पारो देवी
“चल चल रे नौजवान” की नाकामी का सदमा हमारे दिल-ओ-दिमाग़ से क़रीब क़रीब मंद मिल हो चुका था। ज्ञान मुकर्जी, फ़िल्मिस्तान के लिए एक “प्रॉपगंडा” कहानी लिखने में एक अर्से से मसरूफ़ थे।
कहानी लिखने लिखाने और उसे पास कराने से पेश्तर नलिनी जीवंत और उस के शौहर वरींदर डेसाई से कंट्रैक्ट हो चुका था। ग़ालिबन पच्चीस हज़ार रुपये, एक साल उस की मीयाद थी। मिस्टर शशोधर मुकर्जी हस्ब-ए-आदत सोच बिचार में दस महीने गुज़ार चुके थे। कहानी का ढांचा था कि तैयार होने ही में नहीं आता था। ब-सद मुश्किल जूं तूं कर के एक ख़ाका मारिज़-ए-वुजूद में आया जिसे ज्ञान मुकर्जी अपनी जेब में डाल कर रवाना हो गए ताकि ज़बानी तौर पर इस में और कुछ चीज़ें डाल कर हुकूमत से पास करा लें।
ख़ाका पास हो गया, जब शूटिंग का मरहला आया तो विरेंदर डेसाई ने ये मुतालिबा किया कि उस के साथ एक बरस का कंट्रैक्ट किया जाये इसलिए कि पहले मुआहिदे की मीयाद ख़त्म होने वाली है। राय बहादुर चवन्नी लाल मैनेजिंग डायरेक्टर बड़े उखड़ क़िस्म के आदमी थे। चुनांचे नतीजा ये हुआ कि मुक़द्दमा बाज़ी हुई। फ़ैसला वीरेंदर डेसाई और उनकी ख़ूब-रू बीवी नलिनी के हक़ में हुआ। इस तरह “प्रॉपगंडा” फ़िल्म जिसकी कहानी का अभी सिर्फ़ ग़ैर मुकम्मल ख़ाका ही तैयार हुआ था, पच्चीस हज़ार रूपों के बोझ तले आ गई।
रवाए बहादुर को बहुत उजलत थी कि फ़िल्म जल्द तैयार हो क्यूंकि बहुत वक़्त ज़ाए हो चुका था चुनांचे जल्दी जल्दी में वली साहब को बुला कर उनकी बीवी मुम्ताज़ शांति से कंट्रैक्ट कर लिया गया और उस को चौदह हज़ार रुपये बतौर पेशगी अदा कर दिए गए। (ब्लैक में बानी बग़ैर रसीद)
दो दिन शूटिंग हुई। मुम्ताज़ शांति और अशोक कुमार के दर्मियान मुख़्तसर-सा मुकालमा था जो बड़ी मीन मीख़ के बाद फ़िल्माया गया मगर जब उसे पर्दे पर देखा गया तो सबने मुम्ताज़ शांति को नापसंद किया। इस ना-पसंदीदगी में इस बात का भी बड़ा दख़ल था कि मुम्ताज़ बुर्क़ा पहन कर आती थी और वली साहब ने साफ़ तौर पर मुकर्जी से कह दिया था कि उस के जिस्म को कोई हाथ वाथ नहीं लगाएगा।
नतीजा ये हुआ कि मुमताज़ शांति को फ़िल्म से अलाहदा कर दिया गया। इस बहाने से कि जो किरदार उसे इस कहानी में अदा करना है, उस के लिए मुनासिब-ओ-मौज़ूं नहीं... क्यूं कि इस में ऐसे कई मुक़ाम आएँगे जहां हीरोइन को अपने जिस्म के बाज़ हिस्सों की उर्यां नुमाइश करना पड़ेगी। क़िस्सा मुख़्तसर कि ये चौदह हज़ार भी गए।
अब कहानी का ना-मुकम्मल ढांचा अनीता लेश हज़ार रुपये के नीचे दबा पड़ा था... राय बहादुर चवन्नी लाल, लाल पीले हो रहे थे। चल चल रे नौजवान की नाकामी ने कंपनी की हालत बहुत पतली कर दी थी। मारवाड़ियों से क़र्ज़ ले-ले गुज़ारा ब-सद मुश्किल हो रहा था। राय बहादुर की ख़फ़गी और परेशानी बजा थी।
