दीवान सिंह मफ़्तून
लुग़त में “मफ़्तून” का मतलब आशिक़ बयान किया गया है। अब ज़रा इस आशिक़-ए-ज़ार का हीला मुलाहिज़ा फ़रमाइये। नाटा क़द, भद्दा जिस्म, उभरी हुई तोंद, वज़नी सर जिस पर छिदरे खिचड़ी बाल जो केस कहलाने के हरगिज़ मुस्तहक़ नहीं। इकट्ठे किए जाएं तो ब-मुश्किल किसी कट्टर ब्रहमन की चोटी बने। गहरा सांवला रंग, छोटी सी घिसी पिटी दाढ़ी जो शायद किसी ज़माने में दाढ़ियों की लाज रखती हो, आँखें बड़ी न छोटी मगर बला की तेज़ और मुज़्तरिब।
बहैसियत-ए-मजमूई ये आशिक़-ए-ज़ार। सरदार दीवान सिंह मफ़्तून एडिटर हफ़्ता-वार “रियासत” दिल्ली। किसी ज़माने में राजाओं, महाराजों और नवाबों का दुश्मन। उनके राज़ फ़ाश करने वाला मदारी। सहाफ़त में एक नए, ख़ाम मगर बहुत ज़ोरदार अंदाज़-ए-तहरीर का मालिक, दोस्तों का दोस्त बल्कि ख़ादिम और दुश्मनों का ज़ालिम तरीन दुश्मन। मिचेलन टावर का इश्तिहार मालूम होता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि उस इश्तिहार में जो टायरों की बनी हुई इन्सान- नुमा शक्ल है, उस के जोड़ों में दर्द नहीं होता मगर दीवान सिंह मफ़्तून गंठिया का मारा है। उस का बंद बंद और जोड़ जोड़ दर्द करता है... आप उस के मेज़ पर क़लम दवात के साथ हर वक़्त क्रोशन साल्ट की बोतल देख सकते हैं। ये क़लम-दान का ऐसा जुज़्व बन के रह गई है कि बाज़-औक़ात आपको ऐसा मालूम होगा कि दीवान सिंह, अपना क़लम रौशनाई में डुबोने के बदले क्रोशन साल्ट में डुबोता है और उसी से लिखता है।
जिस तरह दीवान सिंह मफ़्तून की कोई कल सीधी नहीं, इसी तरह उस की तहरीर का कोई जुमला सीधा नहीं होता... अदब का वो जाने कब से ख़ून कर रहा है, लेकिन सहाफ़त में उस का वही रुत्बा है जो बाम्बे सेंटी तिल के एडिटर आँ-जहानी बी. जी. हारनी मैन का था बल्कि मैं समझता हूँ उस से बालिश्त भर ऊंचा है।
हारनी मैन सिर्फ़ पुलिस से टक्कर लेता रहा। दीवान सिंह ने अपनी पहलवानी के दम-ख़म कई अखाड़ों में दिखाए। बड़ी बड़ी रियासतों से पंजा लड़ाया। अकालियों से मुतसादिम हुआ। मास्टर तारा सिंह और सरदार खड़क सिंह से तलवार बाज़ी की। मुस्लिम लीग से चौमुखी लड़ा। पुलिस को तिगुनी का नाच नचाया। ख़्वाजा गेसू दराज़ हज़रत हसन निज़ामी से चोहलें कीं। तीस से कुछ ऊपर मुक़द्दमे चलवाए और हर बार सुर्ख़रु रहा। लाखों बल्कि करोड़ों कमाए और उड़ा डाले। मुफ़लिसी के ज़माने में अगर कोई दोस्त आया तो चुटकियों में चार--सौबीसी कर के रुपया हासिल किया और उस की तवाज़ोअ पर ख़र्च कर दिया। जेबें लबालब भरी होने पर मोटर की हेड लाइट्स में नंगी औरतों का रक़्स देखा और अपने दोस्तों को दिखाया। आप कम पी, अपने यारों को जी भर के पिलाई।
दीवान सिंह मफ़्तून इकाई नहीं। दहाई, सैंकड़ा, हज़ार, दस हज़ार, बल्कि लाख है। वो एक अजाइब घर है जिसमें सैंकड़ों बल्कि हज़ारों नादिर दस्तावेज़ात मुक़फ़्फ़ल पड़ी हैं। वो एक बैंक है जिसके लेज़रों में करोड़ों का हिसाब दर्ज है। वो इसकाट लैंड यार्ड है जिसमें लाखों जराइम-पेशा इन्सानों के खु़फ़ीया हालात मौजूद हैं।
अगर वो अमरीका में होता तो वहां का सबसे बड़ा गैंगस्टर होता। कई अख़बार उस के ताबेअ होते। बड़े बड़े यहूदी सरमाया-दार उस के एक इशारे पर नाचते। वो रॉबिन हुड का बाप होता। मुफ़लिसों के लिए उस की तिजोरियां हर वक़्त खुली होतीं।
