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गंजे नहारी वाले

अशरफ़ सबूही

गंजे नहारी वाले

अशरफ़ सबूही

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    आह दिल्ली मरहूम जब ज़िंदा थी और उसकी जवानी का आलम था। सुहाग बना हुआ था, उस पर क्या जोबन होगा। अब तो वो रही उसके देखने वाले रहे। कल्लू बख़्शू के तकिए पर सोते हैं। अगली कहानियां कहने वाला तो क्या कोई सुनने वाला भी नहीं रहा। ग़दर ने ऐसी बिसात उलटी कि सारे मोहरे तितत बितर हो गए। दिल्ली का नक़्शा बिगड़ गया। आन गई, ज़बान दीवानी हंडिया हुई। लिबास बदला, मुआशरत के ढंग बदले, पुराने रस्म-ओ-रिवाज और पुरानी लकीरों को नई तालीम ने मिटा दिया। क़दीम हुनरमंद दरबदर की ठोकरें खाने लगे। अह्ल-ए-कमाल, किस नमी पर “सद कि भय्या केसती” हो गए। शरीफ़ों ने गोशा नशीनी इख़्तियार की। लूट क्या मची कि सब कुछ लुट गया कहने को वही शहर है, वही बाज़ार, वही गली कूचे, लेकिन वो ज़िंदगी कहाँ? वो आदमी, वो बातें, वो अपनी दिल्ली, वो अपना तमद्दुन।

    ज़िंदगी नाम है ज़िंदा दिली का। ज़िंदा दिली नहीं तो ज़िंदगी के क्या मअनी? हमारी नई तांती का दावा है कि वो जुमूद का ज़माना था, ये हरकत की दुनिया है। वो तनज़्ज़ुल की आख़िरी मंज़िल थी, अब तरक़्क़ी का दौर है। जो चाहे सो कहें लेकिन हम तो यही कहेंगे और बराबर कहे जाएंगे कि हमें हन्सों की चाल रास नहीं। गर्म मुल्क में ठंडी हवाओं से लक़वा मार जाता है। पर शगुन में नाक बग़ैर कटे क्या मजाल है कि रहे। क़िला उजड़ने और बहादुर शाही टेंट उखड़ जाने के बाद आज से पैंतीस चालीस बरस पहले तक जैसे ख़ुशहाल दिल्ली वाले जीते थे आज नहीं जी सकते। शादी ब्याह, मरने-जीने के सिवा इतनी फ़ुज़ूल ख़र्चियाँ और फ़ैशन परस्तियाँ थीं। फिर अपने मुल्क की दौलत अपने भाइयों की कमाई अपने ही घरों में रहती थी। सिर्फ़ रुपया महंगा था और हर चीज़ सस्ती। एक रुपये के बत्तीस टके और एक टके की एक सौ साठ कौड़ियाँ, दो कौड़ी का दाम और चार गंडे का छदाम। दाम और छदाम में नून मिर्च, साग पात ख़रीदा जा सकता था। कर मकीनों की उमूमन तनख़्वाहें तिया। शादी ब्याह तीज तेहवार की आस में ख़िदमतें करते थे और मगन रहते थे। आज रुपया जितना सस्ता है उतनी ही ज़िंदगी गिरां है और बात फ़क़त इतनी है कि ग़ैर मुल्कों से लेन-देन हो गया है। शरह तबादला अपने हाथों में नहीं। बट्टा लगते लगते खुक हो कर रह गए।

