बानी: नौ आदमियों का आदमी
बानी के बारे में मेरे ख़ाके को जूलिअस सीज़र की नाश के आगे मार्क अन्तोनी की इस तक़रीर की तरह न लिया जाए जिसमें हर थोड़ी देर बाद ये जुम्ला है:
YET BRUTUS IS AN HONOURABLE MAN
बानी को मैंने जिस तरह और जिस हद तक देखा, पाया और सुना है वो सब कुछ इस ख़ाके में है।
एक बानी वो जो बानी है, दूसरा बानी वो जो मनचन्दा है।
बानी जिसके मुकम्मल ‘मैं’ में पूरी नौ शख़्सियतें बैठी हुई हैं और एक बानी वो जो आप अपना तज़ब्ज़ुब और ख़ुद अपना फ़ैसल है। यहाँ ये वज़ाहत करता चलूँ कि बानी ने अपने मज्मूआ-ए-कलाम के आख़िर में ‘मेरा मुकम्मल मैं’ के उन्वान के तहत अपने ‘मैं’ में नौ शख़्सियतों को यूँ शामिल किया है जैसे अकबर ने अपने दरबारियों में नवरत्नों को जमा किया था। मगर अब ज़माना जम्हूिरयत का आ गया है। लिहाज़ा ये कहना मुश्किल है कि ये नौरतन बानी के दरबार के हैं या बानी ही इन नवरत्नों के दरबार के वाहिद रतन हैं।
बानी जो एक रू-ब-ज़वाल ज़बान में तरक़्क़ी कर रहा है।
बानी जो दो छड़ियों के सहारे के बग़ैर चन्द क़दम नहीं चल सकता और बानी जिसे अन्धी उड़ानों का शौक़ है।
बानी जो दूसरों की ज़बानी अपनी तारीफ़ सुनकर मुत्मइन नहीं हो जाता बल्कि ख़ुद अपनी तारीफ़ कर के ख़ुश होता है।
नज़र में, आईने में, समाअत में, सदा में
बानी जो ज़िन्दगी से लड़ता है, बानी जो ज़िन्दगी से समझौता करता है।
बानी जो फैलने पर आए तो अपने मुख़्लिस दोस्त राज नारायण राज़ के नाम का आसान फ़ारसी तर्जुमा ‘दम-ए-गुफ़्तुगू सद सुख़न मोतबर राज़’ कर डाले और बानी जो सिमटने पर आए तो ख़ुद अपना तर्जुमा यूँ करे:
कभी एक पल भी ना साँस ली खुल के हमने बानी
रहा उम्र-भर बस-कि जिस्म-ओ-जाँ में अज़ाब सा कुछ
बानी जिसे अदब में मक़ाम मिल चुका है। बानी जिसे अदब में मक़ाम चाहिए।
बानी जो ज़िन्दगी के हिसाब के मुआमले में अपने महाजनी ख़द्द-ओ-ख़ाल के बावुजूद कच्चा है मगर रंगों का हिसाब ज़रूर माँगता है।
बानी जो दोस्तों पर मर मिटता है। बानी जो दोस्तों से नफ़रत करता है।
ये क़िस्सा उसी बानी का है और मैं इस क़िस्से को ज़रा पहले से शुरू करना चाहता हूँ।
दस ग्यारह साल उधर की बात है। मेरे और बानी की मुश्तरक दोस्त कैलाश माहिर किसी सरकारी काम की आड़ में हैदराबाद आए और तीन चार महीने तक वहीं के हो रहे। उनका एक ना-पसन्दीदा मामूल ये था कि मुझसे हर-रोज़ मिलते थे। दूसरा ना-पसन्दीदा मामूल ये था कि हर शाम शराब पीते थे। तीसरा मामूल ये हुआ करता था कि जैसे ही दो पैग पी लेते उन्हें अचानक बानी की नहीं बल्कि ‘बानी एम.ए.’ की याद आ जाती थी और कहते, ‘भई लो तुम्हें बानी एम.ए. के कुछ शेर सुनाएँ। तुम भी क्या याद करोगे।’ चौथे पैग तक वो लगातार बानी के शेर सुनाया करते थे और उन शेरों पर अपना ही सर कुछ इस ज़ोर से धुनते थे कि बार के बैरे तक बानी के शेरों के वसीले से उनमें दिलचस्पी लेने लगते थे। चौथे पैग के बाद उनमें कुछ ऐसी दीदा-दिलेरी पैदा हो जाती थी कि अपने शेर सुनाने पर उतर आते थे। ये अफ़रा-तफ़री पाँचवें पैग तक बाक़ी रहती थी। इसके बाद साग़र को मिरे हाथ से लेना कि चला मैं वाला मुआमला दरपेश आता था क्योंकि इसके बाद वो मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, और न जाने किन किन शोअरा के अशआर सुनाने लगते थे। मैं उनके पाँचवें पैग वाले शेरों पर दाद देता तो निहायत मुअद्दबाना वुसूल में सलाम कर के दाद वुसूल कर लिया करते थे। फिर फ्लैशबैक के तौर पर उन्हें अचानक बानी की याद आ जाती थी और वो चिल्ला कर कहते ‘बानी-बानी’' चूँकि इस नारे में एम.ए. शामिल नहीं होता था इसलिए बार के बैरे 'बानी' के गिलास लेकर उनके पास पहुँच जाते थे। हर शाम का ड्राप-सीन यही होता था।
अलबत्ता उनका आख़िरी मामूल ये होता था कि बिछड़ने से पहले मुझसे ज़रूर पूछते, ‘‘क्या तुमने बानी एम-ए को पढ़ा है?’’ और मैं कहता, ‘‘न मैंने बानी को पढ़ा है और न एम.ए. तक पढ़ा है।’’
इस पर वो कहते, ‘‘तुम एक-बार बानी एम-ए को ज़रूर पढ़ो फिर तुम्हें एम.ए. तक न पढ़ने का मलाल नहीं रहेगा।’’
बानी से ये मेरा पहला बिल-वास्ता तआरुफ़ था। बानी और बानी के कलाम के बारे में कैलाश माहिर ने कुछ ऐसी ‘‘तब्लीग़ी फ़िज़ा’’ क़ायम कर रखी थी कि फ़ित्री तौर पर बानी का कलाम पढ़ते हुए डर होता था। फिर जो अदीब और शाइर अपने नाम के साथ अपनी तालीमी क़ाबिलियत भी बिल-इल्तिज़ाम लिखते हैं। उनकी चीज़ें पढ़ने को यूँ भी जी नहीं चाहता। यूँ लगता है जैसे आप किसी निसाबी किताब का सबक़ पढ़ रहे हों। मुझे उस वक़्त एक वाक़िअा याद आ गया। छः सात साल पहले जब सुलेमान अदीब का इन्तिक़ाल हुआ तो हम उनकी आख़िरी रुसूमात के सिलसिले में क़ब्रिस्तान गए। तदफ़ीन में अभी कुछ देर थी तो हम लोग इस शह्र-ए-ख़मोशाँ की क़ब्रों का मुआइना करने लगे। एक क़ब्र पर क़ब्र के मकीन का नाम लिखा था और इसके आगे मरहूम की तालीमी क़ाबिलियत कुछ इस तरह लिखी थी। एम.ए. (अलीग) डी.लिट (ऑक्सफ़ोर्ड) बारेट ला (कैंब्रिज) इस क़ुत्बे को देखकर मेरे एक दोस्त ने कहा था, ‘‘भई भागो यहाँ से यहाँ तो इल्म का ख़ज़ाना दफ़्न है।’’ और मैं सच-मुच वहाँ से भाग गया था। ज़िंदों की तालीमी क़ाबिलियत को तो छोड़िए मुझे तो मुर्दों की तालीमी क़ाबिलियत से भी उलझन सी होती है। यूँ भी देखने में आया है कि शाइर बहुत ज़ियादा पढ़ा लिखा हो तो अच्छे शेर कहने की अहलियत नहीं रखता। पढ़ा लिखा आदमी तो कोई भी शरीफ़ाना काम कर सकता है शाइरी क्यों करे? वैसे अब तो बानी ने अपने नाम के आगे एम.ए. लिखना तर्क कर दिया है मगर कुछ बरस पहले तक वो लोगों को अपनी शाइरी के अलावा अपनी तालीमी क़ाबिलियत से भी धमकाते थे।