आप मफ़्तून को देखिएगा तो उसे मामूली सा पढ़ा लिखा अधेड़ उम्र का सिख समझेंगे लेकिन वो बहुत पढ़ा लिखा है। एक दिन मैंने उन्हें “रियासत” के ख़ूबसूरत पियाज़ी रंग के कार्डों पर दस्तख़त करते देखा। कार्डों की दो तीन ढेरियां लगी थीं। मैंने एक कार्ड उठा कर टाइप-शुदा इबारत पढ़ी... बेरूनी मुल्क की किसी फ़र्म से फ़हरिस्त भेजने की दरख़वास्त की गई थी। सब कार्ड उसी मज़मून के थे। मुझे बहुत हैरत हुई कि इतनी फिहरिस्तें मंगा कर सरदार साहब क्या करेंगे। मैंने पूछा। “मफ़्तून साहब, क्या आप कोई स्टोर खोलने वाले हैं।”
सर को सिखों के मख़सूस अंदाज़ में एक तरफ़ झटका देकर मफ़्तून ख़ूब हंसा। “नहीं मंटो साहब, मैं ये फेहरिस्तें मंगा रहा हूँ कि मुझे उनके मुताले का शौक़ है।”
मेरी हैरत में और इज़ाफ़ा हो गया। “आप मुताला फ़रमाएंगे, यानी फ़ेहरिस्तों का... हासिल क्या होगा।”
“मालूमात... मैं अपनी मालूमात में इसी तरह इज़ाफ़ा किया करता हूँ।”
आपकी हर बात निराली है।
“डनलप कंपनी क्या बनाती है?” एक दम मुझ से सवाल किया गया।
मैंने झट से जवाब दिया। “टायर”
इस पर मुझे बताया गया कि “डनलप कंपनी सिर्फ़ टायर ट्यूब ही नहीं बनाती और हज़ार-हा चीज़ें बनाती है। गाफ़ बाल, रबड़ के गुदगुदियां, रबड़, स्प्रिंग, नलकियां, हौज़ पाइप और ख़ुदा मालूम क्या क्या...!”
जब फेहरिस्तें आती हैं तो वो हर एक का बग़ौर मुताला करता है इसी लिए मैंने कहा कि “सरदार दीवान सिंह मफ़्तून बहुत पढ़ा लिखा आदमी है।” वो तमाम फेहरिस्तें पढ़ता है। जब बेकार हो जाती हैं तो मुहल्ले के बच्चों में तक़सीम कर देता है कि वो तस्वीरें देखें और ख़ुश हों... बच्चों से उसे बहुत प्यार है।
बेरूनी ममालिक के कारख़ानों की फ़ेहरिस्तें पढ़ पढ़ कर वो अपने पर्चे के ज़ोरदार ईदारिए लिखता है। नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश का नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश कालम लिखता है। सवालों के टुच्चन जवाब देता है और फ़साहत और बलाग़त का हर जगह ख़ून करता है।
बहुत बदख़त है जिस तरह वो आप टेढ़ा मेढ़ा है, उसी तरह उस के क़लम से निकले हुए हुरूफ़ टेढ़े मेढ़े होते हैं। मुझे हैरत है कातिब उस का लिखा हुआ कैसे पढ़ता है। मुझे जब भी इस का ख़त आया, मैंने अंदाज़न उस का मतलब निकाला। दूसरी मर्तबा गौर से डी. साइटर करने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि मैं ने पहली नज़र में जो मतलब अख़ज़ किया था, बिलकुल ग़लत था। तीसरी दफ़ा पढ़ा तो हुरूफ़ अपनी सही शक्ल इख़्तियार करने लगे, चौथे मरहले पर बिल-आख़िर इबारत मुकम्मल तौर पर रौशन हुई।
दीवान सिंह मफ़्तून बहुत मोहतात आदमी है, मुहावरा है, दूध का जला छाछ भी, फूंक फूंक कर पीता है। छाछ के अलावा वो पानी भी फूंक फूंक कर पीता है। कातिब को हिदायत है कि जब उस की लिखी हुई सलीस पीले काग़ज़ पर मुंतक़िल हो जाएं तो फ़ौरन वापस कर दी जाएं। किताबत शुदा सुतूर में अग़्लात लगाने के बाद वो मेज़ पर पड़ी हुई काली संदूकची खोलेगा और उस में तमाम सलीस डाल कर उस को मुक़फ़्फ़ल कर देगा और जब पर्चा छप कर आ जाएगा तो अपनी तहरीरों को तल्फ़ कर देगा। मालूम नहीं ये एहतियात क्यूं बरती जाती है।
