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घुम्मी कबाबी

अशरफ़ सबूही

घुम्मी कबाबी

अशरफ़ सबूही

MORE BYअशरफ़ सबूही

    घुम्मी कबाबी को कौन नहीं जानता। सारा शहर जानता है। जब तक ये ज़िंदा रहा कबाबों की दुनिया में इससे ज़्यादा दिलचस्प कोई कबाबी था। जामा मस्जिद की सीढ़ियों से लेकर उधर दिल्ली दरवाज़े तक और इधर हबश ख़ां की फाटक तक उसके कबाब चटख़ारे ले-ले कर खाए जाते थे। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब ही पर मियां घुम्मी के कबाबों ने सिक्का बिठा रखा था। दुकान तो आज भी है और कबाब ही इस पर बिककते हैं। लेकिन वो बात कहाँ मौलवी मदन की सी। वो घुम्मी की सी मज़ेदार बातें हैं, वो घुम्मी का सा कबाब बेचने का ढंग। वो ख़रीदारों की भीड़ है, वो चटपटापन। एक लंबा तड़ंगा भेंगा सा जवान आदमी दुकान पर बैठा हुआ मक्खियां मारा करता है।

    मियां घुम्मी की सूरत भी ऐसी गोल मटोल थी कि गोले का कबाब मालूम होते थे। शाम को पाँच बजे के बाद जाड़ों में और मग़रिब की अज़ानों के क़रीब गर्मियों में उनकी दुकान जमती थी। सिरी-पाए घर से पकाकर लाते। कलेजी-गुर्दे और बकरी के भेजे तले हुए अलग और भुने हुए अलाहदा सेनियों और पतीले में रखे हुए होते। क़ीमा सीखों पर चढ़ाए जाते और आप ही आप बड़बड़ाते रहते। बातें ऐसी साफ़ सुथरी ज़बान में आवाज़ को झूला दे देकर किया करते कि क़िले की बोलियों-ठोलियों का लुत्फ़ आजाता। अब तो वो उर्दू ही सुनने में नहीं आती। बोलने वाले रहे तो समझने वाले कहाँ से आएं।

    यूनीवर्सिटी के इम्तहानों के दिन थे। बड़ी बड़ी दूर का लड़का आया हुआ था। तालिब-इल्म पूरब के हों या पच्छिम के घंटों में यार होजाते हैं। उर्दू के पर्चे का नंबर आया तो आपस में चख़ शुरू हुई। बहस ये थी कि उर्दू पर दिल्ली वालों का हक़ दावा है। दूसरे उनसे अच्छी जानते हैं। गोया उस्तादों को मुँह चिढ़ाने वाले शागिर्द भी अल्लाह की शान मियां मिट्ठू बनने लगे। यूं वो कब मानने वाले थे। कागारोल में मेरी कौन सुनता। यकायक मुझे एक तरकीब सूझी और ख़ूब सूझी। शाम को उनमें जो ज़्यादा शेख़ी बघार रहे थे, उन्हें साथ ले, बातों में लगा इधर उधर का चक्कर देता हुआ। मियां घुम्मी की दुकान पर जा पहुंचा। इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त उनका भी बहरा खुला हुआ था। किसी ने छेड़ दिया होगा। चौमुखी चल रही थी। और ज़रगुल दुकान के सामने खड़े होने का कोई बहाना तो होता, मैंने चांदी की एक पाओली फेंकी और चुप खड़ा हो गया। मगर घुम्मी साहिब अपने रंग में। ग़रज़ कि हम सब खड़े थे और मियां घुम्मी पंखे के साथ पतिंगे उड़ा रहे थे। आग़ाज़ और अंजाम की तो ख़बर नहीं कि क्यूँ-कर उर्दू-ए-मुअल्ला का दफ़्तर खुला और किस पर आख़िरी तान टूटी। हाँ जितना हमने सुना हाज़िर है।