नवंबर 1972 में जब मैं दिल्ली आया तो उस वक़्त तक मैंने डरते डरते बानी का थोड़ा बहुत कलाम पढ़ लिया था। और आज सर-ए-बज़्म इस राज़ का अफ़्शा करता चलूँ कि मुझ उनका कलाम बेहद पसन्द आया था। दिल में अन्देशा था। कि बानी से कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर ज़रूर मुलाक़ात होगी। लिहाज़ा सोचा कि उनका मज़ीद कलाम पढ़ लेना चाहिए। अगर वो अपनी शाइरी के बारे में कभी कोई सवाल पूछ बैठें, और मैं माक़ूल सा जवाब न दे सकूँ तो सुबकी होगी। यूँ भी दूर-अन्देश आदमी ख़तरे को पहले ही भाँप लेता है, मैं बानी के कुछ शेर याद कर के और उनके कलाम के बारे में अपनी राय पर मबनी चन्द जुमले तराश कर दिल्ली में बिला ख़ौफ़-ओ-ख़तर घूमता रहा कि बानी अब जहाँ चाहें मिलें वो मुझे यूँ ग़फ़लत में न पाएँगे। मगर एक दिन किसी ने बताया कि बानी इन दिनों मौत और ज़ीस्त की कश्मकश में मुब्तला हैं और अस्पताल में ज़ेर-ए-इलाज हैं। मुझे बड़ा दुख हुआ कि मैंने इम्तिहान की तरह जो तय्यारी की थी वो सब की सब अकारत गई। मैंने ये तक नहीं पूछा कि वो किस बीमारी में मुब्तला हैं। कब से बीमार हैं क्यों बीमार हैं और कब तक बीमार रहेंगे। शाइरों की बीमारी के बारे में यूँ भी कुछ नहीं पूछना चाहिए क्योंकि हमारे मुल्क में शाइर जब भी बीमार होता है किसी मोहलिक बीमारी ही में मुब्तला होता है। बानी के अक्सर दोस्त क़ब्रिस्तान की अयादत को जाते बल्कि बाज़ दोस्त तो उन्हें देखने के लिए यूँ ख़ुशी-ख़ुशी जाते जैसे बानी को देखने न जा रहे हों कोई फ़िल्म देखने जा रहे हों। ग़रज़ बानी चार पाँच महीनों तक हस्पताल में ज़बरदस्त ‘‘रश’’ लेते रहे मगर मैं उन्हें देखने नहीं गया। आदमी कितना ख़ुद-ग़रज़ और ज़िन्दगी कितनी ज़ालिम चीज़ है।
फिर बहुत अर्से बाद मावलंकर हाल में रेिडयो के एक मुशाइरे में उन्हीं जनाब ''दम-ए-गुफ़्तुगू सद सुख़न मोतबर राज़ ने मेरा तआरुफ़ बानी से कराया। बानी उन्हीं दिनों हस्पताल से छूट कर आए थे। नक़ाहत के बावुजूद बड़ी गर्म-जोशी से मिले फिर शिकायत की, ‘‘भई हम हस्पताल में महीनों तक मौत से लड़ते रहे मगर तुमने ख़बर तक न ली हालाँकि तुम्हें दिल्ली आए हुए तो कई महीने बीत गए।’’
बानी शिकायत करते रहे और मैं नज़र झुकाए बानी के कलाम के बारे में उन जुमलों को याद करने की नाकाम कोशिश करता रहा जो मैंने कभी हिफ़्ज़ कर रखे थे। ख़ुदा दुश्मन को भी कमज़ोर हाफ़िज़ा न दे।
बानी उन दिनों छोटी बहर का मिस्रा बन गए थे। हाथ में एक छड़ी भी आ गई थी जो इस मिसरे को वज़्न से गिरने नहीं देती थी। छड़ी क्या थी अच्छी ख़ासी ज़रूरत-ए-शेरी थी। इस वक़्त बानी के हिसाब-ए-रंग में एक ही रंग जुड़ा हुआ था और वो था ज़र्द रंग। यूँ लगता था जैसे बानी, बानी नहीं हल्दी की गाँठ हैं।