एक दिन में, वाचा, पाई और अशोक स्टूडियो के बाहर कुर्सियों पर बैठे कंपनी की इऩ्ही हिमाक़तों का ज़िक्र कर रहे थे जिनके बाइस इतना वक़्त और इतना रुपया ज़ाए हुआ कि अशोक ने इन्किशाफ़ किया कि जो चौदह हज़ार राय बहादुर ने मुम्ताज़ शांति को दिए थे, वो उन्होंने उस से क़र्ज़ लिए थे। अशोक ने ये इन्किशाफ़ अपनी काली पिंडली को खुजलाते हुए कुछ इस अंदाज़ से किया कि हम सब बे-इख़्तियार हंस पड़े लेकिन फ़ौरन ही हम चुप हो गए।
सामने बजरी बिछी रविष पर एक अजनबी औरत हमारी भारी भरकम हेयर ड्रेसर के साथ मेक-अप रुम की तरफ़ जा रही थी।
दत्ता राम पाई ने अपने काले, मोटे और बद-शकल होंट वाह किए और ख़ौफ़नाक तौर पर आगे बढ़े हुए औंधे सीधे मैले दाँतों की नुमाइश की और वाचा को कहनी का ठेका दे कर अशोक से मुख़ातब हुआ।
“ये... कौन है?”
वाचा ने पाई के सर पर एक धूल जमाई। “साले क्यूं पूछता है?”
पाई बदला लेने के लिए उठा तो वाचा ने उस की कलाई पकड़ ली। “बैठ जा साले, मत जा इधर, तेरी तो शक्ल देखते ही भाग जाएगी।”
पाई अपने औंधे सीधे दाँत पीसता रह गया। अशोक जो अभी तक ख़ामोश बैठा था, बोला। शक्ल-ओ-सूरत से तो अच्छी ख़ासी है।
मैंने एक लहज़े के लिए ग़ौर किया और कहा। “हाँ... नज़रों पर गिरां नहीं गुज़रती।”
अशोक मेरा मतलब न समझा। “कहाँ से नहीं गुज़रती?”
मैं मुस्कुराया। “मेरा मतलब ये था कि जो औरत यहां से गुज़र गई है, उसे देख कर आँखों पर बोझ नहीं पड़ता... बड़ी साफ़ सुथरी है लेकिन क़द की ज़रा छोटी है।”
पाई ने फिर अपने दाँतों की नुमाइश की। “अरे... चलेगी... क्यूं वाचा?”
वाचा, पाई के बजाये अशोक से मुख़ातब हुआ। “दादा मनी! तुम जानते हो, ये कौन है?”
अशोक ने जवाब दिया। “ज़्यादा नहीं जानता, मुकर्जी से सिर्फ़ इतना मालूम हुआ था कि एक औरत टेस्ट के लिए आज आने वाली है।”
कैमरा और साऊँड टेस्ट लिया गया जिसे हम सबने पर्दे पर देखा और अपनी अपनी राय दी। मुझे, अशोक और वाचा को वो बिलकुल पसंद न आई इस लिए कि उस की जिस्मानी हरकात चोबी थीं। उस के आताज़ की हर जुंबिश में तसना था, मुकालमा अदा करते वक़्त उस के अब्रो पेशा-ओ-रक़्क़ासाओं की तरह नाचते थे। मुस्कुराहट भी ग़ैर दिलकश थी... लेकिन पाई उस पर लट्टू हो गया। चुनांचे उसने कई मर्तबा अपने बदनुमा दाँतों की नुमाइश की और मुकर्जी से कहा “वंडरफ़ुल स्क्रीन फ़ेस है।”
दत्ता राम पाई, फ़िल्म एडिटर था। अपने काम का माहिर, फ़िल्मिस्तान चूँकि एक ऐसा इदारा था जहां हर शोबे के आदमी को इज़हार राय की आज़ादी थी इसलिए दत्ता राम पाई वक़्त बे-वक़त अपनी राय से हम लोगों को मुस्तफ़ीद करता रहता था और खासतौर पर मेरे तम्सख़्ख़ुर से दो-चार होता था।
