आगा हश्र से दो मुलाकातें
तारीखें और सन मुझे कभी याद नहीं रहे, यही वजह है कि ये मज़मून लिखते वक़्त मुझे काफ़ी उलझन हो रही है। ख़ुदा मालूम कौन सा सन था। और मेरी उम्र क्या थी, लेकिन सिर्फ इतना याद है कि ब-सद मुश्किल इंट्रैंस पास कर के और दो दफ़ा एफ़.ए. में फ़ेल होने के बाद मेरी तबीयत पढ़ाई से बिलकुल उचाट हो चुकी थी और जुए से मेरी दिलचस्पी दिन-ब-दिन बढ़ रही थी। कटड़ा जैमल सिंह में दीनू या फज़लू कुम्हार की दुकान के ऊपर एक बैठक थी जहां दिन रात जुआ होता था। फ्लश खेली जाती थी। शुरू शुरू में तो ये खेल मेरी समझ न आया। लेकिन जब आ गया तो फिर मैं इसी का हो रहा... रात को जो थोड़ी बहुत सोने की फ़ुर्सत मिलती थी। इस में भी ख़्वाब राउंडों और तरीलों ही के आते थे।
एक बरस के बाद जुए से मुझे कुछ उकताहट होने लगी। तबीयत अब कोई और शुग़्ल चाहती थी... क्या...? ये मुझे मालूम नहीं था... दीनू या फज़लू कुम्हार की बैठक में एक रोज़ इबराहीम ने जो कि अमृतसर म्यूनिस्पल्टी में तांगों का दारोगा था, आग़ा हश्र का ज़िक्र किया और बताया कि वो अमृतसर आए हुए हैं। मैंने ये सुना तो मुझे स्कूल के वो दिन याद आ गए जब तीन चार पेशा-वर लफंगों के साथ मिलकर हमने एक ड्रामेटिक कलब खोली थी। और आग़ा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था ये कलब सिर्फ़ पंद्रह बीस रोज़ क़ायम न रह सकी थी। इस लिए कि वालिद साहब ने एक रोज़ धावा बोल कर हारमोनियम और तबले सब तोड़ फोड़ दिए थे। और वाज़ेह अलफ़ाज़ में हमको बता दिया था कि ऐसे वाहियात शुग़्ल उन्हें बिलकुल पसंद नहीं।
इस कलब के बाक़ियात आग़ा हश्र के इस ड्रामे के चंद अलफ़ाज़ हैं। जो मेरे ज़हन के साथ अभी तक चिपके हुए हैं। “अर्थात उस के करम हैं।” मेरा ख़याल है जब दारोगा इबराहीम ने आग़ा हश्र का ज़िक्र किया तो मुझे उस वक़्त ड्रामे का पूरा एक पैरा याद था, चुनांचे मुझे इस ख़बर से एक गूना दिलचस्पी पैदा हो गई, कि आग़ा हश्र अमृतसर में है।
आग़ा साहब का कोई ड्रामा देखने का मुझे इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ था। इस लिए कि रात को घर से बाहर रहने की मुझे क़तअन इजाज़त नहीं थी। उनके ड्रामे भी मैंने नहीं पढ़े थे। इस लिए कि मुझे मिस्ट्रीज़ आफ़ कोर्ट आफ़ लंडन और तीर्थ राम फ़िरोज़ पूरी के तर्जुमा कर्दा अंग्रेज़ी जासूसी नावेल जैसी किताबें पढ़ने का शौक़ था लेकिन इस के बावजूद अमृतसर में आग़ा साहब की आमद की ख़बर ने मुझे काफ़ी मुतास्सिर किया।
आग़ा साहिब के मुताल्लिक़ बेशुमार बातें मशहूर थीं। एक तो ये कि वो कूचा वकीलां में रहा करते थे जो हमारी गली में थी, जिसमें हमारा मकान था। आग़ा साहब बहुत बड़े आदमी थे... कश्मीरी थे, यानी मेरे हम-क़ौम... और फिर मेरी गली में वो कभी अपने बचपन के अय्याम गुज़ार चुके थे। इन तमाम बातों का नफ़्सियाती असर मुझ पर हुआ आप इसे बख़ूबी समझ सकते हैं।
दारोगा इबराहीम से जब मैंने आग़ा साहब के मुताल्लिक़ कुछ और पूछा तो उसने वही बातें बताईं जो मैं औरों से हज़ार मर्तबा सुन चुका था कि वो पर्ले दर्जे के अय्याश हैं। दिन रात शराब के नशे में धुत रहते हैं। बेहद गंदा ज़हन हैं... ऐसी ऐसी गालियां ईजाद करते हैं कि मुग़ल्लिज़ात में जिनकी कोई मिसाल नहीं मिलती। बड़े से बड़े आदमी को भी ख़ातिर में नहीं लाते... कंपनी के फ़ुलां फ़ुलां सेठ ने जब उनसे एक बार ड्रामे का तक़ाज़ा किया तो उन्होंने उस को इतनी मोटी गाली दी जो हमेशा के लिए उस के दिल में आग़ा साहब के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के लिए काफ़ी थी। लेकिन हैरत है कि सेठ ने उफ़ न की, और हाथ जोड़ कर कहने लगा। “आग़ा साहब हम आपके नौकर हैं...” बदीह गो थे... एक मर्तबा रिहर्सल हो रही थी। गर्मी के बाइस एक ऐक्ट्रस बार-बार माथे पर से उंगली के साथ पसीना पोंछ रही थी। आग़ा साहब झुंझलाए और एक शेर मौज़ूं हो गया।