उनके अन्दर बैठे हुए शाइर ने मौत से जो फ़ैसला-कुन जंग लड़ी थी। उसके आसार अब तक उनके चेहरे पर अयाँ थे। बानी को आज देखकर ख़ुशी होती है कि वो इस ज़र्द रंग को फलाँग कर अब ज़िन्दगी से फिर रंगों का हिसाब माँगने लगे हैं।
फिर बानी से काफ़ी हाऊस, अदबी जलसों और मख़सूस बैठकों में मुलाक़ातें होने लगीं।
बानी को मैंने हर-दम एक सीधे सादे और मासूम आदमी मगर एक सरकश और चौकस शाइर के रूप में पाया। ऐसा शाइर जिसके सामने हर-दम उसकी शाइरी रहती है। बानी की शाइरी माल-ए-अरब है जो हमेशा पेश-ए-अरब रहता है।
बानी अस्ल में चौबीसों घण्टों के शाइर हैं। दिन-भर में एक लम्हा भी ऐसा नहीं आता जिसमें बानी शाइर न रहते हों। हर लम्हा उन्हें ये एहसास रहता है कि वो शाइर हैं और शाइर भी ऐसे-वैसे नहीं बहुत बड़े शाइर। जब भी मिलेंगे अपनी शाइरी के फ़वाइद से लोगों को यूँ वाक़िफ़ कराएँगे जैसे उनकी शाइरी न हो कोई मुजर्रब नुस्ख़ा हो। फिर ये भी कहेंगे, ‘‘यार हमने उर्दू शाइरी को इतना सब कुछ दिया है। बताओ आख़िर कब हमारी क़द्र होगी।’’ मुख़ातिब मुझ जैसा होगा तो कहेगा, ‘‘बानी साहब जिस ज़बान में आप शाइरी करते हैं उसे ज़रा ख़त्म तो हो लेने दीजिए, ऐसी भी क्या जल्दी है। इसके बाद आपकी क़द्र ज़रूर होगी।’’ और अगर मुख़ातिब मासूम और भोला भाला होगा तो कहेगा, ‘‘बानी साहब आप तो ESTABLISHED शाइर हैं। फिर आपको ये गिला क्यों कि आपकी क़द्र नहीं हो रही है।’’ लेकिन इसके बावुजूद बानी ज़माने की बेमहरी का शिकवा करते रहेंगे। फिर अचानक अपनी जेब से बीड़ी निकाल कर उसे जलाते हुए अपना एक शेर पढ़ देंगे। और मुख़ातिब के चेहरे पर बीड़ी का धुआँ छोड़ते हुए पूछेंगे, ‘‘है किसी की मजाल जो ऐसा शेर कह कर दिखा दे।’’
उर्दू ग़ज़ल में मक़्ते की ईजाद सिर्फ़ इस लिए हुई थी कि शाइर इसमें हस्ब-ए-इस्तिताअत अपनी तारीफ़-ओ-तौसीफ़ करे। लेकिन बानी अपनी तारीफ़ के लिए मक़्ते को नाकाफ़ी समझते हैं।
कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए
इसीलिए वो आम नस्री बातचीत में भी हर-दम मक़्ता ही कहते रहते हैं। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ दिल्ली आने के बाद मैंने बानी के कलाम के बारे में अपनी राय पर मबनी चन्द जुमले तराश लिए थे। चाहता था कि कभी ये तौसीफ़ी कलिमात बानी के गोश-गुज़ार करूँगा। मगर बानी जब भी मिले वो अपने कलाम के बारे में अपनी ही राय को मुझ पर ज़ाहिर करने में इस क़दर मसरूफ़ रहे कि कभी मुझे अपनी नाचीज़ राय के इज़हार का मौक़ा ही नहीं दिया। बल्कि ये कहूँ तो बे-जा न होगा कि जुमले मैंने तराश रखे थे हू-ब-हू वही जुमले बानी अपने बारे में कब के कह चुके हैं।