    शहर उजला ज़रूर हो गया है। बाज़ार बिजली के हंडों से जगमग करते नज़र आते हैं मगर असलियत का अंधेर है। झूटा झोल चढ़ा हुआ है। अजनास हैं तो अजनबी, बोलियाँ हैं तो बेसनी, मख़्लूक़ है तो पच रंगी। लिबास देखो तो भानुमती का तमाशा। ये दिल्ली हमारी दिल्ली तो रही नहीं ख़ासा थेटर है। जब से उस बूढ़ी घोड़ी को लाल लगाम का शौक़ हुआ माँ टेनी बाप कुलंग बच्चे निकले रंग बिरंग वाली मिस्ल सादिक़ गई। ठेट हिंदुस्तानी मज़ाक़ ही रहा। पहनने ओढ़ने के साथ खाने पीने की तरकीबों में भी फ़र्क़ गया। शहर में चप्पे चप्पे पर ये होटल कहाँ थे। बाज़ारों में बैठ कर यूँ खुल्लम खुल्ला कौन खाता था? गलियों में भटियारों की दुकानें थीं या नानबाई थे। या शहर के ख़ानदानी बावर्ची जो शादी ग़मी की पुख़्त करते थे। भटियारे ग़रीबों, मज़दूरों और कम इस्तिताअत मुसाफ़िरों का दो तीन पैसे में पेट भर देते थे। नान बाइयों के हाँ शीरमाल, बाक़रख़ानी, कुलचे और ख़मीरी रोटियाँ पकती थीं लेकिन चूँकि उनका काम तीस दिन का था इसलिए जाड़े भर ये नहारी की दुकान भी लगाते थे।

    नहारी क्या थी बारह मसाले की चाट होती थी। अमीर से अमीर और ग़रीब से ग़रीब उसका आशिक़ था। नहारी अब भी होती है और आज भी दिल्ली के सिवा कहीं इसका रिवाज है इसकी तैयारी का किसी को सलीक़ा। दिल्ली का हर भटियारा नहारी पकाने लगा, हर नानबाई नहारी वाला बन बैठा। मगर वो तरकीब याद है वो हाथ में लज़्ज़त। खाने वाले रहें तो पकाने वाले कहाँ से आएं। सुना है कि जब सआदत ख़ां ने जमुना की शाहजहानी नहर को जो जा बजा से अट कर ख़ुश्क हो चुकी थी दोबारा शहर में जारी किया है तो अलवी ख़ान हकीम ने मातमी लिबास पहन लिया था। मोहम्मद शाह ने इस ग़म-ओ-अफ़सोस का सबब दरयाफ़्त किया तो कहा मुझे दिल्ली वालों की तंदुरुस्ती का रोना है। अब ये बीमारियों का घर हो जाएगी। इलाज पूछा तो बताया कि अगर लाल मिर्चें और खटाई का इस्तेमाल ज़्यादा किया जाए तो शायद बच सकें। चुनांचे हर घर में मिर्चों की भरमार हो गई और आज तक दिल्ली के क़दीम घरानों में मिर्चें ज़्यादा खाई जाती हैं। चूँकि मिर्चों का दफ़ घी से मरता है इसलिए जब तक घी ख़ालिस और सस्ता रहा मसालेदार खानों से कोई नुक़्सान पहुँचा।

    नहारी का नाम सुनकर बाहर वाले लौट जाते हैं। मिलने वालों से नहारी की फ़र्माइश होती है। अब अगर मेज़बान सलीक़ेमंद है तो ख़ैर वरना खाने वालों को मुँह पीटना पड़ता है। चार आने की नहारी में आठ आने का घी कौन डाले। फिर आजकल वाले ये भी नहीं जानते कि नहारी के बाद तरतराते हलवे या गाजर तरी से मसालों की गर्मी को मारा जाता है। इसलिए नहारी बदनाम हो गई है। इसके सिवा नहारी बेचने वालों को भी तमीज़ नहीं रही। ऐरे ग़ैरे नथुवा ख़ैरे नहारी की दुकानें ले बैठे हैं। पहले गिनती के नहारी वाले थे। एक चांदनी चौक में। एक लाल कुँवें पर, एक हबश ख़ां के फाटक में और एक चितली क़ब्र और मटिया महल के दरमियान। उनमें से हर एक शहर का एक एक कोना दबाए हुए था। सबसे ज़्यादा मशहूर गंजे नहारी वाले की दुकान थी जो घंटाघर के पास क़ाबिल अत्तार के कूचे और सैदानियों की गली के बीच में बैठता था। जब तक ये ज़िंदा रहा, नहारी अपने असली मानों में नहारी रही। ये क्या मरा कि नहारी का मज़ा ही मर गया। नहारी क्या खाते हैं कलेजा जलाते हैं।