अब्रू न संवार इक्रो कट जाएगी उनगली
नादान हो तलवार से खेला नहीं करते
रिहर्सल हो रही थी। लफ़्ज़ “फ़ंड” एक ऐक्ट्रस की ज़बान पर नहीं चढ़ता था। आग़ा साहब ने गरज कर “फ़ंड” का एक हम क़ाफ़िया लफ़्ज़ लुढका दिया... ऐक्ट्रस की ज़बान पर फ़ौरन “फ़ंड” चढ़ गया।
आग़ा साहब के कान तक ये बात पहुंची कि हासिद ये प्रोपेगंडा कर रहे हैं कि हिन्दी के ड्रामे उनके अपने लिखे हुए नहीं क्यूं कि वो हिन्दी ज़बान से बिलकुल ना-वाक़िफ़ हैं। आग़ा साहब स्टेज पर ड्रामा शुरू होने से पहले आए और हाज़िरीन से कहा। “मेरे मुताल्लिक़ चंद मुफ़सिदा पर्दाज़ ये बात फैला रहे हैं कि मैंने अपने हिन्दी के ड्रामे किराए के पंडितों से लिखवाए हैं... मैं अब आपके सामने शुद्ध हिन्दी में तक़रीर करूंगा...” चुनांचे आग़ा साहब दो घंटे तक हिन्दी में तक़रीर करते रहे जिसमें एक लफ़्ज़ भी उर्दू या फ़ारसी का नहीं था।
आग़ा साहब जिस ऐक्ट्रस की तरफ़ निगाह उठाते थे वो फ़ौरन ही उनके साथ ख़ल्वत में चली जाती थी।
आग़ा साहब मुंशियों को हुक्म देते थे कि “तैयार हो जाओ।” और शराब पी कर टहलते टहलते ब-यक वक़्त कॉमेडी और ट्रेजडी लिखवाना शुरू कर देते थे।
आग़ा साहब ने कभी किसी औरत से इश्क़ नहीं किया... लेकिन मुझे दारोगा इब्राहीम की ज़बानी मालूम हुआ कि ये बात झूट है क्यूं कि वो अमृतसर की मशहूर तवाइफ़ मुख़्तार पर आशिक़ हैं। वही मुख़्तार जिसने “औरत का प्यार” फ़िल्म में हीरोइन का पार्ट अदा किया है।
मुख़्तार को मैंने देखा हुआ था। हाल बाज़ार में अनवर पेंटर की दुकान पर बैठ कर हम क़रीब क़रीब हर जुमेरात की शाम को मुख़्तार उर्फ़ दारी को नए से नए फ़ैशन के कपड़ों में मलबूस दूसरी तवाइफ़ों के हमराह “ज़ाहिरा पीर” की दरगाह की तरफ़ जाते देखा करते थे।
आग़ा साहब शक्ल-ओ-सूरत के कैसे थे। ये मुझे मालूम नहीं था। कुछ छपी हुई तस्वीरें देखने में आई थीं। मगर उनकी छपाई इस क़दर वाहियात थी कि सूरत पहचानी ही नहीं जाती थी। उम्र के मुताल्लिक़ सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो अब ज़ईफ़ हो चुके हैं... उस ज़माने में यानी उम्र के आख़िरी वक़्त में उनको मुख़्तार से कैसे इशक़ हुआ। इस पर हम सबको जो दीनो या फज़लू कुम्हार की बैठक में जुए खेल रहे थे, सख़्त ताज्जुब हुआ था... मुझे याद है नाल के पैसे निकालते हुए दीनू या फज़लू कुम्हार ने गर्दन हिला कर बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा था। “बुढ़ापे का इशक़ बड़ा क़ातिल होता है।”
एक-बार आग़ा साहब का ज़िक्र बैठक पर हुआ तो फिर क़रीब क़रीब हर-रोज़ उनकी बातें होने लगीं। हम में से सिर्फ़ दारोगा इबराहीम आग़ा साहब को ज़ाती तौर पर जानता था। एक रोज़ उसने कहा। कल रात हम मुख़्तार के कोठे पर थे... आग़ा साहब गाव तकिए का सहारा लिए बैठे थे हम में से बारी बारी हर एक ने उनसे पुरज़ोर दरख़्वास्त की कि वो अपने नए क़लमी ड्रामे “रुस्तम-ओ-सोहराब” का कोई क़िस्सा सुनाएँ, मगर उन्होंने इनकार कर दिया। हम सब मायूस हो गए। एक ने मुख़्तार की तरफ़ इशारा किया। वो आग़ा साहब की बग़ल में बैठ गई और उनसे कहने लगी। आग़ा साहब हमारा हुक्म है कि आप रुस्तम-ओ-सोहराब, सुनाएँ...!” आग़ा साहब मुस्कुराए और बैठ कर रुस्तम का पुरज़ोर मुकालमा अदा करना शुरू कर दिया। अल्लाह अल्लाह क्या गरजदार आवाज़ थी। मालूम होता था कि पानी का तेज़ धारा पहाड़ के पत्थरों को बहाए लिए चला जा रहा है।
