मिर्ज़ा चपाती
ख़ुदा बख़्शे मिर्ज़ा चपाती को, नाम लेते ही सूरत आँखों के सामने आगई। गोरा रंग, बड़ी हुई उबली हुई आँखें, लंबा क़द शानों पर से ज़रा झुका हुआ। चौड़ा शफ़्फ़ाफ़ माथा। तैमूरी डाढ़ी, चंगेज़ी नाक, मुग़लई हाड़। लड़कपन तो क़िले की दरोदीवार ने देखा होगा। जवानी देखने वाले भी ठंडा सांस लेने के सिवा कुछ नहीं कह सकते। ढलता वक़्त और बुढ़ापा हमारे सामने गुज़रा है। लुटे हुए ऐश की एक तस्वीर थे। रंग रोग़न उतरा हुआ मुहम्मद शाही खिलौना था जिसकी कोई क़ीमत न रही थी।
कहते हैं कि दिल्ली के आख़िरी ताजदार ज़फ़र के भांजे थे। ज़रूर होंगे। पोतड़ों की शाह ज़ादगी ठीकरों में दम तोड़ रही थी, लेकिन मिज़ाज में रंगीला पन वही था। जली हुई रस्सी के सारे बल गिन लो। जब तक जिए पुरानी वज़ा को लिए हुए जिए। मरते-मरते न कबूतरबाज़ी छूटी, न पतंग बाज़ी। मुर्गे लड़ाईं या बुलबुल, तैराकी का शुग़्ल रहा या शोबदे बाज़ी का। शतरंज के बड़े माहिर थे। ग़ायब खेलते थे ख़ुदा जाने ग़दर में ये क्यूँ-कर बच गए और जेल के सामने वाले ख़ूनी दरवाज़े ने उनके सर की भेंट क्यों न क़बूल की? अंग्रेज़ी अमलदारी हुई। बदअमनी का कोई अंदेशा न रहा तो मराहिम-ए-ख़ुसरवाना की लहर उठी। ख़ानदान-ए-शाही की परवरिश का ख़याल आया, पेंशनें मुक़र्रर हुईं। मगर बरा-ए-नाम। साढे़ तेरह रुपये मिर्ज़ा चपाती के हिस्से में आए। अल्लाह अल्लाह क्या ज़माने का इन्क़िलाब है। एक ज़रा से चक्कर में तक़दीर हज़ार क़दम पीछे हट गई।
लेकिन साहिब-ए-आलम मिर्ज़ा फ़ख़्रउद्दीन उर्फ़ मिर्ज़ा फ़ख़रू अलमुल्क्क़ब ब मिर्ज़ा चपाती ने मर्दानावार ज़िंदगी गुज़ारी। घर-बार जब कभी होगा, होगा। हमारी जब से याद अल्लाह हुई दम-ए-नक़द ही देखा। क़िले की गोद में बाज़ियों के सिवा और सीखा ही क्या था जो बिगड़े वक़्त में अबरद बताता। अपने वालिद रहीम उद्दीन हया से एक फ़क़त शायरी विरसे में मिली थी। पढ़ना-लिखना आता न था। फिर ज़बान तोतली। मगर हाफ़िज़ा इस बला का था कि सौ-सौ बंद के मुसद्दस अज़बर थे। क्या मजाल कि कहीं से कोई मिसरा भूल जाएं। गोया ग्रामोफोन थे कोक दिया और चले।
हाज़िर दिमाग़ ऐसे कि एक मर्तबा दिल्ली की मशहूर डेरादार तवाइफ़ दुवन्नी जान जो अधेड़ उम्र की औरत हो चुकी थीं कहीं सामने से आती नज़र आईं। उन्हें देखकर मिर्ज़ा के किसी दोस्त ने कहा कि उस्ताद इस वक़्त दुवन्नी जान पर कोई फबती हो जाएगी तो मज़ा आजाए। भला मिर्ज़ा साहिब कहाँ चूकने वाले थे। फ़ौरन बोले
घिसते घिसते हो गई इतनी मलट
चार पैसे की दुवन्नी रह गई
इस तरह एक दिन किसी शख़्स ने मिर्ज़ा साहिब के सामने ये मिसरा पढ़ा, सर अदू का हो नहीं सकता मेरे सर का जवाब। और इस पर मिसरा लगाने की फ़र्माइश की। मिर्ज़ा साहिब ने उसी वक़्त बेहतरीन मिसरा लगाकर इस तरह एक आला पाया का शे'र बना दिया:
शह ने आबिद से कहा बदला न लेना शिमर से
सर अदू का हो नहीं सकता मेरे सर का जवाब