    ख़ूब। धोबी बेटा चाँद-सा सीटी और पटाख। अजी वो ज़माने लद गए जब ख़लील ख़ां फ़ाख़्ता उड़ाया करते थे। आज की कहो। जिसको देखो बेनवा का सोंटा बना फिरता है। बड़ों का अदब छोटों की लाज। वही मिसल हो गई कि बावले गाँव ऊंट आया लोगों ने जाना परमेश्वर आए। हज़रत हमने भी दुनिया देखी है। झज्जो झोंटों में उम्र नहीं गुज़ारी। रांडे के सांड बन कर नहीं रहे। ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं हुए। क्या कहा, बारह बरस दिल्ली में रहे और भाड़ झोंका? हाँ साहिब, अब तो जो कहो बजा है। आँख फूटी, पेड़ गई। दिल्ली का कोई हो तो उसकी पेट में दर्द उठे। कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुम्बा जोड़ा। फिर जैसा राजा वैसी प्रजा। जैसी गंदी सीतला वैसे पूजनहार। मेरी क्या पूछते हो आने का, चराग़ घर रखूं चूहा खाए, बाहर धरूँ कव्वा ले जाये। उन्हें क्यों नहीं देखते जो आधे क़ाज़ी क़दवा और आधे बाबा आदम बने हुए हैं। आख़िर किस बरते परतता पानी। करगा छोड़ तमाशे जाये। नाहक़ चोट जुलाया खाए। ख़ैर भई, हम तो अपनी कहते हैं। ज़न, ज़र, ज़मीन ज़बान कज़िया चारों के घर। यहां क्या धरा है? जिसका काम उसी को साझे और करे तो ठेंगा बाजे। पहले बादशाही थी अब अंग्रेज़ी है। सुना नहीं कि राजा कहे सो नया पाँसा पड़े तो दांव। कालों का चराग़ बुझ गया। गोरों की रत्ती चढ़ी हुई है। ख़ुदा से लड़ो। हुकूमत उसकी जिसके हाथ में तलवार। कहते नहीं कि रानी को राना कानी को काना। दिल्ली इसी क़ाबिल रह गई थी। अच्छा जनाब, तुझको पराई क्या परी अपनी निबेड़ तू, बकौल-ए-ज़ौक़। यार तो कबाब बेचते हैं जिसकी ज़बान सौ दफ़ा खुजाए वो हमारे नख़रे उठाए। हाँ साहिब, आपने चवन्नी दी है! क्या अर्ज़ करूँ। गुलज़ार की टोली का एक पुराना लिमडा आगया था। छोटा मुँह बड़ी बात। भला कहो तो गधी घुमार की तुझे राम से क्या काम, पढ़े लिखों की सी तक़रीर करने लगा। मैंने जो कस कर ज़रा मज़े लिए तो कहाँ टिकता, नोक दम भागा। भुस में चुंगी डाल जमालो दूर खड़ीं, लीजिए आपकी वारी है। कबाब भी मलाई हैं, जिगर तक सिके हुए। आप तो तशरीफ़ ले जाईए, मुझे जाने अभी कब तक बकवास लगी रहेगी।

    मेरा तो पूछना ही क्या। घुम्मी साहिब के कबाबों और उनकी चटपटी बातों का आशिक़ था। रात-भर हो जाती तो भी वहां से टलता। लेकिन मैंने देखा कि मेरे साथी भी अड़ियल बिट्टू बने हुए थे। दुकान से खिसके तो लेकिन ऊपरी दिल से। थोड़ी दूर आगे चल कर उनमें से एक हज़रत बोले,

    क्यों मिस्टर इन तब्बाख़ी का नाम क्या है?

    मैं: घुम्मी! पकड़वाने का इरादा तो नहीं?

    दूसरे साहिब: क्या बात करते हो, नाम पूछने में भी कुछ हर्ज है?

    मैं: मैं समझा शायद...

    तीसरे साहिब: (बात काट कर) ये कुछ पढ़ा लिखा भी है?

    मैं: पढ़े लिखे की एक कही। पढ़ा-लिखा होता तो कबाब बेचता?

    पहले: और ये उर्दू में बातें कर रहा था?

    मैं: जी नहीं ज़रगरी में!

    दूसरे साहिब: ज़रगरी भी कोई ज़बान है?

    तीसरे साहिब: ज़रगर बोलते होंगे।

    मैं: (हंसकर) वाह! इसी बरते परतत्ता पानी। ये मुँह और मसुर की दाल। भाई दिल्ली की असली बोल-चाल यही है।

    पहले साहिब: उर्दू नहीं?

    मैं: तुम क्या समझे? समझोगे क्या ख़ाक। तुमने, जिसे उर्दू कहते हैं, पढ़ी नहीं। लेकिन अब दिल्ली में अभी इस ज़बान के जानने और बोलने वाले गिनती के रह गए हैं। पढ़े लिखों में कोई जम ही जम दिखाई देगा।

    दूसरे साहिब: (ऐतराज़न) तो ये ज़बान जाहिलों की ज़बान ठेरी!

