरियत गुज़री कि अँगूर के बेटा हुआ

आगाह देहलवी

ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं

मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं

अकबर इलाहाबादी

शैख़ की दावत में मय का काम क्या

एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी

अकबर इलाहाबादी

बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम

हमें हर अहद में मुश्किल रहा है बा-ख़ुदा होना

अकबर इलाहाबादी

होंट की शीरीनियाँ कॉलेज में जब बटने लगीं

चार दिन के छोकरे करने लगे फ़रहादियाँ

हाशिम अज़ीमाबादी

तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़

असर लेकिन निगाह-ए-नाज़ का भी कम नहीं होता

अकबर इलाहाबादी

बेटे को चैक समझ लिया स्टेट-बैंक का

सम्धी तलाश करने लगे हाई रैंक का

मुस्तफ़ा अली बेग

चीन अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा

रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा

मजीद लाहौरी

कहो तो क्यूँ है ये बनना-सँवरना

मिरी जाँ जान लोगे क्या किसी की

अज्ञात

गुज़री सियाहकारी में या रब तमाम उम्र

आधी शबाब में कटी आधी ख़िज़ाब में

अज्ञात

बूट डासन ने बनाया मैं ने इक मज़मूँ लिखा

मुल्क में मज़मूँ फैला और जूता चल गया

अकबर इलाहाबादी

गोग्गल लगा के आँख पर चलने लगे हसीन

वो लुत्फ़ अब कहाँ निगह-ए-नीम-बाज़ का

हाशिम अज़ीमाबादी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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