हम लोगों ने अपना फ़ैसला सुना दिया था लेकिन एस. मुकर्जी ने उस औरत को जिसका नाम पारो था, “प्रॉपगंडा” फ़िल्म के एक रोल के लिए मुंतख़ब कर लिया। चुनांचे राय बहादुर चवन्नी लाल ने फ़ौरन उस से एक फ़िल्म का कंट्रैक्ट मामूली सी माहाना तनख़्वाह पर कर लिया।
अब पारो हर-रोज़ स्टूडियो आने लगी। बहुत हंसमुख और घुलो मिट्ठू हो जाने वाली तवाइफ़ थी। मेरठ उस का वतन था जहां वो शहर के क़रीब क़रीब तमाम रंगीन मिज़ाज रईसों की मंज़ूर-ए-नज़र थी। हज़ारों में खेलती थी, पर उसे फ़िल्मों में आने का शौक़ था चुनांचे ये शौक़ उसे खींच कर फ़िल्मिस्तान में ले आया।
जब उस से खुल कर बातें करने का मौक़ा मिला तो मालूम हुआ कि हज़रत जोश मलीहाबादी और मिस्टर साग़र निज़ामी भी अक्सर उस के हाँ आया जाया करते थे और उस का मुजरा सुनते थे।
उस की ज़बान बहुत साफ़ थी और जल्द भी, जिससे मैं बहुत ज़्यादा मुतास्सिर हुआ। छोटी आस्तीनों वाले फंसे फंसे बलाउज़ में से उस की नंगी बाहें हाथी के दाँतों की तरह दिखाई देती थीं... सफ़ैद सुडौल, मुतनासिब और ख़ूबसूरत, जल्दी में ऐसी चिकनी चमक थी जो दीवार लक्ड़ी पर रंदा फेरने से पैदा होती है। सुबह स्टूडियो आती, नहाई धोई, साफ़ सुथरी, उजली, सफ़ेद या हल्के रंग की सारी में मलबूस, शाम को जब घर रवाना होती तो दिन गुज़रने के गर्द-ओ-ग़ुबार का एक ज़र्रा तक इस पर नज़र न आता। वैसी ही तर-ओ-ताज़ा होती जैसी सुब्ह को थी।
दत्ता राम पाई इस पर ज़्यादा लट्टू हो गया। शूटिंग शुरू हुई नहीं थी इसलिए उसे फ़राग़त ही फ़राग़त थी, चुनांचे अक्सर पारो के साथ बातें करने में मशग़ूल रहता... मालूम नहीं वो उस के भोंडे और करख़त लहजे, उस के औंधे सीधे मैले दाँतों और उस के इन कटे मैल भरे नाख़ुनों को कैसे बर्दाश्त करती थी... सिर्फ़ एक ही बात समझ में आती है कि तवाइफ़ अगर बर्दाश्त करना चाहे तो बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है।
प्रॉपगंडा फ़िल्म की कहानी का ढांचा मेरे हवाले किया गया मैं इस का ब-ग़ौर मुताला करूँ और जो तरमीम-ओ-तंसीख़ मेरी समझ में आए, बयान कर दूँ। मैंने इस ढाँचे के तमाम जोड़ देखे और इस नतीजे पर पहुंचा कि ऐसे बेजोड़ ढांचा शायद ही किसी से तैयार हो सके। कोई सर था न पैर, लेकिन चूँकि मेरी क़ाबिलियत और ज़हानत का इम्तिहान था इसलिए मैंने अपना ढांचा तैयार किया। बड़े ख़ुलूस और बड़ी मुहब्बत से। उस की वजह ये थी कि डायरेक्शन के फ़राइज़ साइक वाचा को सौंपे जाने वाले थे जो मेरा अज़ीज़ दोस्त था।
नया ढांचा जब फ़िल्मिस्तान की फ़ुल बेंच के सामने पेश हुआ तो मेरी वो हालत थी जो किसी मुजरिम की हो सकती है।