    मैं: यार तुम तो उर्दू के पूरे रंगरूट निकले। मियां इन्क़िलाब का असर मुआशरती हो या इल्मी, पहले बड़े घरानों, ऊंचे ख़ानदानों और पढ़े लिखों पर पड़ा करता है। मुद्दतों बाद कहीं अदना तबक़े वाले और जाहिल मुतास्सिर होते हैं। दिल्ली की काया पलट हुई तो उसकी हर चीज़ पर गर्दिश आगई। परदेसियों से मेल-जोल बढ़ा। मदरसों में नई तालीम का सिलसिला जारी हुआ। पुरानी बोलियाँ बोली जातीं तो कौन समझता। सादगी इख़्तियार की और रफ़्ता-रफ़्ता उर्दू एक नए क़ालिब में ढल कर रह गई। पढ़े-लिखे तो किताब के मुहताज होते हैं, जैसा पढ़ते वैसा बोलते लेकिन छोटी उम्मत, अनपढ़ जूं की तूं अपनी जगह क़ायम रहते हैं। बाप-दादा के तरीक़ उनसे छूटें मादरी ज़बान।

    तीसरे साहिब: अच्छा तो वो उर्दू ही में बातें कर रहे थे?

    मैं: हाँ उर्दू में और ठेट उर्दू में। तुम्हारी समझ में आए तो इसका क्या ईलाज?

    पहले साहिब। अगर ये उर्दू थी तो हमारी समझ में आने की वजह।

    मैं: वजह ये कि तुम जो उर्दू पढ़ते हो वो दिल्ली वालों की उर्दू नहीं, अंग्रेज़ी दानों की उर्दू है। जो किताबें मदरसों में पढ़ाई जाती हैं उनका मयार कुछ और है। एक जाहिल कबाबी को देख लिया, किस सफ़ाई के साथ कैसा बेतकाँ मुहावरे पर मुहावरे और ज़रब-उल-मस्ल पर ज़रब-उल-मस्ल बोलता चला जा रहा था।

    नसीम देहलवी हम मूजिद बाब-ए-फ़साहत हैं

    कोई उर्दू को क्या समझेगा जैसा हम समझते हैं

    घुम्मी, एक कबाबी की बदौलत दिल्ली की लाज रह गई। लेकिन अफ़सोस अब ऐसा भी कोई नहीं। लॉग पड़े तो कहाँ जाएं? मटर मटर सुना करते हैं कि दिल्ली वाले बेहुनर, बेगैरत, झूटे, शेखीबाज़, यहां के बावर्चियों को खाना पकाना नहीं आता। यहां के हलवाई मिठाई बनानी नहीं जानते। नहारी जिसकी इतनी तारीफ़ है, कबाब जिस पर राल टपकाए देते हैं, घुली हुई मिर्चों और जले हुए गोश्त के सिवा क्या रखा है। क्या जवाब दें। ऐसे होते तुम पर मरते रात गई बात गई। जो कोई और जो कुछ कहे सच है।

    कोई फ़न हो असल में क़द्रदानी की गोद में परवरिश पाता है। क़िला आबाद था। उमरा की ड्योढ़ीयां बरक़रार थीं। मुल्कगीरी और मुल्कदारी वाले तो ख़ुल्द आशियां और जन्नत मकाँ हो चुके थे। रह गई थी सिर्फ़ शाही और अमारत की बातें, बाज़ियां अय्याशियां और खाना उड़ाना ख़ाली बैठे क्या करते। लिबास की तराश-ख़राश होती या दस्तरख़्वान की ज़ेबाइश। दर्ज़ी अपनी कारीगरी दिखाते, बावर्ची, नानबाई, रकाबदार तरह तरह की उस्तादियों से खाने के इक़साम बढ़ाते, इनाम पाते। बादशाहत उजड़ी। अह्ल-ए-कमाल दरबदर की ठोकरें खाकर बाज़ारों में निकले। पेट बुरी बला है। कैसी आन और किस की शान? कोई कबाबी बन गया। किसी ने नहारी की दुकान करली। इस तरह अक्सर ख़ास खाने जो सच्ची चीनी के प्यालों और बिल्लोरी काबों में तोरा पोशों से ढके हुए शाहज़ादों और शहज़ादियों के सामने आते थे, ठाक के पत्तों के दोनों और मिट्टी के झूजरे बर्तनों में निकलने लगे। अवामुन्नास का भला ज़रूर हुआ मगर फ़न की तरक़्क़ी रुक गई। जो मरा अपना फ़न अपने साथ ले गया, किसी ने अपना जांनशीन छोड़ा।