    यह दुकान हमने देखी है, बल्कि वहाँ जाकर नहारी भी खाई है। शौक़ीन दूर दूर से पहुँचते थे। गर्मगर्म रोटी और तुरत देग से निकली हुई नहारी। जितनी नलियाँ चाहें झड़वाएं। भेजा डलवाया। प्याज़ से कड़कड़ाता हुआ घी, बोम की बेरेशा बोटियाँ। अदरक का लच्छा। कतरी हुई हरी मिर्चों की हवाई और खट्टे की फिटकार। सुब्हान अल्लाह नवाब रामपुर का पूरा दस्तरख़्वान सदक़े था। घरों में इस सामान के लिए पूरे एहतिमाम की ज़रूरत है। इसलिए जो अस्ल में नहारी का लुत्फ़ उठाना चाहते थे, उन्हें दुकान ही पर जाना पड़ता था। शहर के नहारी बाज़ों की आज भी नहारी वालों के हाँ भीड़ लगी रहती है। सुबह से दस बजे तक ताँता नहीं टूटता, तो इसका ज़िक्र ही क्या ख़ुसूसन गंजे की दुकान पर। सूरज निकला नहीं कि लोगों की आमद शुरू हो गई। दस अंदर बैठे खा रहे हैं तो बीस प्याले, कटोरे बादिए, पतीलियां लिए खड़े हैं। एक पैसे से लेकर दो रुपये के गाहक होते थे। लेकिन मजाल है कोई नाराज़ हो या किसी को उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ मिले। ज़्यादा से ज़्यादा नौ बजे देग साफ़ हो जाती थी। उजले पोशों के लिए बालाख़ाने पर इंतज़ाम था जहाँ सब तरह की आसानियाँ थीं।

    यह दुकानदार गंजे नहारी वाले ही के नाम से मशहूर था। उसकी आन का क्या कहना। सुना है कि छन्ना मल वाले दिल्ली के रईस-ए-आज़म उसकी दुकान को ख़रीदना चाहते थे। हज़ार कोशिशें कीं। रुपये का लालच दिया। जाएदाद की क़ीमत दुगनी और चौगुनी लगा दी, यहाँ तक कि दुकान में अशर्फ़ियां बिछा देने को कहा। दूसरा होता तो आँखें बंद कर लेता। वहीं कहीं क़ाबिल अत्तार के कूचे में, बल्लीमारों में या रायमान के कूचे में जा बैठता। लेकिन मियां गंजे मरते दम तक अपनी उसी आन से वहीँ बैठे रहे।

    हम पांच चार दोस्त पेट भर कर नहारी के शौक़ीन थे। जाड़ा आया और नहारी का प्रोग्राम बना। यूँ तो इतवार के इतवार बारी बारी से किसी किसी के घर पर नहारी उड़ा ही करती थी लेकिन हर पंद्रहवें दिन और अगर कोई बाहर का मेहमान गया तो इस मामूल के अलावा भी ख़ास दुकान पर जाकर ज़रूर खा लिया करते थे। हमारा दस्तूर था। हम पर क्या मुन्हसर है नहारी बाज़ों के ये बंधे हुए क़ायदे हैं कि सुबह के लिए रात से तैयारी होती थी। ताज़ा ख़ालिस घी दो छटांक फ़ी कस के हिसाब से मुहय्या किया जाता था। गाजर का हलवा हबश ख़ां के फाटक या जमालुद्दीन अत्तार से लेते थे। और तो क्या कहूँ अब वैसा हलवा भी खाने में नहीं आता। गंदे नाले की फकसी हुई नीली सफ़ेद, फीकी सीठी, कच्ची या उतरे हुए गाजरों की गुलथी होती है। अब और क्या तारीफ़ करूँ। ख़ैर! सुबह हुई, मोअज़्ज़िन ने अज़ान दी और नहारी ने पेट में गुदगुदियां कीं। हमारे दोस्तों में ख़ुदा बख़्शे एक सय्यद पोनिये थे। बड़े ज़िंदा दिल, यारों के यार, निहायत ख़िदमती। यह उनकी ड्यूटी होती थी कि अँधेरे से उठकर एक एक दोस्त के दरवाज़े की कुंडी पीटें, गालियां खाएं, कोसने सुनें और एक जगह सब को जमा कर दें। सामान उसी ग़रीब पर लादा जाता।