क़िला मरहूम के हालात और मौजूदा तहज़ीब पर उनकी नौका झोकी जितनी मज़ा देती थी, वो मेरा दिल ही जानता है। कभी कभी वो मुझे पतंग बाज़ी के दंगलों में ले जाते थे। मुर्ग़ और बुलबुलों की पालियां भी दिखाईं। तैराकी के मेलों में भी ले गए। कबूतर भी मुझे दिखा दिखा कर उड़ाए। सब कुछ किया, मैं जहां था वहीं रहा। हर जगह उनका दिमाग़ खाया। उन्हें भी मेरी ख़ातिर ऐसी मंज़ूर थी कि बादल-ए-ख़्वास्ता या नाख़्वास्ता वो सब कुछ मुझे बताते।
एक दिन दोपहर के कोई दो बजे होंगे। बरसात का मौसम था। कई घंटे की मूसलाधार बारिश के बाद ज़रा बादल छटे थे कि हज़रत मामूल के ख़िलाफ़ मेरे पास तशरीफ़ लाए। मुँह बना हुआ। आँखें उबली हुई। चेहरे से गु़स्सा टपक रहा था। मैंने कहा, ख़ुदा ख़ैर करे आज तो साहिब-ए-आलम के तेवर कुछ और हैं। कई मिनट तक ख़ामोश बैठे रहे और मैं उनका मुँह तकता रहा। ज़रा सांस दुरुस्त हुआ तो बोले, सय्यद! उस पठानचे का टीटर मग़्ज़ापन भी देखा। बड़ा अफ़लातुन बना फिरता है। बावा तो झुक-झुक कर महबरा करते करते मृगया, ये बाबू बन कर याबू की तरह दुलतियां झाड़ता है। है शर्त कि चार जामा कस दूं, सारी टरफिश निकल जाएगी।
मैं: मैं बिल्कुल नहीं समझा। हुआ क्या? कौन पठानचा?
मिर्ज़ा: ऐसे नन्हे समझे ही नहीं। मियां वही काले ख़ां का लड़का जो कचहरी में नौकर है।
मैं: मुनीर। क्या उसने कुछ गुस्ताख़ी की?
मिर्ज़ा: गुस्ताख़ी! न हुआ हमारा ज़माना ख़ानदान भर को कोल्हू में पिसवा देता।
मैं: बड़ा नालायक़ है क्या बात हुई?
मिर्ज़ा: हुआ ये कि मैं कबूतरों का दाना लेने निकला। गली के नुक्कड़ पर बनिए की दुकान है। नालियों में धांए धांए पानी बह रहा था। सारी गली में कीचड़ ही कीचड़ थी। मुहल्ले वालों ने जा बजा पत्थर रख दिए थे कि आने जानेवाले उन पर पांव रखकर गुज़र जाएं। देखता क्या हूँ वो अकड़े ख़ां बीच गली में खड़े हुए एक ख़्वांचे वाले से झक-झक कर रहे हैं। गली तंग, कीचड़ और पानी। पत्थरों पर उनका क़ब्ज़ा। कोई भला उस पर गुज़रे तो कहाँ से? मैंने कहा कि मियां रास्ता छोड़कर खड़े हो। ये कौन सी इन्सानियत है कि सारा रास्ता रोक रखा है। टर्राकर जवाब दिया कि चले जाओ। मुझे ताव आ गया। बोला कि तुम्हारे सर पर से जाऊं। बस फिर क्या था, जामे से बाहर निकल पड़ा। वो तो पास पड़ोस के दो-चार आदमी निकल आए और बीच बचाओ करवा दिया वर्ना आज या वो नहीं था या मैं। ख़ैर जाता कहाँ है। आज के थपे आज ही नहीं जला करते।
मैं: साहिब-ए-आलम। आप अपनी तरफ़ देखिए। जो ज़र्फ़ में होता है वही छलकता है। आने दीजिए वो डाँट बताऊं कि हाथ जोड़ते बने... सुना है कि क़िले के आख़री ददौर ही में शहर की हालत बदल गई थी। न छोटों का रख-रखाव रहा था न बड़ों का अदब।