    दिल्ली के अक्सर दुकानदारों में ये बात पहले भी थी और अब भी है कि वो ग्राहकों के नंबर का ख़याल रखते हैं। वार से सौदा देते हैं ताहम ख़रीदार की मतालबत और ख़रीदारी की नौईयत से उनका ये क़ायदा टूट भी जाता है। लेकिन घुम्मी इस उसूल का बड़ा मज़बूती से पाबंद था। उसकी निगाह में एक पैसे और एक रुपये के कबाब लेने वाला बराबर था। अब इसको कोई बुरा कहे या अच्छा। उसके इस तरीक़ की कोई मुज़म्मत करे या तारीफ़। वो बड़े से बड़े मोटर में बैठ कर आने वाले की पर्वा नहीं करता था। हमने अपनी आँखों से देखा और कानों से सुना है कि मियां ऐसी जल्दी है तो कहीं और से ले लो, मैं तो नंबरों से दूँगा। बावजूद इसके कि मैं उसका लगा बंधा गाहक था, उसको मेरी ख़ातिर भी मंज़ूर थी। मुझे वो ख़ासतौर पर ज़्यादा दही लगाकर धीमी आग पर सिंके हुए कबाब दिया करता था। लेकिन ये कभी नहीं हुआ कि नंबर के ख़िलाफ़ दिए हों। ज़रा जल्दी की और उसने तेवरी चढ़ाकर कह दिया कि हज़रत घुम्मी को अपनी जेंटलमैनी से दबाईए। आपसे पहले का ये लौंडा खड़ा है, इसकी सीख़ सींक दूं फिर आपका वार है। देखिए ये आपके वास्ते लगा रखी है।

    घुम्मी की इस मुस्तक़िल आदत से दो-चार दफ़ा हमें तकलीफ़ भी हुई और बुरा भी मालूम हुआ लेकिन ईमान की बात है कि इस जाहिल कबाबी में ये ख़सलत ऐसी थी कि हज़ारों पढ़ूं लिखों में नहीं होती। मुसावात का सबक़ मैंने इसी दुकान पर पढ़ा था। हालांकि इन हज़रत की इस हक़शनासी की बदौलत जिसमें कोई इस्तिस्ना ही था, एक मर्तबा मुझको सख़्त ख़िफ़्फ़त, परेशानी और बेहद ज़िल्लत उठानी पड़ी। इस वाक़े के बाद वो मर गया और मुझे मरना है। आज तक मैं पछताता हूँ और अपनी इजतिहादी हमाक़त और घुम्मी की जहालत आमेज़ अमल नंबरी पर मातम करता हूँ।

    अलीगढ़ से क्रिकेट की टीम आई हुई थी। मेरे चंद खिलाड़ी दोस्तों ने इसकी दावत कर दी। इस दावत की इंतिज़ामी मजलिस का मैं भी एक रुक्न था। खानों की फ़हरिस्त तैयार हुई। शामत-ए-आमाल मेरे मुँह से निकल गया कि घुम्मी के कबाब भी होने चाहिऐं। थोड़े बहस-ओ-मुबाहिसे के बाद मेरी राय पास हो गई। मगर साथ ही इस पर ज़ोर दिया गया कि जहां खिलाया जाये वहीं मियां घुम्मी कबाब लगाऐं ताकि गरमागरम हों। उधर उतरें और इधर दस्तरख़्वान पर आएं और इस का इंतिज़ाम मुझ बदनसीब को सौंपा गया। मैं ख़ुश था कि मुफ़्त में घुम्मी पर एहसान होगा और अलीगढ़ वाले भी किया याद करेंगे कि दिल्ली की दावत वो दावत खिलाई जो खाने वाले को सर से पाँव तक जन्नती बना देती है और जिसके पहले ही नवाले में ख़ुज़ू-ओ-ख़ुशू शुरू होजाता है।