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
बानी के इसी वस्फ़ की वज्ह से मैंने देखा है कि लोग उनकी पीठ पीछे तारीफ़ करते हैं और उनका सामना हो तो मुँह लटकाए बैठे रहते हैं। ज़रा ग़ौर फ़रमाइए इस नफ़्सा-नफ़्सी के ज़माने में पीठ पीछे तारीफ़ किसे मिलती है। बानी की ग़ैर-मौजूदगी में मैंने हर दोस्त से बानी के कलाम के बारे में राय पूछी है और आज तक एक भी शख़्स ऐसा नहीं मिला जिसने बानी की शाइरी में कोई मेख़ निकाली हो। मगर न जाने बानी की मौजूदगी में लोगों को क्यों चुप सी लग जाती है।
अस्ल में बानी के अन्दर जो शाइर बैठा हुआ है वो हर-दम अपनी गर्दन अकड़ाए रखना चाहता है। चाहे ऐसा करने से उसकी गर्दन में दर्द ही क्यों न होने लगे। बानी को देखकर एहसास होता है कि अब वाइट कालर्ड शाइर भी पैदा होने लगे हैं। एक दिलचस्प बात और भी बतला दूँ कि बानी के अन्दर जब शाइर बहुत ज़ियादा बेदार होता है तो बानी ख़ुद अपने आपको ‘‘बानी साहब बानी साहब’’ कह कर मुख़ातिब करते हैं। मुझे याद है कि एक दिन मैं अपने एक हैदराबादी दोस्त के हमराह काफ़ी हाऊस गया तो देखा कि बानी दोस्तों में घिरे बैठे हैं। मसअला कुछ यूँ ज़ेर-ए-बहस था कि बानी फ़ुलाँ मुशाइरे में क्यों नहीं गए। बहस पहले से जारी थी और जब हम टेबल पर पहुँचे तो बानी दोस्तों से यूँ मुख़ातिब थे।
‘‘भई बानी साहब को तुम जानते ही हो। वो क्यों इस तरह के मुशाइरों में जाने लगीं। बानी साहब को लोगों ने समझ क्या रखा है। बानी साहब का अपना एक अलग मक़ाम है। बानी साहब बहर-हाल बानी साहब हैं।’’ ग़रज़ वो बड़ी देर तक बानी साहब ही की बातें करते रहे। फिर वो टेबल से उठकर चले गए। जब वो चले गए तो मेरे हैदराबादी दोस्त ने कहा, ‘‘यार बानी तो दिल्ली में ही रहते हैं। उनसे मिलने की बड़ी तमन्ना है। बड़ा इश्तियाक़ है। फिर अभी जो साहब उठकर गए हैं। उन्होंने तो इस आतिश-ए-शौक़ को और भी भड़का दिया है। यार हमारी उनसे मुलाक़ात तो करा दो।’’ महफ़िल में ज़ोरदार क़हक़हे बुलन्द हुए और मैंने अपने दोस्त को बतलाया, ‘‘मियाँ ये जो साहब अभी तुम्हारी आतिश-ए-शौक़ को भड़का रहे थे वो अस्ल में बानी साहब ही थे। बानी साहब के रास्ते में ख़ुद बानी साहब हाइल हैं। अब ये तुम्हारी बद-क़िस्मती है कि उनसे मुलाक़ात न हो सकी।’’
और मेरा दोस्त हैरान और फटी-फटी निगाहों से हमारे क़हक़हों को देखता रह गया। मैं ये बात मज़ाक़ में नहीं बल्कि बड़ी संजीदगी के साथ कहना चाहता हूँ कि एहतिशाम हुसैन मरहूम से लेकर बाक़र मेहदी और शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी तक सब नाक़िद बानी के सच्चे क़द्र-दान हैं। मुअख़्ख़िर-उल-ज़िक्र दो नाक़िदों की क़द्र-दानी का मैं चशमदीद गवाह भी हूँ।