मिर्ज़ा: तौबा तौबा तुमने तो दिल्ली को दम तोड़ते भी नहीं देखा। उसका मुर्दा देखा है। मुर्दा। वो भी लावारिस! मियां शहर आबादी की बातें क़िले वालों के सदक़े में थीं। जैसे जैसे वो उठते गए दिल्ली में असलियत का अंधेरा होता गया। अब तो नई रोशनी है नई बातें। और तो ख़ुदा-बख़्शे दिल्ली की सिफ़तें तुम क्या जानो। पढ़े लिखे हो। शायरी का भी शौक़ है। भला बताओ तो सही उर्दू की कितनी क़िस्में हैं? मैंने हैरान हो कर पूछा, साहिब-ए-आलम उर्दू की क़िस्में कैसी? ये भी एक कही। मुझ पर भी दांव करने लगे। वाह भई, मालूम हुआ कि तुम दिल्ली वाले नहीं। कहीं बाहर से आकर बस गए हो। मैं शर्मिंदा था कि क्या जवाब दूं। मेरे नज़दीक तो सिर्फ़ एक ही क़िस्म की उर्दू थी। ज़्यादा से ज़्यादा अवाम-ओ-ख़वास का फ़र्क़ समझ लो। मगर ये क़िस्में क्या मअनी? मुझे चुप देखकर मिर्ज़ा मुस्कुराए और कहने लगे, सय्यद परेशान न हो। मुझसे सुन और याद रख। भूलियो नहीं, फिर पूछेगा तो नहीं बताऊँगा। मैं बड़े शौक़ से मुतवज्जा हुआ और उन्होंने अँगरखे के दामन से मुँह पोंछ कर कहना शुरू किया। देख अव़्वल नंबर पर तो उर्दू-ए-मुअल्ला है जिसको मामूं हज़रत और उनके पास उठने-बैठने वाले बोलते थे। वहां से शहर में आई और क़दीम शुरफा के घरों में आ छुपी। दूसरा नंबर क़ुल आओज़ी उर्दू का है जो मौलवियों, वाइज़ों और आलिमों का गला घोंटती रहती है। तीसरे ख़ुद रंगी उर्दू। ये माँ टीनी बाप कुलंग वालों ने रंग बिरंग के बच्चे निकाले हैं। अख़बार और रिसालों में इसी क़िस्म की उर्दू, अदब का अछूता नमूना कहलाता है। चौथे हड़ोंगी उर्दू, मसख़रों और आजकल के क़ौमी बल्लम टेरों की मुँह-फट ज़बान है। पांचवें लफ़ंफ़गी उर्दू है जिसे आका भाईयों की लट्ठमार, कड़ाकेदार बोली कहो या पहलवानों, करख़न्दारों, ज़िला जगत के माहिरों, फब्ती बाज़ों और गुलेरों का रोज़मर्रा। छट्टे नंबर पर फ़िरंगी उर्दू है जो ताज़ा विलाएत अंग्रेज़, हिंदूस्तानियों, ईसाई टोप लगाए हुए किरानी, दफ़्तर के बाबू, छावनियों के सौदागर वग़ैरा बोलते हैं। फिर एक सरभंगी उर्दू है यानी चरसियों, भंगड़ों बेनवाओं और तकियेदारों की ज़बान। मैंने कहा आज तो बहरा खुला हुआ है। भई ख़ूब तक़सीम है। क्यों न हो आख़िर शाह जहानी देग की खुरचन है। मेरी तरफ़ देखकर एक गहरा ठंडा सांस भरा। आँखों में आँसू आ गए और कहने लगे, सय्यद! अभी तुमने क्या देखा है और क्या सुना है। क़िला आबाद होता, दरबार देखे होते तो असली ज़बान का बनाव सिंगार नज़र आता। अब तो हमारी ज़बान बेसनी हो गई है। वो लचीली चोंचले की बातें, शरीफ़ों के अंदाज़, अमीरों की आन, सिपाहियों की अकड़ फ़ूं, वो ख़ादिमाना और ख़ूरदाना आदाब-ओ-इन्किसार, शाइरों के लच्छेदार फ़िक़रे, शहरवालों का मेल-जोल, पुराने घरानों के रस्म-ओ-रिवाज, वो मरौवत वो आँख का लिहाज़ कहाँ? मजलिसों महफ़िलों का रंग बदल गया, मेले-ठेले, पुराने करतब, अगले हुनर सब मिटते जाते हैं। अशराफ़ गर्दी ने भले मानुसों को घर बिठा दिया, फील नशीन, पालकियों में बैठने वाले खपरैलों में पड़े हुए हैं, मुफ़लिसी, नादारी ने रज़ालों के आगे सर झुकवा दिए। मोरी की ईंट चौबारे चढ़ गई। कम-ज़र्फ़ों, टेनियों के घर में दौलत फट पड़ी। ज़माना जब कमीनों की पुश्ती पर हो तो ख़ानदानियों की कौन क़दर करता? पेट की मार ने सूरतों बिगाड़ दीं, चाल चलन में फ़र्क़ आगया। हिम्मत के साथ हमियत भी जाती रही।