    ख़ुशी ख़ुशी मियां घुम्मी की दुकान पर पहुंचा। वो अभी आए थे। एक लड़का उनका ठिय्या साफ़ कर रहा था। इतने में वो भी लुंगी बाँधे तहबंद से ऊंचा बनियान पहने बड़े ठस्से से तशरीफ़ लाए। सिर पर पतीला, बग़ल में रोटियाँ, दोनों हाथों में दो पोट। सामान रखते रखते बहुत कुछ तस्नीफ़ कर डाला। जब ज़रा हल्के हुए तो मुझसे पूछा मियां आज इस वक़्त कहाँ। सीखें तो घंटा भर में तैयार होंगी। मगर वार पहला तुम्हारा होगा, मैंने कहा... इस वक़्त तो मैं कबाब लेने नहीं आया हूँ तुम्हारे लिए एक काम लाया हूँ। बोले, मियां मैं किस काम का हूँ, कबाब बेचता हूँ और पेट भरता हूँ। और ये फ़िक़रा कुछ ऐसे अंदाज़ से कहा कि मुझको ख़्याल आया कि कहीं कमबख़्त इनकार कर दे तो सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाए। डरते डरते कहा कि भई एक दावत है और उसमें तुम्हारे कबाबों की ज़रूरत। अलीगढ़ तक नाम हो जाएगा। जवाब दिया कि कबाब जितने चाहिऐं लीजिए, और ऐसे मज़े के लीजिए कि खाने वाले उंगलियां चाटते रह जाएं। मैंने कहा, मगर एक शर्त है। दावत की जगह चल कर तैयार करने पड़ेंगे। कहने लगे, मियां ये झगड़े की बात है। घुम्मी से ये नहीं हो सकता कि किसी के दरवाज़े पर जाये। यहीं से ले जाइएगा। इस जुमले में ऐसी अकड़ थी, मैं घबरा गया और ज़ोर देते हुए कहा, लो और सुनो! मैं तो अपने दोस्तों से वादा कर आया हूँ। अपने दिल्ली वाले की इतनी लाज भी नहीं। ये सुन कर मियां घुम्मी कुछ पसीजे। अब दुकान पर चंद कबाबों के रसिया भी आगए थे। कहने लगे, तुम घुम्मी की आन तोड़ते हो। ख़ैर, घुम्मी ने तो आज तक दूसरा दर देखा नहीं। कभी इस ठीए से उठकर कहीं गया हो तो कलिमे की मार पड़े। मगर अब तुमसे क्या कहूं, अच्छा...मगर ये बेचारे किस की जान को रोएँगे। ये ग़रीब जो कबाब लेने को आएँगे तो क्या कहेंगे...वक़्त कौन सा होगा? दावत रात की थी और दावतों का आम तौर पर यही वक़्त होता है। मैंने कह दिया रात का वक़्त होगा। लेकिन तुमको दिन से आना पड़ेगा। ये सुन कर मियां घुम्मी को फिर जलाल आगया। बोले, हज़रत अगर मुझ पर ऐसा ज़ुल्म करना है तो दोपहर का वक़्त मुक़र्रर करो, वहां से फ़राग़त पाकर मैं अपनी दुकान तो लगा सकूँगा, नहीं तो मेरा सलाम है। इस से ज़्यादा मैं आपकी मरव्वत नहीं कर सकता।

    दस्तरख़्वान पर पर घुम्मी के कबाब हों और मेरी बात में फ़र्क़ आए। इस से यह आसान था कि दावत का वक़्त बदल दिया जाये। चुनांचे अपनी तरकीब से यारों को समझा दिया। अगरचे नफ़सियात और फ़लसफ़े का सारा ज़ोर लगाना पड़ा। दावत दिन के ग्यारह बजे क़रार पाई और इसकी मियां घुम्मी को भी इत्तिला दे दी गई और ये भी बता दिया कि इतने आदमी खाना खाएँगे और सब के सब तक़रीबन नौजवान अंग्रेज़ी फ़ैशन और अंग्रेज़ी मज़ाक़ के होंगे जिसके जवाब में घुम्मी ने आरिफ़ाना लहजे में सिर्फ़ ये कहा, अल्लाह मालिक है। उसी ने अब तक तो घुम्मी की आबरू रखी है।