उस की सारी डाक एक थैले में मुक़फ़्फ़ल हो कर आती है। उसे खोल कर वो एक एक ख़त, एक एक अख़्बार बाहर निकालेगा और तरतीब-वार मेज़ पर रखता जाएगा। लिफ़ाफ़ा खोल कर ख़त निकालने के बाद वो लिफ़ाफ़ा रद्दी की टोकरी में नहीं फेंकता बल्कि ख़त के साथ पिन लगा कर नत्थी कर देता है। इसी तरह वो रिसालों और अख़बारों के रैपर भी ज़ाएअ नहीं करता। मैंने इस तर्ज़-ए-अमल के मुताल्लिक़ पूछा तो जवाब मिला एहतियात हर हालत में अच्छी होती है। हो सकता है, मैं किसी अख़बार या रिसाले के ख़िलाफ़ मुक़द्दमा करना चाहूँ। अब क़ानून ये है कि अगर लाहौर के किसी अख़बार ने मेरे ख़िलाफ़ लिखा है और रैपर, जिस पर मेरा नाम और पता मौजूद है, मैं पेश नहीं कर सकता तो मुक़द्दमा सिर्फ़ लाहौर ही में चल सकता है। बसूरत-ए-दीगर ये रैपर इस बात का सबूत होगा कि मेरी बे-इज़्ज़ती यहां दिल्ली में हुई है जहां मुझे ये पर्चा इरसाल किया गया है इसलिए मैं यहां दिल्ली की अदालत में दावे दायर कर सकता हूँ।
दीवान सिंह मफ़्तून पर जो आख़िरी मुक़द्दमा (ग़ालिबन बतीसवां) चला, बहुत ख़तरनाक था। वो और एक बंगाली बलाक मेकर जाली नोट बनाने के इल्ज़ाम में माख़ूज़ थे। मैं उन दिनों बंबई में था। एक दिन मुझे “मुसव्विर” वीकली की मार्फ़त एक टाइप किया हुआ ख़त मिला जिस पर कोई दस्तख़त नहीं थे। टाइप में दीवान सिंह मफ़्तून लिखा था। मुझ से दरख़्वास्त की गई थी कि मैं गवाह के तौर पर पेश हूँ।
अरसा हुआ मैं गया था और उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ था। मैं दफ़्तर पहुंचा तो वहां कोई भी नहीं था। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया और कमरे का जायज़ा लेने लगा। बहुत बड़ा मेज़ था जिसके दोनों तरफ़ रेडियो पड़े थे। क़लमदान के पास क्रोशन साल्ट की दो बोतलें थीं। एक कोने में पर्दे के पीछे सोफा-नुमा चीज़ थी जिस पर ग़ालिबन दीवान साहब इस्तिराहत फ़रमाते होंगे। सब अलमारियां खुली थीं।
मैंने ये और दूसरी तफ़सीलात “मुसव्विर” में एक मज़मून की सूरत में शायेअ की थीं और कहा था कि अगर इस कमरे में छोटा सा कम्पार्टमेंट बना दिया जाता जिसमें कमोड होता तो ये कमरा किसी रेल का बहुत बड़ा डिब्बा दिखाई देता।
दीवान साहब ने ये मज़मून संभाल के रखा हुआ था। जब पुलिस ने छापामार कर इस कमरे की अलमारी से एक किताब में रखे हुए सौ-सौ के छः(ग़ालिबन) नोट निकाले और सरदार साहब की गिरफ़्तारी अमल में आई तो उन्होंने मुझे सफ़ाई के गवाहों में रख लिया। इस मज़मून से और मेरी गवाही से ये साबित करना मतलूब था कि उनके दफ़्तर में कोई भी शख़्स बे-रोक-टोक आ जा सकता है।
मेरा ख़याल है मैं दिल्ली में दीवान साहब से अपनी इस मुलाक़ात के बारे में भी कुछ लिख दूं कि ये ख़ासी दिल-चस्प थी।
देर तक इंतिज़ार करने के बाद जब वो ना आए तो मैं चला गया। शाम को आया तो वो दफ़्तर में मौजूद थे। मिचेलन टावर का इश्तिहार कुर्सी में बैठा था। सर पर छोटी सी सफ़ेद पगड़ी। क़लम उंगलियों में दबाये कुछ लिख रहे थे। चश्मे के शीशों के पीछे आँखें एक अजीब अंदाज़ में ऊपर कर के मुझे देखा और यूं उछले जैसे रबड़ की ठोस गेंद उछलती है। मुझसे घट घट झपियाँ पाईं यानी बड़ी गर्म-जोशी से बग़लगीर हुए और कहा। “मुझे मालूम हुआ था कि आप आए थे। मैं एक ज़रूरी काम से बाहर गया हुआ था।”