मिर्ज़ा ने ये तक़रीर कुछ ऐसे इबरत-ख़ेज़ लफ़्ज़ों में की कि मेरा दिल भर आया और मैंने गुफ़्तगु का पहलू बदलने की कोशिश की।
मैं: क्यों हज़्ज़त, ग़दर से पहले दिल्ली वालों का लिबास क्या था? दो-चार पुरानी वज़ा के लोग देखने में आए हैं। उनकी बर्ज़ख़ तो कुछ अजीब ही सी मालूम होती थी।
मिर्ज़ा: झूटे हो, तुमने कहाँ देखा होगा। कोई बहरुपिया या नक्क़ाल नज़र आगया होगा। मियां उन वक़्तों में अदना आला में यक-रंगी न थी। दरबारी और बाज़ारी लोग लिबास से पहचाने जाते थे। आम तौर पर अपनी शक्ल-ओ-शबाहत, तन-ओ-नोश, जसामत और पेशे के मुताबिक़ कपड़ा पहना जाता था ताकि दूर से देखकर पहचान लें कि किस ख़ानदान का और कैसा आदमी है? अगर नौजवान है तो एक एक टाँके पर जवानी बरसती है। बूढ़ा है तो पीरी और सादगी टपकती है। बांकों का बांकपन, छैलाओं, मुल्लाओं की मलावी, पहलवानों की पहलवानी, रज़ालों की रज़ालत और शरीफ़ों की शराफ़त लिबास से साफ़ भाँप ली जाती थी। छोटे आदमी जिस पोशाक को इख़्तियार करलेते थे, भले मानुस छोड़ देते। दो पलड़ी टोपियों का आम रिवाज था मगर चोगोशी, पच गोशी, गोल, मुगलइ, ताजदार टोपियां, मुग़ल बच्चे और शरीफ़ ज़ादे पहनते थे। क़िले के आने जाने वालों में मंदीलें, बनारसी दुपट्टे, गोलेदार पगड़ियाँ। मुसलमानों का हिस्सा था। दरबारी जामा भी पहना करते थे। उमरा जेगा सरपच और शहज़ादों में कलग़ीयाँ भी मुरव्वज थीं। हिंदूओं में पहले जामे का ज़्यादा दस्तूर था, फिर नीम जामा और उल्टी चोली के अँगरखे पहनने लगे। इलावा अज़ीं अल-ख़ालिक़, अचकन, क़बा, अबा, जुब्बा, चुग़ा, मिर्ज़इ वग़ैरा भी इस्तिमाल होते थे। पाइजामे या तो तंग मोरी के या एकहरे या ग़रारेदार होते थे। डाढ़ी मूंछों की वज़ा भी हर ख़ानदान और हर पेशा-वर की अलाहदा थी। आज की तरह नहीं कि कोट पतलून ने तमीज़ ही उड़ा दी। दूसरों की पोशाक पहनने में कोई शरमाता ही नहीं। अलीगढ़ वालों को शेरवानी और दो तकियों के ग़लाफ़ वाला पाएजामा पहनते देखा, उसकी नक़ल कर ली। पंजाबी आए तो उनकी शलवारें उड़ालीं। मूंछों की जगह बिच्छू पाल लिए। डाढ़ी कभी चोंचदार है तो कभी साफ़ चट और थोड़े दिन से तो डाढ़ी को मुँडा डाल तो मूंछों का बखेड़ा सुनते आए थे आँखों से देख लिया। हिंदू मुसलमान की पहचान तो एक तरफ़, मर्दों पर औरतों का धोका होने लगा है। और कहाँ तक सुनाऊँ। बस ये समझ लो कि दिल्ली का नक़्शा ही बदल गया।
मैं: मगर यहां वालों को फ़ुज़ूल खेलों, दौलत को लुटाने वाली बाज़ियों और बेकार मशग़लों के सिवा काम ही न था।
मिर्ज़ा: तुम क्या जानो कि वो बाज़ियां और उनके मश्ग़ले कैसे कमाल के थे। वैसे हुनर आज कोई नहीं पैदा कर लेता। ज़ुहरा फट जाये ज़ुहरा। बात ये है कि सारी चीज़ें वक़्त से होती हैं। नामर्दों का ज़माना है तो नामर्दों की सी बातें भी हैं। शरीफ़ों का शुग़्ल डनटर, मुगदर, बालक, बन्नोट, फुकेती। अकिंग, तीर-अंदाज़ी, नेज़ा बाज़ी, पंजाकशी था। कह दो बेकार था। तैराकी, कुशती, शुक्रे और बाज़ का शिकार, पतंग लड़ाना, कबूतरबाज़ी वग़ैरा से दिलचस्पी थी। कह दो ये भी फुज़ूलियात हैं।