डाक्टर नारंग के घर पर एक महफ़िल में जब बानी से कलाम सुनाने की फ़र्माइश की गई तो शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने कहा था। ये कैसे हो सकता है, बानी अपने रुत्बे के एतिबार से आख़िर में कलाम सुनाएँगे। पहले मैं सुनाए देता हूँ।'
बाक़र मेहदी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मगर यहाँ मक़्ते में सुख़न-गुस्तराना बार आ गई थी। हुआ यूँ था कि फ़िक्र तौंसवी के घर पर शेर-ओ-शराब की महफ़िल जमी हुई थी। महफ़िल का रंग देखकर मैंने बाक़र मेहदी से ख़्वाहिश की कि वो अपनी कोई ग़ज़ल सुनाएँ। इस फ़र्माइश पर बाक़र मह्दी ने गिलास में रखी हुई शराब को एक ही घूँट में पी लिया। अपने पाइप को अलग रखा। फिर अपने दोनों हाथ बानी के सामने जोड़ते हुए कहा, ‘‘बानी के सामने मेरी क्या मजाल कि मैं शेर सुनाऊँ। आज हम बानी को सुनेंगे। बानी दी ग्रेट।’’
बानी, बाक़िर मेहदी के इस अदा पर कुछ इस तरह फ़रेफ़्ता हुए कि अपने गिलास की सारी शराब, जो काफ़ी मिक़दार में थी, बाक़र मेहदी के गिलास में उण्डेल दी। बाक़र मेहदी ने इसी सुरअत के साथ ये शराब भी एक ही घूँट में पी ली। एक लम्बा साँस लिया। फिर मेरी तरफ़ देखकर आँख मारी और कहा, ‘‘अच्छा भई तो लो हम तुम्हें अपनी ग़ज़ल सुनाते हैं’’। इसके बाद बाक़र मेहदी पूरे एक घण्टे तक अपनी ग़ज़ल पैंतरे बदल बदल कर सुनाते रहे। कभी तरन्नुम से कभी तहत-उल-लफ़्ज़, कभी बैठ कर कभी खड़े हो कर और कभी लेट कर और मैं बानी की मासूमियत और बाक़र मेहदी की ग़ज़ल दोनों पर बारी बारी से अपने दिल में मुस्कुराता रहा। मैं बानी को ये दोस्ताना मश्वरा देना चाहूँगा कि मुस्तक़बिल में कभी अपने हिस्से की शराब नाक़िदों को न दिया करें। यूँ भी नाक़िदों को अपने कलाम के सिवाए और कुछ नहीं देना चाहिए। ऐसी दरिया-दिली से क्या फ़ायदा जिसमें न ख़ुदा ही मिले न विसाल-ए-सनम।
बानी को मैंने जब भी देखा दो छड़ियों के हमराह पाया जो हमेशा एक दूसरे को न सिर्फ़ हसरत बल्कि कुँवरसेन हसरत की नज़र सी देखती रहती हैं। बानी की न जाने ऐसी क्या कमज़ोरी है कि कुँवर सेन हसरत और छड़ी के बग़ैर वो एक क़दम भी नहीं उठा सकते। अदबी महफ़िल में जाना होगा तो कुंवर सेन उनके साथ होंगे। कहीं काम पर जाना होगा तो कुँवर सेन तब भी साथ होंगे। किसी दूर-दराज़ मक़ाम पर मुशाइरा पढ़ने जाएँगे। तो तब भी कुँवरसेन उनके साथ होंगे। अब तो मुझे शुब्हा होने लगा है कि अगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता बानी को जहन्नुम में जाना पड़े तो तब भी वो कुँवरसेन को ज़बरदस्ती अपने साथ घसीट कर ले जाएँगे। कुँवरसेन को बहरहाल एक न एक दिन अपने किए की सज़ा ज़रूर मिलेगी।
एक दिन मैंने कुँवरसेन हसरत से तन्हाई में, जो बड़ी मुश्किल से मयस्सर आती है, पूछा।, ‘‘हसरत साहब ये आप हर-दम बानी के बासवेल क्यों बने फिरते हैं’’'