मुझे बैठने को कहा। बम्बई के हालात पूछे। इधर उधर की बातें शुरू कीं मगर मैं महसूस कर रहा था कि वो मुझसे मुतवज्जेह ज़रूर हैं लेकिन उनका दिमाग़ कुछ और सोच रहा है। बातें करते करते उन्होंने टेलिफ़ोन का रिसीवर उठाया और नंबर मिला कर दूर सिरे सिरे वाले से कहा। “मैं सुंदर लाल बोल रहा हूँ... नई दिल्ली से लाला... हैं?... कहाँ गए हैं?... अच्छा।”
आपका दफ़्तर पुरानी दिल्ली में था और ये भी ज़ाहिर है कि सुंदर लाल नहीं बोल रहा था। दीवान सिंह मफ़्तून बोल रहा था। दौरान-ए-गुफ़्तगू आपने कई मर्तबा इसी तरह मुख़्तलिफ़ नंबर मिलाए और जाली नामों से लाला... के मुताल्लिक़ पूछा कि वो कहाँ हैं... मालूम नहीं क्या चार-सौ बीसी थी लेकिन मुझे इतना यक़ीन था कि उस साले की शामत आ गई है या अनक़रीब आने वाली है।
टेलीफ़ोन के ज़रिये से जब कुछ पता चलाया न चला तो उन्होंने सोलहों मर्तबा मुझे बियर की दावत देने के बाद अपने ख़ास आदमी(ग़ालिबन सरदार वरियाम सिंह) को आवाज़ दे कर बुलाया। उस के कान में हौले से कुछ कहा और रुख़स्त कर दिया फिर मुझसे मुख़ातब हुए। “हाँ मंटो साहब, तो बियर मंगवाओं आपके लिए।”
मैंने झुंझला कर कहा “सरदार साहब ज़बानी जमा ख़र्च आपने आख़िर सीख ही लिया दिल्ली वालों से... मंगवाइए। मंगवाते क्यूँ नहीं।”
ये सुनकर दीवान साहब ख़ूब खुल कर हंसे और अहलियान यू.पी. को बे-नुक़्त सुनाने लगे। इन्सानों की इस क़िस्म से उनको ख़ुदा वास्ते का बियर है। चुनांचे जब भी उन्हें अपने दफ़्तर में किसी मुलाज़िम की ज़रूरत होती है तो इश्तिहार में ये बात खासतौर पर लिखी होती है कि सिर्फ़ पंजाबी दर-ख़्वास्त भेजें... लेकिन अजीब बात है कि आप एहसान भय्या को अपना बेहतरीन दोस्त यक़ीन करते हैं। उनके दिल में यू.पी. के उस बाशिंदे का बहुत एहतिराम है।
एक मर्तबा दीवान साहब को अपनी मोटर एक तंग बाज़ार से गुज़ारना थी। मैं उनके साथ था। मोटर मुड़ी तो सड़क के ऐन बीच कई चारपाइयाँ बिछी दिखाई दीं। आप आग बगूला हो गए। लगे दिल्ली वालों और उनकी हश्त पुश्त को बे-नुक़्त सुनाने कम-बख़्तो... तुम्हारे अस्लाफ़। हमारे आबा-ओ-अज्दाद ने भी इसी तरह चारपाइयों पर दिन रात सो-सो कर अपनी सलतनत का बेड़ा ग़र्क़ किया था। अब तुम्हारे पास क्या रह गया है जिसका बेड़ा ग़र्क़ करोगे। ख़ुदा तुम्हारा बेड़ा ग़र्क़ करे।
एक लड़के ने चारपाई उठाने की कोशिश की मगर उससे न उठी। दीवान साहब मोटर से बाहर निकले और चारपाई को उठा कर फेंक दिया बर्ख़ुर्दार तुमसे न उठती... अपनी कुमरिया देखो... तुम्हारे वालिद बुज़ुर्गवार यक़ीनन तुमसे भी कहीं ज़्यादा नाज़ुक होंगे। उनसे तो पैख़ाने जाते वक़्त लोटा भी न उठाया जाता होगा।
इस पर बहुत से लोग जमा हो गए। उन्होंने कारख़ाना-दारों की ज़बान में वाही तबाही बिकना शुरू किया मगर दीवान साहब ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। मोटर में आराम से बैठे और चिल्लाना शुरू कर दी।
सरदार साहब को पंजाबी बहुत पसंद हैं शायद इसलिए कि वो एक ज़माने से दिल्ली में क़याम-पज़ीर हैं वर्ना ये हक़ीक़त उनकी नज़रों से ओझल नहीं कि सिर्फ़ पंजाबी होना अच्छे इन्सान की दलील नहीं। वो सीने पर हाथ रखकर ये कभी नहीं कह सकते कि अपने दफ़्तर की मुलाज़िमत के सिलसिले में पंजाबी की क़ैद लगा कर उन्होंने हमेशा फ़ायदा उठाया क्यूं कि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि जितना नुक़्सान उनको पंजाबियों ने पहुंचाया है उस का अशर-ए-अशीर भी यू. पी. के रहने वालों ने नहीं पहुंचाया।