एक दिन इबराहीम ने बताया कि आग़ा साहब ने पीना यक क़लम तर्क कर दिया है। जो आग़ा साहब के मुताल्लिक़ ज़्यादा जानते थे। उनको बहुत ताज्जुब हुआ। इबराहीम ने कहा कि “ये फ़ैसला उन्होंने हाल ही में मुख़्तार से इश्क़ होने की वजह से किया है।” ये इशक़ भी किया बला थी। हम समझ न सके। लेकिन दीनू या फज़लू ने नाल के कुल पैसे अपने तहमद के डब में बाँधते हुए एक-बार फिर कहा। “बुढ़ापे के इश्क़ से ख़ुदा बचाए... बड़ी ज़ालिम चीज़ होती है।”
जुए से तबीयत उकता ही चुकी थी। मैंने बैठक जाना आहिस्ता आहिस्ता छोड़ दिया इस दौरान में मेरी मुलाक़ात बारी साहब और हाजी लक़-लक़ से हुई जो रोज़नामा “मसावात” के एडिटर मुक़र्रर हो कर अमृतसर आए हुए थे। जे जे के होटल “शीराज़” में दोनों चाय पीने आते थे और अदब से सियासत पर बातें करते थे। उनसे मेरी मुलाक़ात हुई। बारी साहब को मैंने बहुत पसंद किया। इसी दौरान में जे जे ने अख़तर शीरानी मरहूम को मदऊ किया। दिन रात ठर्रे के दौर चलने लगे, शेर-ओ-अदब से मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी। जो वक़्त पहले फ्लश खेलने में कटता था। अब “मसावात” के दफ़्तर में कटने लगा। कभी कभी बारी साहब एक-आध ख़बर तर्जुमा के लिए मुझे दे देते जो मैं टूटी फूटी उर्दू में कर दिया करता था। आहिस्ता आहिस्ता मैंने फ़िल्मी ख़बरों का एक कालम संभाल लिया। बाज़ दोस्तों ने कहा कि महज़ ख़ुराफ़ात होती है लेकिन बारी साहब ने कहा। “बकवास करते हैं। तुम अब तबअ-ज़ाद मज़मून लिखने शुरू करो।”
तबअ-ज़ाद मज़मून तो मुझसे लिखे न गए लेकिन फ़्रांसीसी नावेल-निगार की एक किताब “लास्ट डेज़ आफ़ कुंड मुंड” मेरी अलमारी में पड़ी थी। बारी साहब उठा कर ले गए दूसरे रोज़ दोपहर के क़रीब में “मसावात” के दफ़्तर में गया तो क़ातिबों से मालूम हुआ कि बारी साहब को सरसाम हो गया है। एक किताब सुबह से बुलंद आवाज़ में पढ़ रहे हैं। थोड़े थोड़े वक़फ़े के बाद यहां आते हैं। और एक लोटा ठंडे पानी का सर पर डलवा कर अपने कमरे में चले जाते हैं। मैं उधर गया तो दरवाज़े बंद थे और वो ख़तीबाना अंदाज़ में अंग्रेज़ी की कोई निहायत ही ज़ोरदार इबारत पढ़ रहे थे। मैंने दस्तक दी। दरवाज़ा खुला। बारी साहब कुर्ते पजामे बग़ैर बाहर आए। हाथ में विक्टर ह्यूगो की किताब थी। उसे मेरी तरफ़ बढ़ा कर अंग्रेज़ी में कहा। “इट इज़ ए वेरी हॉट बुक” और जब किताब पढ़ने की गर्मी दूर हुई तो मुझे मश्वरा दिया कि मैं इस का तर्जुमा करूँ।
मैंने किताब पढ़ी। लिखने का अंदाज़ बहुत ही मूसिर और ख़तीबाना था। शराब पीकर तर्जुमा करने की कोशिश की। मगर नज़रों के सामने सतरें गड-मड हो गईं। सेहन में पलंग बिछवा कर हक़ीक़ी ने मुँह में लेकर अपनी बहन को तर्जुमा लिखवाने की कोशिश की। मगर इस में भी नाकाम रहा। आख़िर में अकेले बैठ कर दस पंद्रह दिनों के अंदर अंदर डिक्शनरी सामने रखकर सारी किताब का तर्जुमा कर डाला। बारी साहब ने बहुत पसंद किया। इस की इस्लाह की और यासूब हसन मालिक उर्दू बुक स्टॉल के पास रुपये में बिकवा दिया। यासूब हसन ने उसे बहुत ही क़लील अर्से में छाप कर शायेअ कर दिया... अब मैं साहब-ए-किताब था।