एस. मुकर्जी ने अपना फ़ैसला उन चंद अलफ़ाज़ में दिया। ठीक है मगर इस में इस्लाह की अभी काफ़ी गुंजाइश है।
ज्ञान मुकर्जी से पूछा गया तो उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक़ मुँह मोड़ कर सिर्फ़ इतना कहा। “ऑल मोस्ट ठीक है...” ये वो हज़रत थे जो एस मुकर्जी के डाइरेक्ट किए हुए तमाम फिल्मों के डायरेक्टर थे हालाँ कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में एक फुट भी फ़िल्म डाइरेक्ट नहीं की थी।
अस्ल में फ़िल्मिस्तान में काम करने का ढब ही निराला था, सारा फ़िल्म आपने डाइरेक्ट किया है लेकिन पर्दे पर नाम मेरा दिया जा रहा है। कहानी मैंने लिखी है लेकिन इस का मुसन्निफ़ आपको बना दिया गया है। बात ये थी कि वहां सब मिल-जुल कर काम करते थे। आप इस से अंदाज़ा कर लीजिए कि दत्ता राम पाई जिसे मालूम नहीं था कि फ़िल्मी कहानी क्या होती है, मुझे मश्वरा दिया करता था।
प्रॉपगण्डा फ़िल्म की कहानी लिखने की दुश्वारियाँ कुछ वही समझ सकता है जिसने कभी ऐसी कहानी लिखी हो। सबसे ज़्यादा मुश्किल मेरी थी कि मुझे पारो को उस की शक्ल-ओ-सूरत, उस के क़द और उस की फ़न्नी कमज़ोरियों के पेश-ए-नज़र इस कहानी में दाख़िल करना था। बहर हाल बड़ी मग़ज़ पाशियों के बाद तमाम मराहिल तै हो गए और कहानी की नोक-पलक निकल आई और शूटिंग शुरू हो गई।
हमने बाहमी मश्वरा कर के ये तै किया कि जिन मनाज़िर में पारो का काम है, वो सबसे आख़िर में फ़िल्माए जाएं ताकि पारो फ़िल्मी दुनिया से और ज़्यादा मानूस हो जाये और उस के दिल-ओ-दिमाग़ से कैमरे की झिजक निकल जाये।
किसी मंज़र की भी शूटिंग हो, वो बराबर हमारे दर्मियान होती। दत्ता राम पाई उस से इतना खुल गया था कि बाहम मज़ाक़ भी होने लगे थे। पाई की छेड़-छाड़ मुझे बहुत भोंडी मालूम होती। चुनांचे मैं पारो की अदम-ए-मौजूदगी में उस का तम्सख़्ख़ुर उड़ाता। कमबख़्त बड़ी ढिटाई से कहता। साले तू क्यूं जलता है?
जैसा कि मैं उस से पहले बयान कर चुका हूँ, पारो बहुत हंसमुख और घुलो मिट्ठू हो जाने वाली तवाइफ़ थी। स्टूडियो के हर कारकुन से वो ऊंच नीच से बे परवाह बड़े तपाक से मिलती थी। यही वजह है कि वो बहुत थोड़े अर्से में मक़बूल हो गई। निचले तबक़े ने उसे एहतिरामन पारो देवी कहना शुरू कर दिया। ये इतना आम हुआ कि फ़िल्म के उनवानात में पारो के बजाये पारो देवी लिखा गया।
दत्ता राम ने एक क़दम और बढ़ाया। कुछ ऐसी टिप्स लड़ाई कि एक दिन उस के घर पहुंच गया। थोड़ी देर बैठा, पारो से अपनी ख़ातिर मदारत कराई और चला आया। इस के बाद उसने हफ़्ते में दो मर्तबा बाक़ायदगी के साथ पारो के यहां जा धमकना शुरू कर दिया।
पारो अकेली नहीं थी। उस के साथ अधेड़ उम्र का एक मर्द रहता था जो क़द-ओ-क़ामत में उस से दोगुना था। मैंने दो तीन मर्तबा उसे पारो के साथ देखा... वो उस का पति देव कम और थामो ज़्यादा नज़र आता था।