अब मैं उनके आख़िरी और ख़तरनाक मुक़द्दमे की तरफ़ लौटता हूँ। मैं दिल्ली गया। सरदार साहब ज़मानत पर रिहा थे। मालूम हुआ कि उनको तंग करने के लिए उनके मुक़द्दमे की समाअत दिल्ली से बहुत दूर गुड़गावां की एक अदालत में हो रही है। हम वहां मोटर में गए। वकील ने मुझे समझा दिया था कि मुझे क्या कहना है। चुनांचे मेरी गवाही दस मिनट के अंदर अंदर ख़त्म हो गई।
सरदार साहब को अपना तहरीरी बयान पेश करना था। जब हवालात में थे तो आपने उस के नोट ले लिए थे। अब ये छोटे टाइप में ग़ालिबन चालीस पच्चास सफ़हात पर फैला हुआ था। मैंने उसे जस्ता-जस्ता देखा और मेरा ज़हन फ़्रांस के मशहूर मुसन्निफ़ एमली ज़ोला के शोहरा-ए-आफ़ाक़ मज़मून IACUSE की तरफ़ मुंतक़िल हो गया।
दीवान सिंह मफ़्तून का ये बयान मुल्ज़िम का सफ़ाई का बयान नहीं था, बल्कि फ़र्द-ए-जुर्म थी हुकूमत और उस के कारिंदों के ख़िलाफ़। आख़िर में उन्होंने अपने मुक़द्दमात की फ़हरिस्त लगा रखी थी। हर सफ़्हे पर मुख़्तलिफ़ ख़ाका बना कर ये वाज़ेह हो गया कि कौन सा मुक़द्दमा कब चला, किस के ईमा पर चला, किस की अदालत में पेश हुआ और इस का क्या फ़ैसला हुआ।
ग़ालिबन बत्तीस मुक़द्दमे थे। उनमें से इकत्तीस में वो बा-इज़्ज़त तौर पर बरी हुए थे। सिर्फ़ एक मुक़द्दमा था... बहुत बड़ा और मशहूर मुक़द्दमा (जो नवाब भोपाल ने उन पर चलाया था) जिसमें उनको शायद सिर्फ़ उस अर्से की सज़ाए क़ैद दी गई थी जो उन्होंने हवालात में गुज़ारा था।
सरदार साहब ने फ़ाज़िल जज के ये अलफ़ाज़ खासतौर पर अपने बयान में दर्ज किए हुए थे। “मैं सरदार दीवान सिंह मफ़्तून एडीटर “रियासत” दिल्ली की हिम्मत की दाद देता हूँ जो अपने महदूद ज़राएअ के बावजूद तवील अर्से तक एक शहज़ादे का तुंदही के साथ मुक़ाबला करता रहा।”
नवाब भोपाल से सरदार दीवान मफ़्तून वाक़ई बहुत दिलेरी और साबित क़दमी से लड़ा लेकिन इस जंग में इस का दीवाला पिट गया जो जमा पूँजी थी, सब पानी की तरह बह गई। कोई और होता तो उस की हमेशा हमेशा के लिए कमर टूट जाती मगर मफ़्तून ने हौसला न हारा और जूं तूं अपना प्यारा पर्चा “रियासत” शायेअ करता रहा।
उसने बड़े बड़े आदमियों से मुक़ाबला किया और फ़तह हासिल की लेकिन अपनी ज़िंदगी एक आदमी से शिकस्त भी खाई। “किस से?” ख़्वाजा हसन निज़ामी से।
सरदार साहब ने एक दिन ज़च हो कर मुझसे कहा “मैंने बड़े बड़े क़ुतुब साहब की लाटों को झुका दिया मगर ये कमबख़्त हसन निज़ामी मुझ से नहीं झुकाया जा सका। मंटो साहब! मैंने इस शख़्स के ख़िलाफ़ इतना लिखा है, इतना लिखा है कि अगर “रियासत” के वो तमाम पर्चे जिनमें ये मज़ामीन छपते रहे हैं, उस पर रख दिए जाएं तो उनके वज़न ही से उस का कचूमर निकल जाये... लेकिन उल्टा मेरा कचूमर निकल गया है... मैंने उस के ख़िलाफ़ इस क़दर ज़्यादा इसलिए लिखा कि मैं चाहता था वो भन्ना कर क़ानून को पुकारे... खुली अदालत में मुक़द्दमा पेश हो और मैं वहां उस का ढोल का पोल खोल कर रख दूं मगर वो बड़ा काइयां है। उसने मुझे कभी ऐसा मौक़ा नहीं दिया और न देगा।”
ये अजीब बात है कि किसी ज़माने में सरदार दीवान सिंह मफ़्तून और ख़्वाजा हसन निज़ामी में गाढ़ी छन्ती थी। मालूम नहीं किस बात पर वो एक दूसरे से अलग हुए।