    जब तक हमारी यह टोली ज़िन्दा सलामत रही और मियां गंजे साहब नीची बाड़ की मसली मसलाई लेसदार टोपी से अपना गंज ढांके छींट की रुईदार कमरी की आस्तीनों के चाक उल्टे। रफ़ीदा से चेहरे पर लहसुनिया डाढ़ी लगाए, आलती पालती मारे, चमचा लिए देग के सामने गद्दी पर दिखाई देते रहे, हमारा ये मामूल टूटा और नहारी की चाट छूटी। दो-चार मर्तबा की तो कहता नहीं वरना उमूमन हम इतने सवेरे पहुँच जाते थे कि गाहक तो गाहक दुकान भी पूरी तरह नहीं जमने पाती थी। कई दफ़ा तो तनूर हमारे पहुँचने पर गर्म होना शुरू हुआ और देग में पहला चमचा हमारे लिए पड़ा। दुकान के सारे आदमी हमें जान गए थे और मियां गंजे को भी हमसे एक ख़ास दिलचस्पी हो गई थी। तीन चार मौक़ों पर उसने ख़ुसूसियत के साथ हमारे बाहर वाले अहबाब की दावत भी की और ये तो अक्सर होता था कि जब अलीगढ़ या हैदराबाद के कोई साहब हमारे साथ होते वो मामूल से ज़्यादा ख़ातिर करता। फ़र्माइश के अलावा नली का गूदा, भेजा और अच्छी अच्छी बोटियाँ भेजता रहता और बावजूद इसरार के कभी उन चीज़ों की क़ीमत लेता। अब ये अपने शहर वालों की पासदारी कहाँ? हमारी वज़ा में क्या सिलवटें आईं कि ज़िंदगी की शराफ़त ही में झोल पड़ गए।

    बातें बड़े मज़े की करते थे। मुझ को पुराने आदमियों से पुरानी बातें सुनने का बचपन से लपका है। जब तक दुकान लगती, गाहक आते, मैं उनका दिमाग़ चाटा करता। एक दफ़ा सत्रहवीं देखने मेरे चंद दोस्त बाहर से आगए और आते ही फ़र्माइश की, “यार नहारी नहीं खिलवाते”, मैंने कहा, “नहारी, कल सुबह ही सही। वहीं से निज़ामुद्दीन चले चलेंगे।”शाम को सय्यद पोदीने से कह दिया और सवेरे ही दुकान पर जा पहुँचे। देग अभी खुली थी। तनूर गर्म हो रहा था। हमें देखते ही गंजे साहब कहने लगे, “हज़्ज़त, पंद्रह मिनट इंतज़ार करना पड़ेगा। ज़रा तनूर का ताव आजाए। मगर आज ये आपके साथ कौन साहब हैं, पंजाब के मालूम होते हैं। सत्रहवीं में आए होंगे।”

    “हाँ, ख़ास लाहौर के रहने वाले हैं। मैंने कहा क्या याद करेंगे, नहारी तो खिला दो।”

    “मगर मियां, नहारी में तो मिर्चें ज़्यादा होंगी।”

    “जो कुछ भी हो। कोई सूरत ऐसी नहीं कि मिर्चों की झोंझ कम हो जाए।”

    “खट्टे और घी के सिवा और क्या इलाज है, लेकिन मियां तुम्हारे खाने का मज़ा जाता रहेगा। हर चीज़ क़ायदे सर की होनी चाहिए। ख़ैर अल्लाह मालिक है खिलाओ तो सही।”

    “भई मुँह पिटवा देना। ऐसा हो कि नेकी बर्बाद गुनाह लाज़िम हो जाए।”

    “अपनी तरफ़ से तो कमी करूँगा नहीं, फिर भी नाक आँख बहने लगे तो इनकी तक़दीर।”

    “तुम भी सत्रहवीं में जाओगे।”

    “कई कई बरस हो गए। जाने को जी नहीं चाहता। कहाँ जाएं और क्या देखें? आँखें फटी हुई हैं। एक सत्रहवीं क्या कोई मेला अब निगाह में नहीं जचता। ग़दर से पहले की सत्रहवियाँ भी देखीं और ग़दर के बाद की भी। बादशाही का बुढ़ापा था और मेरा बचपन मगर वो रौनक़, वो चहल पहल, वो बहार कहीं भूलने वाली है। मियां, उन वक़्तों का तो कहना ही क्या, घर का वारिस ज़िंदा था। दिल्ली रांड थोड़ी हुई थी। दस बरस पहले तक भी उन मेलों में गहमा गहमी होती थी। उसका भी अफ़साना ही अफ़साना सुन लो।”