पाई ऐसे फ़ख़्र-ओ-इब्तिहाज से कैनटीन में पारो से अपनी मुलाक़ातों का ज़िक्र नीम आशिक़ाना अंदाज़ में करता कि हंसी आ जाती। मैं और साइक वाचा उस का ख़ूब मज़ाक़ उड़ाते मगर वो कुछ ऐसा ढीट था कि उस पर कुछ असर नहीं होता था। कभी कभी पारो भी मौजूद होती। मैं उस की मौजूदगी में भी पाई के ख़ाम और भोंडे इश्क़ का मज़ाक़ उड़ाता। पारो बुरा न मानती और मुस्कुराती रहती। इस मुस्कुराहट से उसने मेरठ में जाने कितने दिलों को ग़लतफ़हमी में मुब्तला क्या होगा।
पारो में आम तवाइफ़ों ऐसा भड़कीला, छिछोरापन नहीं था। वो मुहज़्ज़ब महफ़िलों में बैठ कर बड़ी शाइस्तगी से गुफ़्तगू कर सकती थी। उस की वजह यही हो सकती है कि मेरठ में उस के यहां आने जाने वाले ऐरे ग़ैर नत्थू ख़ैरे नहीं होते थे बल्कि उनका ताल्लुक़ सोसाइटी के इस तबक़े से था जो कभी कभी ना-शाइस्तगी की तरफ़ महज़ तफ़रीह के तौर पर माइल हुआ करता है।
पारो अब स्टूडियो की फ़िज़ा में बहुत अच्छी तरह घुल मिल गई थी। फ़िल्मी दुनिया में अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई औरत या लड़की नई नई ऐक्ट्रेस बनती है तो उस को कोई न कोई फ़ौरन दबोच लेता है लेकिन पारो के साथ ऐसा न हुआ। शायद इस लिए कि फ़िल्मिस्तान दूसरे निगार ख़ानों के मुक़ाबले में बहुत हद तक पाक बाज़ था। एक वजह ये भी हो सकती है कि पारो को कोई इतनी ज़्यादा जल्दी नहीं थी।
मोहसिन अबदुल्लाह (पुर-असरार नैना का ख़ावंद) अपनी एक आहंग, ख़ुश्क मुजर्रद ज़िंदगी से उकता कर पार्सी लड़की वीरा को जिसकी ज़िंदगी उसी की ज़िंदगी के मानिंद सपाट थी, शरीक-ए-हयात बनाने की कोशिश कर रहा था। चुनांचे इस ग़र्ज़ के लिए उसे हमारे साथ सेकण्ड क्लास में सफ़र करना छोड़ना पड़ा क्यूं कि वीरा फ़स्ट क्लास में आती जाती थी। इस के बाद उस को एटीकेट के मुताबिक़ आते-जाते उस की कुतिया की ज़ंजीर थामना पड़ी... आशिक़ों के इमाम मियां मजनूं को भी तो लैला की कुतिया अज़ीज़ थी।
वाचा को इस से कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने बड़ी मुश्किलों से ताज़ा-ताज़ा अपनी बदकार फ़्रांसीसी बीवी से नजात हासिल की थी। एस. मुकर्जी, परीचेहरा नसीम बानो के चक्कर में था। ज्ञान मुकर्जी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था... अपने मुताल्लिक़ में सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि मुझे उस की जल्द बहुत पसंद थी। एक दिन मैंने शाहिद लतीफ़ से उस का ज़िक्र किया तो उसने मुस्कुरा कर कहा। जल्द पसंद है, ठीक है लेकिन तुम्हें क्या मालूम कि अंदर कैसी किताब है, मज़मून कैसा है?