    दावत एक क़दीम वज़ा के मकान में है। सदर दालान में दस्तरख़्वान बिछाने का इंतिज़ाम है। सेहन चबूतरे से नीचे एक सहदरी में मियां घुम्मी टाट के एक टुकड़े पर फसकड़ा मारे तशरीफ़ फ़र्मा हैं। तसले में मसाला मिला हुआ क़ीमा। ज़ानुओं के क़रीब सीखों का ढेर, मिट्टी के कूँडे में प्याज़ का लच्छा। बारीक कतरी हुई अद्रक-हरी मिर्चें, लेमूँ और पोदीना रखा हुआ है। कोयले सुलग रहे हैं। पंखा चल रहा था। मैं सुबह से मौजूद था और हर दस मिनट बाद मियां घुम्मी को झांक आता था। नौ बजे के बाद जब दावत के दूसरे मुंतज़िम आए और उन्होंने कहा कि सारे खाने तैयार हैं। तनूर भी गर्म है। मेहमानों के आते ही बाक़िरख़ानियाँ लगनी शुरू होजाएंगी तो मुझे भी कबाबों की तैयारी का फ़िक्र हुआ। जाकर क्या देखता हूँ कि अभी पूरे कोयले दहके हैं क़ीमे ने कबाबों की शक्ल इख़्तियार की। मियां घुम्मी बड़े आराम से बैठे क़ीमे को दही डाल डाल कर मथ रहे हैं। दो-चार मिनट तो मैं सैर देखता रहा। आख़िर उकताकर पूछा,

    मियां घुम्मी! ये क्या कर रहे हो? अभी तो सीखें यूँही पड़ी हैं। कबाब कब तैयार होंगे? देखो दस बजने को हैं और ठीक ग्यारह बजे दस्तरख़्वान बिछ जाना चाहिए।

    घुम्मी: मियां, मैं ख़ाली बैठा हूँ खेल रहा हूँ। काम अपने रस्ते से हुआ करता है। क़ीमे को ज़रा दुरुस्त करलूं तो सीखों को लूं। इतने में कोयलों का ताव भी ठीक हो जाएगा।

    मैं: लेकिन हमारे पास तो सिर्फ़ चालीस-पच्चास ही मिनट हैं और तुम्हारे काम में अभी बहुत देर मालूम होती है। दूसरे खाने कभी के तैयार हो चुके।

    घुम्मी: मियां उनका और काम है और मेरा और काम। ये घुम्मी के कबाब हैं। आख़िर जब से आया हूँ इसी में लगा हुआ हूँ। आप घबराएँ नहीं अल्लाह मालिक है।

    मैं: अल्लाह तो मालिक है मगर ख़ुदा के बंदे तुमने ये ऊपर का काम भी पहले कर लिया। अब कोई दम में मेहमान आने शुरू होजाएंगे। वक़्त की पाबंदी बहुत ज़रूरी है।

    घुम्मी: आप मेरे हाथ पांव फुलाईए। मैं वक़्त को देखूं या अपने काम को देखूं। ये तो मुझसे कभी होगा नहीं कि आपकी टीम की वजह से कबाब को ख़राब कर दूँ।

    मैं: भई, तुम आज मुझको बग़ैर ज़लील किए नहीं रहोगे। ख़ुदा के वास्ते कुछ तो फुर्ती करो। तो बस क़ीमे से कुश्ती लड़ चुके। आग भी ख़ूब दहक गई है। सीखें लगानी शुरू कर दो।

    घुम्मी: इसीलिए तो पराई ताबेदारी नहीं करता। बड़े बड़े नवाबों ने बुलाया, नहीं गया। दुनिया के इनाम का लालच दिया लेकिन मैंने दूसरों की हुकूमत उठाने से अपनी हालत को अच्छा समझा। फटेहालों रहता हूँ। बला से किसी का नौकर तो नहीं, गु़लामी तो नहीं करनी पड़ती।

    मैं: तुम किस के नौकर हो। इस वक़्त तो हम तुम्हारे नौकर हैं। सिर्फ़ ये अर्ज़ है कि हमारी दावत फीकी रह जाये।

    घुम्मी: अल्लाह करे, फीकी कैसी इतनी चटपटी हो कि उम्र-भर याद रहे। अच्छा आप तशरीफ़ ले जाएं और पूरे आधे घंटे बाद कबाब लेने शुरू कर दें।

    ये कह कर मियां घुम्मी ने हाथ किसी क़दर तेज़ी से चलाए और देखते ही देखते सारी सीखों पर क़ीमा चढ़ा कर तागे लिपट डाले। एक सीख़ से कोयलों की सतह को बराबर किया। ईंटें जो कोयलों के दोनों तरफ़ सीखें लगाने के लिए रखी थीं उनको देखा और बराबर बराबर तमाम सीखें लगा दीं। पंखा चलाने वाले छोकरे को हुक्म दिया, ज़रा दबाकर हाथ चला।