    “उन दिनों में क्या अनोखी बात होगी। एक बादशाह रहे और तो सब कुछ वही है। वही शहर वाले, वही महबूब-ए-इलाही का मज़ार।”

    “अब मैं आपसे क्या कहूँ। बस ये समझ लो कि दूल्हा से बरात होती है। फिर दिल्ली के वो दिल वाले और शौक़ीन जेवड़े कहाँ रहे।”

    “तो क्या ये जितने सत्रहवीं में जाते हैं दिल्ली वाले नहीं होते?”

    “होते हैं लेकिन सौ में से बीस। वो भी मज़दूर या कारख़ानेदार है। शोरफ़ा वो सादे दिनों में ज़्यादा जाते हैं। सत्रहवीं में गए तो चुपके से फ़ातिहा पढ़ी, ख़त्म में शरीक हुए और वापस चले आए।”

    “आख़िर ग़दर से पहले की सत्रहवीं में क्या ख़ूबी थी जो आज नहीं।”

    “मियां, बस ख़ूबी यही थी कि वो अक़ीदत का मेला होता था। अब एक तमाशा है। चवन्नी फेंकी और खट से थेटर में जा बैठे। नाच देखा, गाना सुना, तालियाँ बजाईं, कुछ फब्तियाँ उड़ाईं और चले आए। ये क्या मज़ेदारी है कि भागा भाग पहुँचे। रेलते पेलते अंदर गए। क़व्वाली में एक के कंधे पर दूसरा सवार हुआ। उधर झाँका इधर ताका, कोहनियाँ मारते धक्के खाते बाहर आए। मदरसे में जाकर गुम्बद में आवाज़ें लगाईं, घास रौंदी, ताश खेले, पान खाए, सौदे उड़ाए और ख़ाक फांकते घर आगए। वाह भई वाह।”

    “तो क्या पहले सत्रहवीं में जाने वाले सर के बल जाते थे?”

    “महबूब-ए-इलाही की औलियाई को पहचानने वाले सर के बल ही जाते थे और मियां आँखों वाले आज भी सर के बल जाते हैं।”

    “तुम मेरा मतलब नहीं समझे। मैं पूछता हूँ कि क्या पहले ये बातें नहीं होती थीं। तुमने तो बादशाही की सत्रहवीं बय्या देखी है। आख़िर हम भी तो सुनें उस वक़्त उस मेले का क्या रंग था।”

    “पच्चास पचपन बरस की बातें हैं। पूरी पूरी तो कहाँ याद। दूसरे अपने होश में ग़दर से पहले की एक ही सत्रहवीं मैंने देखी भी थी, हाँ कुछ आँखों देखे और कुछ कानों सुने हालात मिलाकर सुनाता हूँ। सबसे पहले दरगाह में मशाइख़ जमा होते थे। सत्रहवीं की रात शहर के अक़ीदतमंद पहुँच गए। अव़्वल ख़त्म हुआ, रात का वक़्त, क़ंदीलें रौशन, अल्लाह वालों का मजमा, बरकात की बारिश, वो समां देखने के क़ाबिल होता था। काले से काले दिल नूर से भर जाते थे। फिर क़व्वाली शुरू हुई। साफ़ सुथरे अह्ल-ए-दिल कव्वालों की टोलियां, दर्द भरी आवाज़ें, अल्लाह हू के ज़मज़मे, फ़ारसी उर्दू, भाषा का कलाम जिससे पत्थर मोम हो जाए। इंसान का क्या बूता है कि चुप बैठा रहे। जिसको देखो लोटन कबूतर। रात फिर ये हू हक़ रही। सुबह को बादशाह आए। सर झुकाए हुए मोअद्दब, दस्त-बस्ता, पीछे पीछे अमीर, वज़ीर, शाहज़ादे नीची निगाहें। ख़ामोश। दरगाह में फ़ातिहा पढ़ी। चार अशर्फ़ियां और बत्तीस रुपये नज़र चढ़ाई। दो सौ रुपये उर्स की नियत के खादिमों को दिए, ख़त्म में शिरकत की। इतने में ख़ादिम तबर्रुक की हंडियां और फेटने लाए। हुज़ूर ने सर झुका कर फेटना बंधवाया, हंडिया चोबदार ने संभालीं और एक अशर्फ़ी तबर्रुक की देकर सवार हो गए।”