“मुसावात” बंद हो गया। बारी साहब, लाहौर किसी अख़बार में चले गए, जे जे का होटल सूना हो गया। मेरे लिए कोई शुग़्ल न रहा। लिखने की चाट पड़ गई थी। लेकिन चूँकि दोस्तों से दाद न मिलती थी। इस लिए इधर कोई तवज्जो न दी। अब फिर दीनू या फज़लू कुम्हार की बैठक थी। जुआ खेलता था। मगर इस में अब वो पहले सा लुत्फ़ और पहली सी हरारत नहीं थी।
एक दिन दारोगा इबराहीम ने फ्लश खेलने के दौरान में बताया कि “आग़ा हश्र आए हुए हैं। और मुख़तार के यहां ठहरे हुए हैं” मैंने उस से कहा। “किसी रोज़ मुझे वहां ले चलो।” इबराहीम ने वादा तो कर लिया मगर पूरा न किया। जब मैंने तक़ाज़ा किया तो उसने ये कह कर टर्ख़ा दिया। आग़ा साहब लाहौर चले गए हैं।
मेरा एक दोस्त था हरी सिंह, अल्लाह बख़्शे ख़ूब आदमी था। पाँच मकान बेच कर दो मर्तबा सारे यूरोप की सैर कर चुका था। और उन दिनों छटे और आख़िरी मकान को आहिस्ता-आहिस्ता बड़े सलीक़े के साथ खा रहा था। फ़्रांस में सिर्फ छः महीने रहा था। लेकिन फ़्रांसीसी ज़बान बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से बोल लेता था। बहुत ही दुबला पतला, मरियल सा इन्सान था। मगर बला का फुरतीला, चर्ब ज़बान और धांसू, यानी बर्मे की तरह अंदर धंस जाने वाला। एक रोज़ मैंने उस से आग़ा हश्र का ज़िक्र किया। उसने फ़ौरन ही पूछा। क्या “तुम इस से मिलना चाहते हो?” मैंने कहा। “बहुत देर से मेरी ख़्वाहिश है कि उनको एक नज़र देखूं।” हरी सिंह ने फ़ौरन ही कहा। “इस में क्या मुश्किल है जब से वो यहां अमृतसर में पण्डित मोहसिन के हाँ ठहरा है, क़रीब क़रीब हर-रोज़ मेरी उस से मुलाक़ात होती है...” मैं उछल पड़ा। तो हरी कल शाम को तुम मुझे उनके पास ले चलो। हरी ने अपना विस्की का गिलास अपने पतले होंटों से लगाया। और बड़ी नज़ाकत से एक छोटा सा घूंट भर के फ़्रांसीसी ज़बान में कुछ कहा जिसका मतलब था। “यक़ीनन मेरे दोस्त।”
और हरी सिंह दूसरे रोज़ शाम को मुझे आग़ा हश्र काश्मीरी के पास ले गया।
पण्डित मोहसिन जैसा कि नाम से ज़ाहिर है कश्मीरी पण्डित थे। नाम उनका जाने क्या था मोहसिन उनका तख़ल्लुस था। मुशाइरों में पुरानी दक़्यानूसी शाइरी के नमूने के तौर पर पेश होते थे। आपका कारोबारी ताल्लुक़ कटड़ा घुन्नियाँ के अमृत सिनेमा से था।
आग़ा साहब से पंडित-जी की दोस्ती मालूम नहीं शाइरी की वजह से थी। या सिनेमा की वजह से। या कटड़ा घुन्नियाँ इस का बाइस था। जिसमें अमृत सिनेमा और मुख़तार का बाला-ए-ख़ाना बिलकुल आमने सामने थे। सबब कुछ भी हो, आग़ा साहब पण्डित मोहसिन के हाँ ठहरे हुए थे और जैसा कि मुझे उनकी बाहम गुफ़्तगू से पता चला, दोनों एक दूसरे से बे-तक्कलुफ़ थे।
पण्डित मोहसिन की बैठक या दफ़्तर कटड़ा घुन्नियाँ के पास पश्म वाले बाज़ार से निकल कर आगे जहां सब्ज़ी की दुकानें शुरू होती हैं। एक बड़ी सी डेयुढ़ी के ऊपर वाक़ेअ था। हरी सिंह आगे था। मैं उस के पीछे सीढ़ियां चढ़ते वक़्त मेरा दिल धक धक करने लगा। मैं आग़ा हश्र को देखने वाला था।
बाहर सेहन में कुर्सियों पर कुछ आदमी बैठे थे। एक कोने में तख़्त पर पण्डित मोहसिन बैठे गुड़-गुडी पी रहे थे। सबसे पहले एक अजीब-ओ-ग़रीब आदमी मेरी निगाहों से टकराया। चीख़ते हुए लाल रंग की चमकदार सा टन का लाचा, दो घोड़े की बोसकी की कालर वाली सफ़ेद क़मीज़, कमर पर गहरे नीले रंग का फुंदनों वाला आज़ार बंद, बड़ी बड़ी बेहंगम आँखें... मैंने सोचा कटड़ा घुन्नियाँ का कोई पीर होगा। लेकिन फ़ौरन ही किसी ने उस को “आग़ा साहब” कह कर मुख़ातब किया। मुझे धक्का सा लगा।