मैं फिर मुक़द्दमे की तरफ़ आता हूँ। गुड़गावां की अदालत ने उनको ग़ालिबन दो दफ़आत के मा-तहत बारह बारह बरस क़ैद बा-मुशक़क़्त की दो सज़ाएं दीं। सरदार साहि ने गुड़गावां ही मुझ से कह दिया था कि यहां का मजिस्ट्रेट मुझे कड़ी से कड़ी सज़ा देगा, चुनांचे ऐसा ही हुआ लेकिन उन्होंने मुझे तसल्ली दी थी कि मुतफ़क्किर होने की कोई ज़रूरत नहीं। हाईकोर्ट में साफ़ बरी हो जाऊँगा। ये भी सही साबित हुआ।
हाईकोर्ट ने उन्हें बा-इज़्ज़त तौर पर बरी कर दिया।
सरदार साहब ने मुझसे गुड़गावां में कहा था कि वो कुछ अरसा पहले शिमले में थे। वहां एक पार्टी थी जिसमें सर डगलस यंग(उस ज़माने के चीफ़ जस्टिस) भी थे। वो उस के ख़िलाफ़ बहुत कुछ लिख चुके थे। सरदार साहब को हैरत हुई। जब सर डगलस ने उनसे मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की है। बहर-हाल उन दोनों की मुलाक़ात हुई और चीफ़ जस्टिस ने उनके क़लम की तवानाई की बहुत तारीफ़ की और कहा “मैं ऐसे आदमियों का दोस्त हूँ। अगर मैं कभी तुम्हारे काम आ सका तो यक़ीन मानना कि मैं तुम्हारी ज़रूर मदद करूँगा।”
जहां तक मैं समझता हूँ सर डगलस के इस वादे को सरदार दीवान सिंह की बरीयत में काफ़ी दख़ल होना चाहिए।
मुक़द्दमा देर तक चलता रहा। दीवान साहब जेल में थे। इस मुक़द्दमे की रूदाद बड़ी दिलचस्प थी। इस्तगासे की तरफ़ से ये कहानी पेश की गई थी कि दीवान सिंह ने कुछ जाली नोट चलाने की ख़ातिर अपने दोस्त जीवन लाल मंटो को एक लिफ़ाफ़े में लाहौर भेजे थे जो रास्ते ही में पुलिस ने अपने क़ब्ज़े में ले लिए। लिफ़ाफ़े में एक टाइप किया हुआ ख़त भी था। ये साबित करने के लिए कि ये ख़त दीवान साहब ने अपने दफ़्तर के टाइपराइटर पर तैयार किया था, अदालत में उसे भी पेश किया गया।
ख़त में हर्फ़ “ओ” और “बी” के पेट कसरत-ए-इस्तेमाल से भर गए थे।
हाईकोर्ट में जब पेश-कर्दा टाइपराइटर की तहरीर का नमूना लिया गया तो “ओ” और “बी” के पेट बिलकुल साफ़ थे। इस के अलावा जब सफ़ाई की तरफ़ से ये इस्तिफ़सार किया गया कि लिफ़ाफ़ा जो कि ब-क़ौल इस्तिग़ासा दीवान सिंह मफ़्तून ने जीवन लाल मंटो को भेजा, उस पर दिल्ली के डाकखाने की मोहर ग्यारह जनवरी की तारीख़ बताती है और लाहौर के डाकखाने की मोहर ज़ाहिर करती है ये लिफ़ाफ़ा पंद्रह जनवरी को डिलीवर हुआ, ग्यारह तारीख़ का चला हुआ लिफ़ाफ़ा मकतूब इलैह को ज़्यादा से ज़्यादा तेरह तारीख़ की सुब्ह को मिल जाना चाहिए था। (तारीखें ग़लत हैं, असल तारीखें मुझे याद नहीं रहीं) तीन दिन ये लिफ़ाफ़ा कहाँ भटकता रहा।
ये सवाल उठा था कि एक हंगामा बरपा हो गया। इस्तिग़ासा इस का कोई माक़ूल जवाब न दे सका और आएं बाएं शाएं करता रहा। ये नुक़्ता मुल्ज़िम को शक का फ़ायदा बख़्शने के लिए काफ़ी था। चुनांचे दिल्ली में (उन दिनों में ऑल इंडिया रेडियो में मुलाज़िम था) अख़बारों में ये ख़बर देखी कि सरदार दीवान सिंह मफ़्तून एडिटर “रियासत” दिल्ली, जाली नोट बनाने के मुक़द्दमे में साफ़ बरी कर दिए गए हैं।
दूसरे दिन सुबह आठ नौ बजे के क़रीब हसन बिल्डिंगज़, निकल्सन रोड के फ़्लैट नंबर नौ (में यहां रहता था) के दरवाज़े पर दस्तक हुई। मेरी बीवी ने दरवाज़ा खोला। मालूम हुआ कि दीवान साहब हैं। मैं ने दौड़ कर उनका इस्तिक़बाल किया। उन्होंने मुझे बाज़ुओं में ले लिया और घट घट कर जफियां पाउं।
पेश्तर उसके कि मैं उन्हें मुबारक बाद देता, उन्होंने मुझे से कहा... “सुब्हान-अल्लाह... लुत्फ़ आ गया।”
मैंने उनसे पूछा। “किस बात का?”