    अब शहर की ख़िलक़त आने लगी। क़व्वाली ज़ोरों पर है, ख़िलक़त टूटी पड़ी है। दरगाह में नज़रें चढ़ रहीं हैं। ख़ादिमों की गोड़ी हो रही है। ख़ादिम अपनी अपनी असामियां ताक ताक कर लोगों को लपक रहे हैं। जिसको देखो दो दो तबर्रुक की हंडियां, खीलें, बताशों, शकरपारों से भरी आटे से मुँह लिपा हुआ, हाथों में लिए। दो हत्ता के सब्ज़ और सफ़ेद फेटने सर पर लपेटे चला जाता है। लेकिन ऐसा मालूम होता था कि सुलतान जी के दरबार से ख़िलअत और इनाम मिल रहा है। आजकल की तरह यूँही बेकार नहीं समझते थे। ख़ादिमों का भी ये हाल था कि ग़रीबों की बात पूछें। अमीरों के गिर्द मंडलाते फिरें।

    ग्यारह बजे तक अच्छे शहरी और उर्स से ग़रज़ रखने वाले रुख़सत हुए। मेला देखने वाले बांके तिर्छे पहुँचे। दरगाह शरीफ़ में गाना हो रहा है। उधर बावली पर हुजूम हो गया। कोई सीढ़ियों पर बैठा नहा रहा है। कुदाई हो रही है। पैराकी के कमाल दिखाए जा रहे हैं। दुकानदार खिलौने वाले, पटुवे बिसाती, काट के खिलौनों, बच्चों को लुभाने वाली तरह तरह की चीज़ों से दुकानें सजाते। कचालू वाले बड़े बड़े छीबे, हरे हरे केले के पत्ते बिछे हुए, उबले हुए आलू कचालू एक तरफ़, अमरूद, नाशपाती, कमरक, नारंगियां, कोरी हंडिया में मसाला। तर्शे हुए खट्टे, लीमू, सुरीली आवाज़ में “चाट है बारह मसाले की” पुकारते कहीं कबाबी गोले पसंदे के कबाब। तई वाले, गोली, कलेजी, भेजे के कबाब गर्मगर्म तलते, किसी तरफ़ बर्फ़ वाले बड़े बड़े हण्डे जिनमें रबड़ी, खुरचन, पिस्ते की क़ुफ़लियां, आप ख़ोरे जमाए आने वाली टिक्के को, टिक्के वाली पैसे को कह कह कर गुल मचा रहे हैं। लौंग चिड़े वाले लम्बी लम्बी काट की कश्तियों में बेसिन की फुलकियाँ कुछ पानी में भीगी कुछ वैसी ही। अंडे की टिकियाँ, मछली के कबाब लगाए। बीसवीं छड़ी वाले काग़ज़ के फूल, पंखे, तोते, चिड़ियां, रुई के लंगूर लिए, सक्क़े कटोरियाँ बजाते, साक़ी हुक़्क़ा पिलाते सैकड़ों फ़क़ीर मदारिये ज़ंजीरीं हिलाते गरज़ खड़काते। कहीं हिंडोला गड़ा, मदरसे की सड़क पर खुमरियों के जत्थे के जत्थे, यक्कों, गाड़ियों, रथों, बहेलियों के साथ साथ दौड़ती और मांगती जाती हैं। “अल्लाह ख़ैरें ही ख़ैरें रहेंगी, तेरे मन की मुरादें मिलेंगी। तुझे हक़ ने दिया है। दिया है। तेरे बटुवे में पैसा धरा है धरा है। तुझे मौला नवाज़े, दे जा। दे जा।”