पाई की हालत अब बहुत ज़्यादा मज़हका-ख़ेज़ हो गई थी इसलिए कि पारो ने एक रोज़ उसे अपने घर मदऊ किया था और अपने हाथ से उसे दो पैग जौनी वॉकर विस्की के पिलाए थे। जब उस को बहुत ज़्यादा नशा हो गया था तो पारो ने उस को बड़े प्यार से अपने सोफ़े पर लिटा दिया था... अब उस को यक़ीन हो गया कि वो इस पर मरती है और हम लोग चूँकि नाकाम रहे इसलिए हसद की आग में जुलते हैं... इस बारे में पारो का रद्द-ए-अमल किया था, ये मुझे मालूम नहीं।
शूटिंग जारी थी। वीरा फ़िल्म की हीरोइन थी। साइड हीरोइन का रोल पारो को अदा करना था। उसे बर्मा के किसी आज़ाद जंगली क़बीले की एक शोख़-ओ-शंग, तेज़-ओ-तर्रार लड़की का रूप धारण था। जूँ-जूँ उस के मुनाज़िर के फ़िल्माए जाने का वक़्त आता गया मेरे अंदेशे बढ़ते गए, मुझे डर था कि वो इम्तिहान में पूरी नहीं उतरेगी और हम सबकी कोफ़्त का मूजिब होगी।
आख़िर वो दिन आ गया, जब उस का पहला शूटिंग डे था। मेक-अप रुम और कॉस्यू आम से मुज़य्यन हो कर उसे कैमरे के सामने लाया गया। अजीब-ओ-ग़रीब तराश की भड़कीले रंगों वालों, फंसी फंसी चोली, नानफ़ से और पेट की हल्की सी झलक, घुटनों से बालिश्त भराव पर लहंगा।
ऐसा मालूम होता था कि वो कैमरे, माइक और ख़ैरा-कुन रौशनियों से क़तअन मरऊब या ख़ाइफ़ नहीं। मुकालमा उस को अच्छी तरह याद करा दिया गया था। उम्मीद थी कि बोल जाएगी मगर जब टेक का वक़्त आया तो उस का सारा वुजूद लकड़ी हो गया। मुँह खोला तो मुकालमा सपाट, कई रिहर्सलें कराई गईं मगर उस लकड़ी में जान के आसार पैदा न हुए। पेशा-वर रक़्क़ासाओं की तरह अपने अब्रो नचाती थी जैसे भाव बता रही हो। तीन चार रीटेक हुए तो मैं बिलकुल मायूस हो गया। वाचा तबन बहुत जल्द घबरा जाने वाला है कि उस को ऊँटनी की कोई कल सीधी नहीं तो उसने एस. मुखर्जी से कहा कि वही उस को ठीक करे।
मुखर्जी उस को क्या ठीक करता। वो बनी ही कुछ ऐसे आब-ओ-गिल से थी जिसमें बतावे और भाव कूट कूट के भरे थे। चुनांचे एक टेक में उसने किसी क़दर गवारा ऐक्टिंग किया तो मुखर्जी ने ग़नीमत समझ कर साद कर दिया।
हम सबने बड़ी कोशिश कि उस का तसना और चोबी पन किसी न किसी हीले दूर हो जाये मगर नाकाम रहे। शूटिंग जारी रही और वो बिलकुल न सुधरी। इस को कमेरे और माइक का कोई ख़ौफ़ नहीं था मगर सीट पर वो हुस्न मंशा-ए-अदाकारी के जौहर दिखाने से क़ासिर थी... इस की वजह मेरठ के मुजरों के सिवा और क्या हो सकती है। बहर हाल हमें इतनी उम्मीद ज़रूर थी कि वो किसी न किसी रोज़ मंझ जाएगी।
चूँकि मुझे उस की तरफ़ से बहुत मायूसी हुई थी इसलिए मैंने उसके रोल में कतर ब्योंत शुरू कर दी थी। मेरी इस चालाकी का इल्म उसे पाई के ज़रिये से हो गया। चुनांचे उसने ख़ाली औक़ात में मेरे पास आना शुरू कर दिया। घंटों बैठी इधर उधर की बातें करती रहती। बड़े शाइस्ता अंदाज़ में, मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ में जिनमें चापलूसी का रंग नहीं होता, मेरी तारीफ़ करती।