आपने जवाब दिया मैंने जेल में आपकी किताब मंटो के अफ़साने पढ़ी। इस का इंतिसाब ख़ूब था। अख़बार “दीन दुनिया” के नाम जिसमें मेरे ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा गालियां छपीं... मैं आज सुब्ह दिल्ली आया हूँ। मैं ने सोचा सबसे पहले चल कर मंटो साहब को दवा देनी चाहिए।
इस से मुझ पर साबित हुआ कि शैय लतीफ़ उनमें बदरजा अतम मौजूद है।
टाइपराइटर में “ओ” और “बी” की कीज़ कैसे तब्दील हुईं। लिफ़ाफ़ा इतनी देर के बाद क्यों “डिलीवर” हुआ। ये एक राज़ है जो सदा राज़ रहेगा। जब मैं ने उनसे इस बारे में पूछा तो वो ये कह कर टाल गए। मंटो साहब, ये हाथ की सफ़ाई है।
हाथ की सफ़ाई हो या पांव की। इस्तगासे की तबीयत यक़ीनन साफ़ हो गई थी।
दीवान साहब को मुझ से प्यार है। मौलाना चराग़ हसन हसरत का वो एहतिराम करते हैं। हम दोनों दिल्ली में थे, उन को जब भी फ़ुर्सत होती, हमें ढूंढ निकालते और किसी दूर दराज़ ख़ामोश मक़ाम पर ले जाते। वहां हम सब बैठ कर पीते, गप्पें लड़ाते फिर वो हम दोनों को घर छोड़ जाते। ऐसी नशिस्तों में कोई सियासी या अदबी बात नहीं होती थी।
एक लतीफ़ा सुनिए जो उन्होंने ख़ुद मुझे सुनाया। इंतिहाई मुफ़्लिसी के दिन थे कि उनका एक दोस्त आन वारिद हुआ। पहले तो वो बहुत सटपटाए कि जेब में एक धेला भी नहीं था लेकिन फ़ौरन उनको एक तरकीब सूझी। बारह लेमन की बोतलें मंगवाईं। दो दोस्त को पिलाएं, दो ख़ुद पियें बाक़ी आठ ग़ुस्ल-ख़ाने में ख़ाली कर दें और नौकर से कहा, जाओ ये बारह ख़ाली बोतलें बेच आओ। जंग का ज़माना था। गोली वाली बोतलें अच्छे दाम ले आएं, चुनांचे दोस्त को रात का खाना खिलाने का मसअला हल हो गया। दूसरे तीसरे रोज़ उन्होंने दुकानदार को बारह बोतलों की क़ीमत अदा कर दी।
एक ज़माना आया कि वो ऑल इंडिया रेडियो के जानी दुश्मन हो गए। बस फिर क्या था हर प्रोग्राम सुनते। एक रजिस्टर था जिसमें कई ख़ाने बने थे। इस में दर्ज था कि रेडियो के किस अफ़्सर का किस गाने वाली से टांका (ये लफ़्ज़ इनकी ख़ास-अल-ख़ास ईजाद है) है।
अगर कोई गाने वाली किसी वजह से प्रोग्राम में शरीक न हो सकती और उस की जगह किसी और को गवाया जाता तो उनको फ़ौरन मालूम हो जाता, किस अफ़्सर की मेहरबानी हुई है।
बहुत देर तक वो ज़ुल्फ़िक़ार बुख़ारी के ख़िलाफ़ लिखते रहे। आख़िर जुगल किशोर(हाल अहमद सलमान डिप्टी डायरेक्टर जनरल रेडियो पाकिस्तान) पर पल पड़े। जुगल किशोर पहले कलकत्ते में थे। दिल्ली तब्दील हो कर आए तो उनको वहां एक बंगालन ने मुहब्बत नामे भेजने शुरू किए। जुगल को हैरत थी कि ये ख़त मेरे पास नहीं पहुंचते। मफ़्तून को मिलते हैं। ये भी ग़ालिबन हाथ की सफ़ाई थी बहर-हाल मैंने मिन्नत ख़ुशामद कर के जुगल साहब की गुलू-ख़लासी कराई और उनसे दरख़्वास्त कि बंगालन के ख़ुतूत दे दीजिए। आपने मुस्कुरा कर कहा “मैं इतना बेवक़ूफ़ नहीं। अगर आपका दोस्त ये ख़त पढ़ना चाहता तो मैं नक़्ल करा के उस को भिजवा दूंगा।”
मैं ने ज़्यादा ज़ोर देना मुनासिब न समझा।