    दोपहर ढली तो मेला हुमायूँ के मक़बरे में जिसे दिल्ली वाले मदरसा कहते हैं, आया। यहाँ की कैफ़ियत ही और होती। कहीं गाना बजाना है तो कहीं खाना पीना। कबड्डी खेली जा रही है, ताश उड़ रहा है। कोई भूल भुलैयों में हक्का बक्का चकराता है, कोई ठंडी ठंडी हवा में लिपटा हुआ है, पतंग बाज़ी हो रही है। बगुला, चिड़ा, कल दुमा, परी कनकव्वे और कल सिरी, लल दुमी, कलेजा जली, अलफ़न तिकलें बढ़ रही हैं। कहीं इच्चम है कहीं ढेलें चलने लगीं। किसी ने काटा कोई कट गया। किसी की कनचही फट गए, किसी का कन्ना निकला, किसी की दाल चैव हो गई। इसी अस्ना में किसी शहज़ादे की सवारी आई। आगे आगे सिपाहियों के तुमन हैं। बाजा बजता आता है, नक़ीब चोबदार पुकारते आते हैं, “साहब आलम पनाह सलामत” अम्मारी में आप बैठे हैं। ख़वासी में मोरछल हो रहा है। मक़बरे के दरवाज़े पर फ़ीलबान ने हाथी बिठाया। सब जुलूस ठेरा, सलामी उतरी, कहारों ने पालकी लगा दी। सवार हो कर अंदर आए, दो ख़वास मोरछल लेकर इधर उधर हो गए, “हटो बढ़ो साहब!” की आवाज़ों के साथ चले। मक़बरे के चबूतरे पर उतर कर पैदल हुए। ऊपर आए। फ़र्श फ़रोश मस्नद तकिया आरास्ता था। सिपाहियों का पहरा लग गया। थोड़ी देर बैठे, मेले की सैर देखी। गाना सुना और सवार हो गए। ये क्या चले कि मेला उखड़ा। लोग अपने अपने घरों को चम्पत हुए। लीजिए साहब सत्रहवीं ख़त्म।

    यह सुबह होते की ख़्वाबीदा कहानी सुन कर मैं छेड़ने को कहा फिर इसमें कौन सी नई बात हुई। उस वक़्त बेकार और घर फूंक तमाशा देखने वालों की ज़्यादती थी। उनही बेहूदगियों और फ़ुज़ूल ख़र्चियों का तो आज ख़मियाज़ा भुगत रहे हैं। चेहरा तमतमा गया जल कर कहने लगे। आप पर तो नया रंग चढ़ रहा है। मियां वो क़िले का दस्तरख़्वान ही उठ गया। अब क्या कहूं। मियां उस वक़्त की दिल्ली जन्नत थी जन्नत। और दिल्ली वाले जन्नती। आज कल जैसी दोज़ख़ थी। सच है जैसी गंडी सीतला वैसे ही पूजन हार। यही ख़्यालात हैं तो आके सैर देखना। अच्छा अब आप ऊपर तशरीफ़ ले जाइए। आपके लायक़ रोटियाँ उतर आई हैं। घी कड़कड़ा रहा हूँ। नहारी बघरी और मैंने खाना भेजा। बिस्मिल्लाह।

    ये हक़ीक़त है कि उस ज़माने में अगली सी फ़ारिग़-उल-बालियाँ नहीं रहीं। दिलों में उमंगें हैं जज़्बात में ज़िंदगी। मेले ठेले अव़्वल तो जाते हैं रहे। नई तालीम ने उन्हें देस निकाला दे दिया और जो दो-चार मज़हबी रंग लिए हुए बाक़ी हैं उन पर बराबर अफ़्सुर्दगी छाती जाती है। पुराने लोग पुरानी बातों को जितना रोएं, बजा है कि उन्होंने अपनी बादशाहत, अपनी हुकूमत और अपना घर आबाद देखा था। ईद, बक़रईद, शब-ए-बरात, मुहर्रम, सत्रहवीं आज भी होती है। कहीं कहीं बसंतें और कभी कभी फूल वालों की सैर भी हो जाती है लेकिन इश्क़-ओ-हवस का सा तफ़ावुत है,

    क्या पूछता है हमदम कल क्या था आज क्या है

    महफ़िल उजड़ गई है अफ़साना रह गया है

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