मैं: फुज़ूलियात नहीं तो और क्या हैं।
मिर्ज़ा: जी हाँ फुज़ूलियात हैं। ख़ुदा के बंदे इन ही बातों से तो दिल्ली दिल्ली थी। वर्ना शाहजहाँ की बसाई हुई मुहम्मद शाही दिल्ली और खूरजा बुलंदशहर में क्या फ़र्क़। फ़ुकैत और बनवीटे ऐसे होते थे कि मौक़ा पड़ता तो रूमाल में सिर्फ़ पैसा या ठीकरी बांध कर हरीफ़ के सामने आजाते और दो झुकाइयों में हथियार छीन लेते। तैराकी का ये हाल था कि पालती मारे हुए पानी पर बैठे हैं जैसे मस्नद पर। एक ज़ानू पर पेचवान लगा हुआ है, दूसरे पर रंडी बैठी है। धुआँ उड़ाते और मल्हार सुनते चले जाते हैं। क़िले की हमाम वाली नहर तो देखी होगी। गज़ सवा गज़ का प्लाट है और बालिशत भर से ज़्यादा गहराई नहीं। उसमें आज कोई माई का लाल तैर कर दिखाए तो मैं जानूं। मीर मछली तो ख़ैर उस्ताद थे, उनका सा कमाल तो किसे मयस्सर है। दो-चार गज़ तो इतने पानी में तैर कर मैं भी दिखा सकता हूँ।
मैं: अजी जनाब आप रेत पर तैरिए। हबाबों पर खड़ी लगाइये नतीजा? खेल ही तो थे। फिर ये कबूतरबाज़ी, पतंग बाज़ी, मुर्ग़बाज़ी, मेंढे बाज़ी क्या बला थी? बिचारे बे-ज़बानों को लहू-लुहान करना और अपना दिल बहलाना क्या अच्छे हुनर थे।
मिर्ज़ा: अरे मियां ईरानी तोरानी मनचले दहम हो कर क्या चूड़ियां पहन लेते। जंग-ओ-जदाल का ख़याल इन्सानी क़ुर्बानियों, मुल्क सतानियों के चाव। ख़ून की पिचकारियों से होली का वक़्त तो लद गया था। न उन पर कोई चढ़ कर आता था न ये कहीं चढ़ाई करते थे। अंग्रेज़ी अमलदारी की बरकत से नक्सीरें भी नहीं फूटती थीं। वो जानवरों को ही लड़ाकर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते थे। मैं कुछ और कहने वाला था कि मिर्ज़ा ने एक झुरझुरी ली और ये कहते हुए कि भई ग़ज़ब हो गया शाम होने आई। कबूतर भूके मेरी जान को रो रहे होंगे और चौक का वक़्त भी आ लगा है। लाल बंद का जोड़ा लगाना है, ये जा वो जा।
इन बातों को कोई एक महीना गुज़रा होगा कि सुबह ही सुबह मिर्ज़ा साहिब चले आते हैं। आते ही फ़रमाने लगे, पुरानी ईदगाह चलना होगा। मैंने कहा, ख़ैरियत? बोले, लखनऊओं से पेच हैं। जानों ढेरी या मालों ढेरी। पाँच रुपये पंच ठहरा है, बड़ा मार्का होगा। मैंने अर्ज़ किया, साहिब-ए-आलम मुझे न तो पतंग बाज़ी से कोई दिलचस्पी है न मेरे पास इतना फ़ुज़ूल वक़्त है कि आपके साथ वाही तबाही फिरूँ। ताव खाकर आँखें निकाल लीं और हाकिमाना अंदाज़ से कहने लगे, तुम्हारी और तुम्हारे वक़्त की ऐसी तैसी। बस कह दिया कि चलना होगा। दोपहर को आऊँगा तैयार रहना।मैं बहुत परेशान हुआ, मगर करता क्या, दोस्ती थी या मज़ाक़। क़हर दरवेश बजाँ-ए-दरवेश। अपनी सारी जरूरतों को ताक़ पर रखा और हज़रत मिर्ज़ा चपाती का मुंतज़िर था कि ठीक बारह बजे आवाज़ पड़ी, सय्यद आओ। आगे आगे मिर्ज़ा साहिब और पीछे पीछे मैं।