तुनक के बोले, ‘‘बरख़ुर्दार जॉनसन और बानी तो आए दिन पैदा होते रहते हैं मगर बासवेल सदियों में पैदा होते हैं।’’ फिर अपनी तावील के ताबूत में आख़िरी कील इक़बाल के इस मिसरे से ठोंकी कि:
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
इसके बाद फिर कभी मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि इस बन्द ताबूत को खोलूँ।
बानी एक सच्चे और मुख़्लिस दोस्त हैं। वो अपने हर दोस्त और अपने हर शनासा की दिल से इज़्ज़त करते हैं। हद हो गई कि तादम-ए-तहरीर वो मेरे भी मद्दाह हैं। आगे का हाल ख़ुदा जाने। दोस्तों की इज़्ज़त-अफ़ज़ाई और क़द्र-दानी के मुआमले में वो कुछ-कुछ सोशलिज़्म के क़ाइल हैं। शाइर छोटा हो या बड़ा, अगर अपना शेर बानी को सुनाता है तो बानी इस पर हमेशा यकसाँ दाद देंगे।
मैं अब इस ख़ाके के मक़्ते की तरफ़ जा रहा हूँ। मगर आप घबराइए नहीं मैं इसमें अपनी तारीफ़ नहीं बल्कि बानी की ही तारीफ़ करूँगा। मैं बानी के इस ख़याल से मुत्तफ़िक़ हूँ कि वो इस दौर के बड़े शाइर हैं मगर मैं बानी से ये दरख़्वास्त करूँगा कि आज वो मेरे इस ख़याल से मुत्तफ़िक़ हों कि बानी इस दौर का बड़ा शाइर है। अच्छी राय के मुआमले में कभी-कभी दोस्तों की राय से भी मुत्तफ़िक़ होना चाहिए।
कभी कभी रात को जब मैं थका-मान्दा घर पहुँचता हूँ और इत्तिफ़ाक़ से बानी का मज्मूआ-ए-कलाम मेरे हाथ पड़ जाता है तो रात कितनी हसीन दिखाई देने लगती है। सितारे बानी के शेरों की तरह चमकने लगते हैं। रात का सन्नाटा बानी की ज़बान बोलने लगता है बिस्तर की सफ़ेद चादर बानी के बेदाग़ फ़न की तरह दमक उठती है। ज़िन्दगी की बे-तरतीबी पर बानी के लहजे का क़रीना छा जाता है। सारा वुजूद रूई के गालों की तरह सुबुक बन जाता है। फिर मैं सोचने लगता हूँ बानी शाइर है या जादूगर।
एक-बार बानी ने चन्द बे-तकल्लुफ़ अहबाब की महफ़िल में बुरे दुख भरे लहजे में कहा था, ''यार, उर्दू के इस दौर-ए-ज़वाल में बड़ी अज़ीम शाइरी हो रही है। मगर इस दौर-ए-ज़वाल के बाद क्या होगा? हम जो चन्द अहबाब आज यहाँ बैठे हैं क्या आने वाले कल की गोद में भी ऐसे ही अहबाब बैठेंगे।’’ बानी की ये बात मुझे हर लम्हा झिंझोड़ती रहती है मुझे यूँ लगता है जैसे हम सब अपनी अपनी गुमनाम शोहरतों की सलीबें अपने ही कन्धों पर उठाए मक़्तल की तरफ़ जा रहे हैं। जहाँ हम ख़ुद अपने आपको मस्लूब करेंगे। इसके बाद न हमारा कोई हर्फ़-ए-मोतबर होगा और न ही कोई रंगों का हिसाब पूछेगा। आख़िर में मैं इस ख़ाके को बानी के इस पुर-उम्मीद शेर पर ख़त्म करना चाहूँगा।
ऐ साअत-ए-अज़ल के ज़िया-साज़ फ़रिश्ते
रंगों की सवारी के निकलने की ख़बर दे
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