हरी सिंह ने बढ़कर उस अजीब-ओ-ग़रीब आदमी से मुसाफ़ा किया, और मेरी तरफ़ इशारा करके उस से कहा। “मेरे दोस्त सआदत हसन मंटो... आपसे मिलने के बहुत मुश्ताक़ थे।”
आग़ा साहब ने अपनी बड़ी बड़ी बेहंगम आँखें मेरी तरफ़ घुमाईं और मुस्कुरा कर कहा। “लार्ड मंटो से क्या रिश्ता है तुम्हारा।”
मैं तो जवाब न दे सका। लेकिन हरी सिंह ने कहा। “आप मंटो नहीं मंटो हैं... ” कश्मीरी आग़ा साहब ने एक लंबी ओह की। और पण्डित मोहसिन से कश्मीरियों की “अल” के मुताल्लिक़ तवील गुफ़्तगू शुरू कर दी। मैं पास ही बेंच पर बैठ गया। पंडित-जी को क़तअन आग़ा साहब की इस गुफ़्तगू से दिलचस्पी नहीं थी क्यूं कि वो बार-बार उनसे कहते थे। “आग़ा साहब, इस को छोड़िए। ये बताइए कि आप कब मेरे लिए दो रोल का मज़ाहिया ड्रामा लिखेंगे।”
आग़ा साहब को इस मज़ाहिया ड्रामे से कोई दिलचस्पी नहीं थी। वो गुफ़्तगू तो कश्मीरियों की “अल” के बारे में कर रहे थे। मगर ऐसा मालूम होता था कि दिमाग़ कुछ और ही सोच रहा है। एक दो बार उन्होंने दौरान-ए-गुफ़्तगू में अपने नौकर को मोटी मोटी गालियां देकर याद किया कि वो अभी तक आया क्यूं नहीं।
आग़ा साहब जब ख़ामोश हुए तो पण्डित मोहसिन ने उनसे कहा। “आग़ा साहब इस वक़्त आपकी तबीयत मौज़ूं है। मैं काग़ज़ क़लम लाता हूँ, आप वो कॉमेडी लिखवाना शुरू कर दीजिए।”
आग़ा साहब की एक आँख भींगी थी। आपने उसे घुमा कर कुछ अजीब अंदाज़ से पंडित-जी की तरफ़ देखा। “अबे चुप कर। आग़ा हश्र की तबीयत हर वक़्त मौज़ूं होती है।” पंडित जी ख़ामोश हो गए और अपनी गुड़गुड़ी गुड़गुड़ाने लगे। दफ़ातन मुझे महसूस हुआ कि मेरा सर चकरा रहा है। तेज़ ख़ुश्बू के भबके आ रहे थे। मैंने देखा आग़ा साहब के दोनों कानों में इत्र के फूल ठुँसे हुए थे। और ग़ालिबन सर भी इतर ही से चपड़ा हुआ था। मैं कुछ तो इस तेज़ ख़ुशबू और कुछ आग़ा साहब के लाचे और आज़ार बंद के शोख़ रंगों में क़रीब क़रीब ग़र्क़ हो चुका था।
बाज़ार में दफ़ातन शोर-ओ-गुल बर्पा हुआ। एक साहब ने उठकर बाहर झाँका और आग़ा साहब से कहा। “आग़ा साहब तशरीफ़ लाइए। मेंहदी का जुलूस आ रहा है।”
आग़ा साहब ने कहा। “बकवास है। और हादिसा-ए-कर्बला पर निहायत ही मुहक़्क़िक़ाना लेक्चर देना शुरू कर दिया। “दजले का मुंह-बंद था। फुरात ख़ुश्क पड़ी थी। पीने को पानी की एक बूँद नहीं थी। मेंहदी गूंधी किस से गई...” आग़ा हश्र... इस से आगे कहते कहते रुक गए। एक साहब जो ग़ालिबन शिया थे। महफ़िल से उठकर चले गए। आग़ा साहब ने मौज़ू बदल दिया।
पण्डित मोहसिन को मौक़ा मिला। चुनांचे उन्होंने फिर दरख़्वास्त की। आग़ा साहब दो रेल की कॉमेडी आप को लिखनी होगी।
आग़ा साहब ने ये मोटी गाली दी। कामेडी की... यहां ट्रेजडी की बातें हो रही थीं और तुम अपनी कॉमेडी ले आए हो। ये कह कर आग़ा साहब ने हादिसा कर्बला के बारे में फिर आलिमाना अंदाज़ में बहस शुरू कर दी क्यूँ कि वो जी भर के इस मौज़ू पर अपनी मालूमात और ख़यालात का इज़हार नहीं कर सके थे। मगर फ़ौरन जाने क्या जी में आई कि एक दम अपने नौकर को गालियां देना शुरू कर दीं कि वो अभी तक आया क्यूं नहीं। चुनांचे वो सिलसिला मुनक़ते हो गया।