अजमेरी दरवाज़े से निकल क़ब्रिस्तान लॉंगते फलांगते पुरानी ईदगाह पहुंचे। वहां देखा तो ख़ासा मेला लगा हुआ है। कबाबी, कचालू वाले, दही बड़ों की चाट, पान-बीड़ी, पानी पिलाने वाले सिक्के पूरी ख़ुराफ़ात मौजूद है। जा बजा पतंग बाज़ों की टुकड़ियां बैठी हैं। मिर्ज़ा साहिब को देखते हैं, साहिब-ए-आलम इधर, मिर्ज़ा साहिब उधर, उस्ताद पहले मेरी सुन लीजिए, मियां इधर आने दो। बात समझते हैं। न बात की दुम उड़ने से काम। हज़्ज़त आप यहां आईए। मीर कंकय्या आपसे कुछ कहना चाहते हैं। चारों तरफ़ से आवाज़ें पड़ने लगीं। मिर्ज़ा चौकन्ने एक एक को जवाब देते शामियाने के नीचे जहां मीर कंकय्या तशरीफ़ फ़र्मा थे, पहुंचे।
मीर कंकय्या लखनऊ के वाजिद अली शाही पतंग बाज़ थे। काकज़ेज़ी रंग, गोल चेहरा, छोटी छोटी आँखें, बड़ी नाक, दाँतों में खिड़कियाँ, सर पर कड़बड़े पट्ठे। ख़शख़ाशी डाढ़ी, छाती खुला संजाफ़दार ढीला ढाला अँगरखा, सर पर दो उंगली की कलाबत्तू के हाशिए की टोपी, पांव में मख़मली गुरगाबी, कल्ले में गिलौरी, उठकर मिर्ज़ा चपाती से बग़लगीर हुए। फिर जो पतंग बाज़ी का ज़िक्र शुरू हुआ तो तीन बज गए। मैं बेवक़ूफ़ों की तरह बैठा हुआ एक एक का मुँह तक रहा था। पतंग बाज़ी की होती तो उनकी इस्तेलाहें समझ में आतीं। आख़िर ख़ुदा ख़ुदा करके लोग अपनी अपनी टुकड़ियों में गए। आसमान पर चील-कव्वे मंडलाने शुरू हुए। मैं मिर्ज़ा साहिब के साथ था। ईदगाह की दीवार के नीचे से उन्होंने भी अपना अख़तर बख़्तर खोल कर एक अँगारा अद्धा उड़ाया। हुचका एक लड़के के हाथ में था। कोई दस मिनट तक झकाईयां देते रहे, पेँच हुआ। कभी आगे बढ़ते थे कभी पीछे हटते थे। एक दफ़ा ही झल्लाकर लड़के को तमांचा रसीद किया और बोले अबे हुचका पकड़ने की सुरत भी न थी तो यहां आन क्यों मरा, आख़िर कटवा दिया न।
फिर एक अलफ़न बढ़ाई और अब के हुचका पकड़ने की ख़िदमत मुझे अंजाम देनी पड़ी। बदक़िस्मती से ये गुडी भी कट गई। बहुत बिगड़े कि बस जब तुम जैसे मनहूस साथ हों तो हम उड़ा चुके। ग़ज़ब है सांवलिया हमें उस्ताद कहने वाला, मीर गोलंदाज़ हमारे हाँ के शागिर्द, शेख़ पेचक जैसे बराबर पेँच निकाले जाते हैं और मिर्ज़ा फ़ख़रू ऊपर नीचे दो कनकव्वे कटवाए। समेटो मियां समेटो मुझे अपनी उस्तादी थोड़ी गँवानी है। वो कहते रहे, मैं तो वहां से हट कर रूमाल बिछाकर अलग जा बैठा। थोड़ी देर में वो भी अपना अस्बाब-ए-जहालत लुंगी में बाँधे मेरे पास आ बैठे। तेवरी पर बल थे, चेहरा सुर्ख़ आँखें उबली हुई। मैंने कहा मिर्ज़ा साहिब हवा का खेल है। इसमें किसी की क्या पीरी। आपकी उस्तादी में कहीं फ़र्क़ आता है। सल्तनत ही जब हत्थे पर से कट गई तो उन दो काग़ज़ के टुकड़ों का क्या ग़म? आप आप ही हैं। कहने लगे सच्च कहते हो। मियां हम क़िले वालों की तक़दीर ही ख़राब है। हवा भी मुवाफ़िक़त नहीं करती। मैंने उनके बुशरे से उनकी दिली कैफ़ियत का अंदाज़ा करते हुए इस ज़िक्र को मौक़ूफ़ कर दिया और पूछा, क्यों मिर्ज़ा साहिब क़िला जब आबाद था उस वक़्त भी पतंग बाज़ी के ऐसे ही दंगल होते थे?