    ग्यारह बजने में दस मिनट थे कि मेहमान पहुंचे। कॉलेज के तलबा उमूमन आज़ाद और बेतकल्लुफ़ होते हैं। आते ही उन्होंने खाना मांगा। मेहमान मेज़बान, तुफ़ैली और तुफ़ तुफ़ैली सब मिलाकर कोई पच्चास आदमी थे। दस्तरख़्वान बिछा। ख़ाली रकाबियॉं रखी गईं। काबों में खाना निकल निकल कर आने लगा। नानबाई ने बाक़रख़ानियाँ लगानी शुरू कर दीं। मुझको अपने कबाबों का अंदेशा था। लपका हुआ मियां घुम्मी के पास पहुंचा। उन्होंने मुझे देखते ही कहा, हज़रत ये चालीस सीखें तो तैयार हैं। खाना शुरू कर दीजिए। खिलाना शुरू कर दीजिए। खुदाने चाहा तो अब तार नहीं टूटने पाएगा। ये सुनकर मैंने देखा तो हक़ीक़त में आठ नौ रकाबियॉं कबाबों से भरी रखी थीं और उन पर निहायत ख़ूबसूरती के साथ प्याज़ का लच्छा, अद्रक की हवाई, हरी मिर्चें और कतरा हुआ पोदीना छिड़का हुआ था। ख़ुशी की घबराहट में कहीं ये पूछ बैठा कि भई कबाबों के तागे भी निकाल दिए हैं। ये कहना था कि मियां घुम्मी आएं तो जाएं कहाँ। जान को आगए। मियां, तुमने मुझे क्या कोई गँवार समझा है। मैंने कोई घामड़ों में उम्र गुज़ारी है। वाह साहिब वाह, अच्छी क़द्रदानी की, क्या कहने आपकी समझ के। मियां दिल्ली रह कर भाड़ नहीं झोंका है। कबाब बेचे हैं कबाब और वो भी जामा मस्जिद तले जहां एक से एक तानाशाही मिज़ाज का आदमी आता है। बड़े से बड़े और अच्छे से अच्छे लोगों को भुगता है। ख़ूब हज़रत ख़ूब, क्या बग़ैर तागे निकाले काबियों में लगा देता। हत तेरी क़िस्मत की ऐसी तैसी। नहीं मियां ये वक़्त की ख़ूबी है। घुम्मी चालीस बरस का कबाबी और उससे पूछा जाता है कि कबाबों में से तागे निकाल दिए। अच्छा मियां अच्छा।

    मियां घुमी बड़बड़ाते रहे और मैंने आकर नौकरों को भेज दिया कि कबाबों की रकाबियॉं उठा लाएं और दस्तरख़्वान पर चुन दें। खाना शुरू हुआ। कमबख़्ती जो आई मैंने मियां घुम्मी की तारीफ़ और खानों में सबसे पहले कबाब पेश किए। कुछ तो कबाब के ज़ाइक़े ने सारे खानों का मुँह मार दिया, जिसने उसका एक लुक़मा ख़ा लिया उसने दूसरे किसी खाने को हाथ नहीं लगाया। चंद मिनट गुज़रे थे कि कबाबों की सारी प्लेटें साफ़। इतने में पच्चीस तीस सीखें और तैयार हो गईं थीं वो आईं और तिक्काबोटी हो गईं। अब तो ये आलम हो गया कि इधर कबाब आए और उधर ग़ायब। आने में देर हुई तो फब्तियां कसी जाएं। ये मुहज़्ज़ब शोह्दे तालीम याफ़्ता लुंगारे किसी के रोके कब रुके थे उठ उठकर दौड़ने लगे। जो जाता था मियां घुम्मी से कबाब ले आता था और दस्तरख़्वान पर आते ही छीना-झपटी होती थी। जब मुआमला इससे भी गुज़र गया और कबाब तैयार मिले तो जो जाता मियां घुम्मी उस से कह देते, हज़रत रकाबी छोड़ जाइये, कबाब सिंक जाएं तो आकर ले जाइएगा। रकाबियॉं छोड़ दी गईं और इंतिज़ार होने लगा। अब एक जाता, मियां घुम्मी कबाब लाओ। जवाब मिलता है, आपका अभी नंबर नहीं। वो लंबे से ऐनक लगाए खड़े हैं, पहले प्लेट उनकी आई है। दूसरा आता है, लाओ भई, हमें तो दो, अरे मियां, मैं वार से दूंगा। नंबर वार सुनते सुनते आख़िर जल गए। सईद साहिब जो इस सारी पार्टी के सरग़ना और पूरे जलातन थे बिगड़ गए, मुझसे कहने लगे, अशरफ़! ये तुम्हारा कबाबी आदमी है या पैसे वाला ट्रू। नंबर वार दूँगा, नंबर वार दूँगा की रट लगा रखी है। कहीं मैं चांटा मार बैठूँ। ये सुनना था कि घुम्मी के तन-बदन में मिर्चें लग गईं। गला सी आँखें निकाल कर बोले, घुम्मी को चांटा मारने वाला तो आज तक पैदा हुआ ही नहीं। ये सीतचा भी देखा है। आदमी का पेट फाड़ देता है। तुम जैसे अंग्रेज़ों की बीट चाटने वाले हज़ारों देख डाले होंगे। विलाएत वालों की उतरनें क्या पहनने को मिल गईं कि इतरा ही गए। अरे ज़रा उन कंगलों की सूरतों तो कोई देखे। फिर गुस्से से मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुए, आपने ये बहरूपिए कहाँ से पकड़ लाए हैं। ऐसे लुटेरे मेहमान तो हमने कहीं देखे सुने। क्यों जी ऐसे ही जैंटलमैन होते हैं।