थोड़ी देर के बाद इधर उधर की बातें शुरू हुईं। किसी ने आग़ा साहब से मौलाना अबुल-कलाम के बह्र-ए-इल्म के बारे में पूछा तो आपने उस का जवाब कुछ दिया। “महीयुद्दीन के मुताल्लिक़ पूछते हो। हम दोनों इकट्ठे अमरीकी और ईसाई मुबल्लिग़ों से मुनाज़रे लड़ते रहे हैं। घंटों अपना गला फाड़ते थे अजीब दिन थे वो भी।”
ये कह कर आग़ा साहब लाचे और आज़ार बंद के भड़कीले रंगों और कानों में अड़से हुए फोए और सर में चिपड़े हुए इत्र की तेज़ ख़ुशबू समेत बीते हुए दिनों की याद में कुछ अर्से के लिए खो गए। इस से गो आप रन्डियों के पीर दिखाई देते थे लेकिन उनका चेहरा बहुत ही बा-रोअब था। आँखें बंद थीं। झुके हुए पपोटों की झुर्रियों वाली पतली जिल्द के नीचे मोटी कांच की गोलियां सी होले होले हरकत कर रही थीं। उन्होंने जब आँखें खोलीं तो मैंने सोचा कितने बरसों का नशा उनमें मुंजमिद है। किस क़दर सुर्ख़ी उनके डोरों में जज़्ब हो चुकी है।
आग़ा साहब ने फिर कहा। “अजीब दिन थे वो... आज़ाद ढील के पेच लड़ाने का आदी था। मुझे आता था मज़ा खींच के पेच लड़ाने में। एक हाथ मारा। और पीटा काट लिया। हरीफ़ मुंह देखते रह गए। एक दफ़ा आज़ाद बहुत बुरी तरह घिर गया। मुक़ाबला चार निहायत ही हट धर्म ईसाई मिशनरियों से था। मैं पहुंचा तो आज़ाद की जान में जान आई। उसने उन मिशनरियों को मेरे हवाले किया। मैंने दो तीन ऐसे अड़ंगे दिए कि बौखला गए। मैदान हमारे हाथ रहा। लेकिन मेरा हलक़ सूख गया। क़यामत की गर्मी थी। मस्जिद दोज़ख़ बनी हुई थी। मैंने आज़ाद से कहा। “वो बोतल कहाँ है?” उसने जवाब। “मेरी जेब में।” मैंने कहा ख़ुदा के लिए चलो। मेरा हलक़ सूख के लक्कड़ी हो गया है। दूर जाने की ताब नहीं थी। वहीं मस्जिद में एक ख़ाने के अंदर झक मारनी पड़ी।”
इतने में आग़ा साहब का नौकर आ गया। आग़ा साहब ने अपने मख़सूस अंदाज़ में उस को गालियां दीं और वजह पूछी कि उसने इतनी देर क्यूं की। नौकर ने जो गालियों का आदी मालूम होता था काग़ज़ का एक बंडल निकाला और खोल कर आगे बढ़ाया। “ऐसी चीज़ लाया हूँ कि आपकी तबीयत ख़ुश हो जाये।”
आग़ा साहब ने खुला हुआ बंडल हाथ में लिया। शोख़ रंग के चार इज़ारबंद थे। आग़ा साहब ने एक नज़र उनको देखा और आँखों को बहुत ही ख़ौफ़नाक अंदाज़ में ऊपर उठा कर अपने नौकर पर गरजे... “ये चीज़ लाया है तू... ऐसे वाहियात इज़ारबंद तो इस शहर के कनजड़े भी नहीं पहनते।” ये कह कर उन्होंने बंडल फ़र्श पर दे मारा। कुछ देर नौकर पर बरसे, फिर जेब में से ग़ालिबन दो तीन हज़ार रुपये के नोट निकाले और उसे हुक्म दिया। “जाओ, पान लाओ।”
पण्डित मोहसिन ने गुड़-गुडी एक तरफ़ रखी और कहा। नहीं नहीं आग़ा साहब, मैं मंगवाता हूँ।
आग़ा साहब ने सब नोट तमाशा-बीनों के अंदाज़ में अपनी जेब में रखे और कहा। “जाओ तुम्हारे पास कुछ बाक़ी बचा हुआ है।”
नौकर जाने लगा तो उन्होंने उसे रोका। ठहरो... वहां से पता भी लेते आओ कि वो अभी तक क्यूं नहीं आएं।
नौकर चला गया। थोड़ी देर के बाद सीढ़ियों की जानिब से हल्की सी महक आई फिर रेशमीं सरसराहटें सुनाई दीं... आग़ा साहब का चेहरा बश्शाश हो गया... मुख़तार जो हरगिज़ हरगिज़ हसीन नहीं थी। ख़ुश-वाअज़ कपड़ों में मलबूस सेहन में दाख़िल हुई। आग़ा साहब और हाज़िरीन को तस्लीमात अर्ज़ की और अंदर कमरे में चली गई। आग़ा साहब की आँखें उस को वहां तक छोड़ने गईं।
इतने में पान आ गए। जो अख़बार के काग़ज़ में लिपटे हुए थे। नौकर अन्दर चला तो आग़ा साहब ने कहा। “काग़ज़ फेंकना नहीं संभाल के रखना।”
मैंने एक दम हैरत से पूछा। “आप इस काग़ज़ को क्या करेंगे आग़ा साहिब?”