मिर्ज़ा: एक धूप थी कि साथ गई आफ़ताब के। उस वक़्त का समां क्यूँ-कर दिखाऊँ। मियां हर बात में इक शान थी, एक क़ायदा था और हज़ारों ग़रीबों की रोटियों के सहारे। मामूल था कि अस्र का वक़्त हुआ और सलीम गढ़ पर जमघट लगा। बड़े बड़े पतंग, दो ताद्दी और सह ताद्दी तिकलें, डोर की चर्ख़ीयाँ लेकर शाही पतंग बाज़ पहुंच गए। ख़लवत के अमीर और शौक़ी शहज़ादे मिर्ज़ा बन्नू, मिर्ज़ा कुदाल, मिर्ज़ा कालैटिन, मिर्ज़ा चिड़िया, मिर्ज़ा झुरझुरी भी आ मौजूद हुए। यह सलातीन ज़ादे बहुत मुंह चढ़े थे।
मैं:(बात काट कर) हज्ज़त, ये नाम कैसे?क्या इसी बोली का नाम उर्दू-ए- मुअल्ला है।
मिर्ज़ा: कुछ पढ़ा-लिखा भी या घास ही खोदते रहे,अरे जबान की टक्साली क़ीले ही में तो थी, वहाँ मुहावरात नहीं ढलते तो कहाँ ढलते। तबियतें हर वक़्त हाज़िर रहती थीं। हर बात में जिद्दत मद्दे नज़र थी। हंसी मज़ाक़ में जो मुँह से निकल गया गोया सिक्का ढल गया। किसी के फटे फटे दीदे हुए मिर्ज़ा बिट्टू कह दिया। लंबा चेहरा, चुगी डाढ़ी देखी, मिर्ज़ा चुकाया मिर्ज़ा कुदाल कहने लगे। चकले चेहरे वाले पर चौपाल की और ठिंगने पर घुटने की फब्ती उड़ादी। ग़रज़ कि मिर्ज़ा चील, मिर्ज़ा झपट, मिर्ज़ा याहू, मिर्ज़ा रंगीले, मिर्ज़ा रसीले बीसों इस्म-ब-मुसम्मा थे। मैं जुमेरात को चपातियाँ और हलवा बाँटा करता था, मेरा नाम मिर्ज़ा चपाती मशहूर कर दिया।
मैं: लीजिए हमें आज तक मिर्ज़ा चपाती की वजह-ए-तस्मिया ही मालूम न थी। ये आपका ख़ैर से टकसाली नाम है।
मिर्ज़ा: अब ज़्यादा न इतराओ। क़िस्सा सुनते हो या कोई फब्ती सुनने को जी चाहता है।
मैं: अच्छा अब कान पकड़ता हूँ बीच में नहीं बोलूँगा। फ़रमाईए।
मिर्ज़ा: सब सामान लैस हो गया तो बड़े हज़रत की सवारी आई। दुआ-सलाम मजरे के बाद हुक्म लेकर दरिया की तरफ़ पतंग बढ़ाया गया। दूसरी जानिब से मुईन उल-मुल्क नज़ारत ख़ां बादशाही नाज़िर का, मिर्ज़ा यावर बख़्त बहादुर या जिसके लिए पहले से इरशाद हो चुका है, पतंग उठा। रेती में सवार खड़े हो गए। पेँच लड़े, ढीलें चलीं। पतंग या तुकल्लें छपकती हुई चली जाती हैं। या हाथ रोक कर डोर दी तो डूबते आसमान से जा लीं। पेटा छोड़ दिया, डोरें ज़मीन तक लटक आईं, सवारों ने दो शाख़े बाँसों पर ले लीं। पतंग कटा तो दरिया के वार पार डोर पड़ गई। डोरें लूटीं। पतंग के पीछे पीछे ग़ोल के ग़ोल शाहदरा तक निकल गए। जिसने वो निकल या पतंग लूटी पाँच रुपये की मज़दूरी की। डोर भी बीस-बीस, तीस-तीस रुपये सेर बिक जाती थी। बादशाह कभी तो ख़ाली सेर