दिल्ली में एक जो अमृतसर का यानी मेरा हम शहर था, सख़्त परेशानी के आलम में मेरे पास आया। उस का छोटा भाई एक लड़की को भगा कर दिल्ली ले गया था। उस के वारंट गिरफ़्तारी जारी हो चुके थे। वो इस मुआमले को सुलझाने के लिए मेरी मदद चाहता था। मैं उसे दीवान के पास ले गया। उन्होंने सारा माजरा सुन कर हुक्म दिया, अग़वा करने वाले और मग़्विया को मेरे पास लाओ।
दूसरे दिन दीवान साहब से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने मुझ से कहा वो लोग आ गए थे... मैंने सब ठीक कर दिया। सब ठीक कर ही दिया होगा वर्ना वो शख़्स मेरे पास दोबारा ज़रूर आता।
दीवान सिंह की मालूमात के ज़रिये बहुत वसीअ हैं। पाकिस्तान में किसी के फ़रिश्ते को भी मालूम नहीं था कि क़ाइद-ए-आज़म ज़ियारत में ख़तरनाक तौर पर अलील हैं, लेकिन रियासत में इस मज़मून का एक नोट, गो बहुत ही दिल-आज़ार दो हफ़्ते पहले शायेअ हो चुका था, जिसमें दीवान साहब ने अपने मख़सूस ज़ालिमाना अंदाज़ में लिखा था कि क़ाइद-ए-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना बिस्तर-ए-मर्ग पर हैं मेरी दुआ है कि ज़िंदा रहें और पाकिस्तान को...
अब रियास्तें नहीं रहीं। राजे हैं न महाराजे जो उस के दिल पसंद खिलौने थे मगर सरदार दीवान सिंह मफ़्तून ने यक़ीनन और खिलौने चुन लिए होंगे। राजा नहीं होगा कोई वज़ीर होगा। महारानी नहीं होगी तो किसी बहुत बड़े सरमाया-दार की खेल खेलने वाली धर्म पत्नी होगी। मफ़्तून का जुनून कैसे फ़ारिग़ बैठ सकता है।
लोग उसे ब्लैक मेलर। दग़ाबाज़। चोर उचका कहते हैं मगर वो अपने पहलू में इन्सानियत दोस्त दिल रखता है। पिछले फ़सादात में उसने जितने मुसलमानों को ख़ूँख़ार सिखों और हिंदुओं से बचाया, जितनी मुस्लमानों औरतों और उनके बच्चों को पनाह दी। उनके दिल से उस के लिए जो दुआएं निकली हों, मेरा ख़याल है कि वो उस की मग़्फ़िरत के लिए काफ़ी हैं।
पिछले दिनों में बहुत सख़्त बीमार था। मेव हस्पताल के एवार्ड में मुझ पर -नीम बे-होशी और बे-होशी दस पंद्रह रोज़ तक तारी रही। मेरी बीवी और बहन ने मुझे बताया कि इस आलम में बार-बार में सरदार दीवान सिंह मफ़्तून को याद करता था। मैं उनसे कहता, जाओ टेलीफ़ोन करो और दीवान साहब से कहो कि मंटो बुला रहा है उनसे बहुत ज़रूरी काम है।
वो समझाते थे कि तुम लाहौर में हो लेकिन मैं ब-ज़िद था, नहीं मैं दिल्ली में हूँ। तुम जाओ और दीवान साहब को टेलीफ़ोन करो। वो फ़ौरन आजाएंगे।
गो उन दिनों आलम-ए-बर्जख़ में था। होने न होने के दर्मियान मुअल्लक़ था। मेरा दिमाग़ धुंद में लिपटा हुआ था मगर मुझे अच्छी तरह याद है कि जहां मेरा बिस्तर था, उस से कुछ दूर फ़ासले पर एक दरवाज़ा था। उस के आगे एक बहुत बड़ा हाल जिसमें दो योरपी बच्चे पिंग-पांग खेलते रहते थे। उस को तय कर जाइए तो बाहर पलाज़ा सिनेमा (दिल्ली) का गेट आ जाता है मगर अफ़सोस कि ये हर वक़्त बंद रहता था। यही वजह है कि मैं बार-बार लोगों से दरख़्वास्त करता कि वो टेलीफ़ोन कर के सरदार दीवान सिंह मफ़्तून को बुलाऐं। मुझे कौन सा ज़रूरी काम था, उस के मुतअल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं। ये अजीब बात है कि मेरे क़रीब क़रीब माऊफ़ दिमाग़ में सिर्फ़ दीवान साहब की याद कैसे बाक़ी रही।
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