आग़ा साहब ने जवाब दिया। पढूँगा। छपे हुए काग़ज़ का कोई भी टुकड़ा जो मुझे मिला है। मैंने ज़रूर पढ़ा है। ये कह कर वो उठे। माफ़ी चाहता हूँ, अंदर एक माशूक़ मेरा इंतिज़ार कर रहा है।
पण्डित मोहसिन ने गुड़-गुड़ी उठाई और उसे गुड़गुड़ाने लगे। मैं और हरी सिंह थोड़ी देर के बाद वहां से चल दिए।
मैं कई दिनों तक इस मुलाक़ात पर ग़ौर करता रहा। आग़ा साहब अजीब-ओ-ग़रीब हज़ार पहलू शख़्सियत के मालिक थे। मैंने उनके चंद ड्रामे पढ़े जो इग़लात से पुर थे और निहायत ही अदना काग़ज़ पर छपे हुए थे। जहां जहां कॉमेडी आती थी वहां फक्कड़पन मिलता था। ड्रामाई मुक़ामों पर मुक्का मिला बहुत ही ज़ोरदार था। बाज़ अशआर सूक़ियाना थे, बाज़ निहायत ही लतीफ़, सबसे पुर लुत्फ़ बात ये है कि इन ड्रामों का मौज़ू तवाइफ़ था। जिनमें आग़ा साहब ने उस के वुजूद को सोसाइटी के हक़ में ज़हर साबित किया था... और आग़ा साहब उम्र के इस आख़िरी हिस्से में शराब छोड़ कर एक तवाइफ़ से बहुत पुर-जोश क़िस्म का इशक़ फ़र्मा रहे थे। पण्डित मोहसिन से एक दफ़ा मुलाक़ात हुई तो उन्होंने कहा। “इश्क़ के मुताल्लिक़ तो मैं नहीं जानता। लेकिन तर्क-ए-शराबनोशी बहुत जल्द उनको ले मरेगी।”
आग़ा साहब तो कुछ देर ज़िंदा रहे लेकिन पण्डित मोहसिन ये फ़रमाने के तक़रीबन एक माह बाद इस दुनिया से चल बसे।
मैंने अब मुख़्तलिफ़ अख़बारों में लिखना शुरू कर दिया था। चंद महीने गुज़र गए। लोगों से मालूम हुआ कि आग़ा हश्र लाहौर में रुस्तम-ओ-सोहराब नाम का एक फ़िल्म बना रहे हैं जिसकी तैयारी पर रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है। इस फ़िल्म की हीरोइन जैसा कि ज़ाहिर है मुख़तार थी।
अमृतसर से लाहौर सिर्फ़ एक घंटे का सफ़र है। आग़ा साहब से फिर मिलने को जी तो बहुत चाहता था। मगर ख़ुदा मालूम ऐसी कौन सी रुकावट थी कि लाहौर जाना ही न हो सका।
बहुत दिनों के बाद बारी साहब ने बुलाया तो मैं लाहौर गया। वहां पहुंच कर कुछ ऐसा मश्ग़ूल हुआ कि आग़ा साहब को भूल ही गया। शाम के क़रीब हमने सोचा कि चलो उर्दू बुक स्टाल चलें चुनांचे मैं और बारी साहब दोनों अरब होटल से चाय पी कर इधर रवाना हुए। उर्दू बुक स्टॉल पहुंचे तो मैंने देखा आग़ा साहब यासूब के मेज़ के पास कुर्सी पर बैठे हैं।
मैंने बारी साहब को बताया कि “आग़ा हश्र हैं।” उन्होंने ग़ौर से उनकी तरफ़ देखा। “ये हैं आग़ा हश्र?”
आग़ा साहब का लिबास उसी क़िस्म का था। सफ़ेद बोसकी की क़मीज़, गहरे नीले रंग का रेशमी लाचा, सर से नंगे बैठे एक किताब की वरक़ गरदानी कर रहे थे। पास पहुंचा तो एक दम मेरा दिल धड़कने लगा। क्यूँकि आग़ा साहब के हाथ में मेरी तर्जुमा की हुई किताब सरगुज़िश्त-ए-असीर थी।
यासूब ने उठकर मेरा और बारी साहब का आग़ा हश्र से तआरुफ़ कराया और कहा। ये किताब जो आप देख रहे हैं मिस्टर मंटो की तर्जुमा की हुई है। आग़ा साहब ने अपनी मोटी मोटी आँखों से मुझे देखा। मेरा ख़याल था कि वो मुझे पहचान लेंगे। लेकिन उन्होंने मुझे देखने के बाद किताब के चंद औराक़ पलटे और कहा। “कैसा लिखने वाला है विक्टर ह्यूगो।”
बारी साहब ने जवाब दिया। “फ़्रांसीसी अदब में विक्टर ह्यूगो का रुत्बा बहुत बुलंद है।”
आग़ा साहब वरक़ पलटते रहे। ड्रामा टेस्ट था?
अब की फिर बारी साहब ने जवाब दिया। “ड्रामा टेस्ट भी था।”
आग़ा साहब ने पूछा। “क्या मतलब?”