ही देखते रहते। कभी जी में आता तो तख्त-ए-रवां से उतर पड़ते। मछली के छिलकों के दस्ताने पहन लिये। पतंग हाथ में लिया एक-आध पेँच लड़ाया और हंसते-बोलते महल मालाई में दाख़िल हो गए। सय्यद! ये भी ख़बर है कि वो पतंग या तुकल्लें कितनी बड़ी और कैसी मेहनत से बनाई हुई होती थीं? तुकल्लें तो तुम्हारे पैदा होने से पहले मर चुकीं। ख़ैर मैं कभी उनकी तस्वीर दिखाऊँगा। तो वो क़द-ए-आदम होती थी और एक एक की तैयारी में कई कई दिन लग जाते थे। डोरें भी एक बल्ली, दो बल्ली, तिबल्ली, चोबल्ली कनकव्वों और तुकल्लों के ज़ोर के मुवाफ़िक़ बनती थीं। मांझों के नुस्खे़ भी हर घराने के अलग थे। तुकल्लें तो तुकल्लें आज वैसे पतंग भी न बनते हैं न किसी में इतना बूता होता है कि उनकी झोंक सँभाल सके। छोटी तन्खें रह गई हैं या बड़े नामी पतंग बाज़ों के हाँ अद्धे। वो भी कनकव्वे नहीं गुड्डियां होती हैं। लंडूरी बिन पुंछल्ले की।
मैं: भई वाक़ई लुत्फ़ तो बड़ा आता होगा।
मिर्ज़ा: जहां अपनी हुकूमत, घर की बादशाहत और पराई दौलत होती है, यही रंग हुआ करते हैं। इशरत गाहों में हर वक़्त नमाज़ें नहीं पढ़ीं जातीं। मुजाहिदे और मराक़बे नहीं होते। ये न उठाएं तो ज़िंदगी की राहतें कौन उठाए। दुनिया में हमेशा यही होता रहा है कि और यही होता रहेगा। सल्तनतों की भी उमरें होती हैं। जिस तरह आदमी कोई पेट में, कोई पैदा होते ही, कोई बचपन में, कोई जवान हो कर और कोई उम्र-ए-तबई तय करने के बाद मरता है, उसी तरह बादशाहतें हैं। कोई एक पुश्त चलती है, कोई दो पुश्त। किसी का सिलसिला सौ पच्चास ही बरस में टूट जाता है और किसी की इमारत सदियों की ख़बर लाती है। मुग़लों ने छे सौ बरस तख़्त को सँभाला। आख़िर बुढ़ापा तो सब ही को आता है। उनके कंधे भी शल हो गए। दुनिया का यही कारख़ाना है। आज इसका तो कल उसका ज़माना है। मौत और ज़वाल बहाना ढूंडते हैं। हमारे लिए ऐश-ओ-इशरत ही बहाना हो गई।
मैं समझता था कि मिर्ज़ा निरे शहज़ादे हैं और उनकी मालूमात में बाज़ियों के सिवा कुछ नहीं है। आज मालूम हुआ कि क़िले वालों का दिमाग़ बिगड़ी में भी कितना बना हुआ था। मैंने कहा, मिर्ज़ा साहिब! ये आपने किस फ़लसफ़ी का लेक्चर याद कर लिया है। दो-चार जुमलों में कैसे कैसे नुक्ते हल कर गए। बोले, प्यारे हमारे अहवाल पर न जाओ। जान कर दीवाने बने हुए हैं। नहीं तो क्या नहीं जानते क्या नहीं आता
आलम में अब तलक भी मज़कूर है हमारा
अफ़साना-ए-मुहब्बत मशहूर है हमारा!!
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