    उधर मियां घुम्मी पर बकवास का दौरा पड़ा हुआ था। इधर बा'ज़ नौजवान भी बिगड़ चले। मैं डरा कहीं घुम्मी पर हमला हो जाए और वो अपनी फूहड़ ज़बान की पादाश में वाक़ई पिटने लगे। हँसता हुआ चेहरा बनाकर एक मस्नूई क़हक़हा लगाया और घुम्मी से कहा, वाह लौंडों के झांसे में आगए। ये तो तुम्हारी ज़बान की बाँगी देखते थे। लो चलो। अपनी बानी ख़त्म करो। कब तक टेसू उड़ा रहेगा। जिन जिन साहिबों की रकाबियॉं रखी हैं। उन्हें कबाब दो। तुमने कबाब ही ऐसे बनाए हैं कि मुँह से लग कर छूटते ही नहीं। मेरी इस तक़रीर का भी उन पर कोई असर हुआ बल्कि और ज़्यादा सख़्त लहजे में बोले, किसने मना किया है। नंबर वार आएं और ले जाएं। बे नंबर तो मैं लाट साहिब को भी देने वाला नहीं, ये किस खेत की मूली हैं। रफ़ा शर की ग़रज़ से मैंने किसी क़दर लजाहत से कहा, मियां घुम्मी ये तुम्हारी दुकान तो नहीं है जहां तुमने नंबर की शर्त लगा रखी है। ये तो हमारा मकान है यहां पहले और पीछे आने वाले का क्या सवाल।ये गाहक तो नहीं कि बुरा मानेंगे। आओ ग़ुस्से को थूक दो और कबाब दो। लेकिन घुम्मी हैं कि अपनी ज़िद से एक इंच हटना नहीं चाहते। जवाब दिया, मियां मकान हो, दुकान हो या आसमान हो अपनी आदत क्यों बिगाडूँ। पराए शगून के लिए नाक कटवाना मुझे नहीं आता। अगर आपको उनकी ऐसी ही ख़ातिर मंज़ूर है तो आईए बिस्मिल्लाह कबाब लगाइये और जिस तरह जी चाहे दीजिए। घुम्मी तो अपने हाथ से देगा, नंबर वार ही देगा। ये कहते कहते मियां घुम्मी खड़े हो गए और तौलिया कंधे पर डाल चले। मैंने हर-चंद समझाया, फुसलाया। ठोढ़ियों में हाथ दिए लेकिन उन पर भूत सवार हो गया था। उधर यह ख़याल कि दावत में खंडित पड़ ही चुकी है। ख़ुदा ख़्वास्ता कोई और हरकत हो जाए। हमाक़त की शरारत से टक्कर हुई तो ग़ज़ब ही हो जाएगा। इसलिए घुम्मी को जाने दिया। लोगों ने दूर तक उन्हें शोर मचाते सुना। गोया रेल का इंजन था कि अकेला धुआँ छोड़ता चीख़ता चला जाता है। और मैं दिल ही दिल में अपने ऊपर मलामत करता रहा। आज भी जब कभी ये वाक़िया याद आजाता है तो अपनी बेवक़ूफ़ी का एतराफ़ करना पड़ता है।

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