बारी साहब ने उन्हें बताया। कि “ह्यूगो असल में शायर था। फ़्रांस की रूमानी तहरीक का नाम। उसने ड्रामे और नावे \ल भी लिखे। एक नावल मुसीबत-ज़दा इतना मशहूर हुआ कि उस की शायरी को लोग भूल गए और उसे नावलिस्ट की हैसियत से जानने लगे।” आग़ा साहब ये मालूमात बड़ी दिलचस्पी से सुनते रहे। आख़िर में उन्होंने यासूब से कहा, “सरगुज़िश्त-ए-असीर भी इन किताबों में शामिल कर ली जाये जो वो ख़रीद रहे थे।” मैं बहुत ख़ुश हुआ।
इस के बाद बारी साहब से बातें करते करते उठे और अंदर शो-रूम में चले गए। बारी साहब की गुफ़्तगू से आग़ा साहब मुतास्सिर हुए थे। चुनांचे उन्होंने बारी साहब की सिफ़ारिश पर कई किताबें खरीदीं। इस दौरान में बारी साहब ने उनसे कहा। “आग़ा साहब आप हिन्दुस्तानी ड्रामे की तारीख़ क्यों नहीं लिखते। ऐसी किताब की अशद ज़रूरत है।”
आग़ा साहब ने जवाब दिया। “ऐसी किताब सिर्फ़ आग़ा हश्र ही लिख सकता है। इस का इरादा भी था। मगर वो कमबख़्त आजकल क़ब्र में पांव लटकाए बैठा है... उस के दरवाज़े पर मौत दस्तक दे रही है।”
मैंने उनसे पूछा। “आग़ा साहब! आपके ड्रामे जो बाज़ार में बिकते हैं।” मैंने अभी अपना जुमल पूरा भी न किया था कि आग़ा साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा... “ला हौल वला... आग़ा हश्र के ड्रामे और... के चीथडों पर छपीं... बग़ैर इजाज़त के इधर उधर से सुन सुना कर छाप देते हैं।” इस के बाद उन्होंने बहुत ही मोटी गाली उन पब्लीशरों को दी जिन्होंने उनके ड्रामे छापे थे।
मैंने उनसे कहा। “आप उन पर दावा दायर क्यूं नहीं करते।”
आग़ा साहब हंसे। क्या वुसूल कर लूंगा उन टुट पंजियों से।”
बात दुरुस्त थी। मैं ख़ामोश हो गया।
आग़ा साहब ने बाहर आ कर यासूब से बिल तलब किया और जेब से तमाश-बीनों के अंदाज़ में तीन चार हज़ार रुपये के बिलकुल नए नोट निकाले। उन दिनों दस दस और पाँच पाँच के नए नोट निकले थे। जो पहले नोटों की ब-निसबत छोटे थे... आग़ा साहब ने बताया कि चैक कैश कराने के लिए जब बैंक गए तो वक़्त हो चुका था। आपने क्लर्क से कहा, “आग़ा हश्र का वक़्त अभी पूरा नहीं हुआ। जल्दी चैक कैश कराओ।”
क्लर्क को जब मालूम हुआ कि आग़ा हश्र हैं तो वो भागता हुआ मैनेजर के पास गया। फ़ौरन ही मैनेजर दौड़ा दौड़ा उनके पास आया और अपने कमरे में ले गया। नए नोट मंगवा कर उसने बड़े अदब से आग़ा साहब को पेश किए और कहा। “मैं आपकी और कोई सेवा तो नहीं कर सकता। ये नए नोट आए हैं, सबसे पहले आपकी ख़िदमत में पेश करता हूँ।”
बारी साहब ने एक नोट आग़ा साहब से लिया और उस को उंगलियों में पकड़ कर कहा। “आग़ा साहब गिरफ़्त कुछ कम हो गई है, ठीक इसी तरह जिस तरह हुकूमत की।”
आग़ा साहब ने इस फ़िक़रे की बहुत दाद दी। “ख़ूब, बहुत... गिरफ़्त कुछ कम हो गई है। ठीक उसी तरह जिस तरह हुकूमत की... मैं किसी न किसी ड्रामे में इसे ज़रूर इस्तेमाल करूँगा।”
बारी साहब बहुत ख़ुश हुए इतने में वो नौकर आया वही जो पण्डित मोहसिन के दफ़्तर में इज़ारबंद लाया था। उस के हाथों में चार कंधारी अनार थे। आग़ा साहब ने एक अनार लिया और नाक भौं चढ़ा कर गाली दी... “निहायत ही वाहियात अनार हैं।”
नौकर ने पूछा। “वापस कर आऊँ?”
आग़ा साहब बोले। “नहीं बे। तू खाले।” इस के बाद उन्होंने एक वज़नदार गाली लुढका दी। आग़ा साहब जाने लगे तो मैंने आटोग्राफ़ बुक निकाल कर उनके दस्तख़त लिए। आग़ा साहब जब काँपते हुए हाथ से अपना नाम लिख चुके तो कहा... “एक ज़माने के बाद मैंने ये चंद हर्फ़ लिखे हैं।”
मैं अमृतसर चला आया। कुछ अर्से के बाद ये ख़बर आई कि लाहौर में मुख़्तसर अलालत के बाद आग़ा हश्र काश्मीरी का इंतिक़ाल हो गया है। जनाज़े के साथ गिनती के चंद आदमी थे।
दीनू या फज़लू कुम्हार की बैठक पर जब आग़ा साहब की मौत का ज़िक्र हुआ तो उसने नाल के पैसे निकाल कर अपनी जालीदार टोपी में रखते हुए बड़े ही फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा। “बुढ़ापे का इश्क़ बहुत ज़ालिम होता है।”
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