एक दो मर्तबा उसने मुझे अपने घर पर मदऊ भी किया। मैं शायद चला जाता लेकिन इन दिनों बहुत मसरूफ़ था। हर वक़्त मेरे आसाब पर “प्रॉपंगण्डा” फ़िल्म का मंज़र-नामा सवार रहता था। यूं तो मेरा हाथ बटाने के लिए तीन आदमी मौजूद थे। राजा मेंह्दी अली ख़ां... मोहसिन अबदुल्लाह और डेकशिट...।
राजा मेंह्दी अली ख़ां ने तआवुन से साफ़ इनकार कर दिया... इसलिए कि वो हर वक़्त अपनी रूठी हुई बीवी को ख़त लिखने में मसरूफ़ रहते थे। मोहसिन अबदुल्लाह वीरा से अपने ताल्लुक़ात मुस्तहकम करने में मशग़ूल और मिस्टर डेकशिट पारो को मकालमे याद कराते रहते थे।
मैं कुछ अर्से से नोट कर रहा था कि पारो और अशोक सेट पर जब आमने सामने आते हैं और पारो को अपने जारिहाना इश्क़ का इज़हार करना होता तो उस की आँखें अशोक की आँखों में गड़ जाना चाहती हैं... जैसे उस को ये बताना मक़सूद है कि देखो जो कुछ ये हो रहा है, झूट नहीं सच है।
अशोक तबअन बहुत झेंपू क़िस्म का आदमी है। वो किसी औरत के खुल्लम खुल्ला इज़हार-ए-इश्क़ को बर्दाश्त नहीं कर सकता... ये मुझे मालूम था कि अशोक को पारो पसंद है, लेकिन इस में इतनी जुर्रत नहीं थी कि इस से जिस्मानी ताल्लुक़ पैदा कर लेता... उस की ज़िंदगी में सैंकड़ों नहीं, हज़ारों लड़कियाँ आएं। वो लार्ड बाइरन बन सकता था मगर शर्मीली तबीयत के बाइस उन आसानी से फंस जाने वाली तितलियों से अपना दामन छुड़ा के भाग जाता रहा।
अशोक कुमार ये वो ज़माना था जब वो किसी भी ऐक्ट्रेस पर हाथ डाल सकता था, बड़ी आसानी से कई ऐक्ट्रसें अपना दिल उस के क़दमों में डालने के लिए तैयार थीं। मैंने सोचा अगर पारो के दिल में भी खुद बदु है तो कोई ताज्जुब की बात नहीं... फिर पारो नौ-वारिद थी। ख़ुद को अशोक के साथ मुंसलिक कर के वो बाम-ए-शोहरत पर बड़ी जल्दी पहुंच सकती थी।
फ़िल्म में पारो का रोल एक आज़ाद क़बीले की नीम जंगली ख़ुद-सर और ज़ारिहाना क़िस्म का इश्क़ करने वाली लड़की का था। वो अशोक से मुहब्बत करती थी मगर वो वीरा के इश्क़ में गिरफ़्तार था। ये फ़िल्मी तस्लीस पारो के अंदरूनी जज़्बात को मुश्तइल करने के लिए काफ़ी सामान बहम पहुंचा रही थी।
शूटिंग जारी थी, इन डोर, आउट डोर... एक दिन कश्तियों का सीन फ़िल्माया जाने वाला था इसलिए बहुत दूर एक अखाड़ी मुंतख़ब की गई। दो कश्तियां थीं, एक में अशोक को सवार होना था दूसरी में पारो को... उसे ये हिदायत थी कि जब उस की कश्ती, अशोक की कश्ती के पास पहुंचे तो वो उस में कूद जाये।
पानी बहुत गहरा था। हसब-ए-हिदायत पारो, अशोक की कश्ती में कूदी मगर ऐसा करते हुए दोनों कश्तियों में फ़ासिला कुछ ज़्यादा हो गया और वो पानी में गिर पड़ी। वाचा मदद के लिए चिल्लाया, फ़ौरन साहिल पर से दो तीन मछेरे पानी के अंदर घुसे और पारो को घसीटते हुए बाहर ले आए।
औरत ज़ात, मगर हैरत है कि इस हादिसे ने उसे बिलकुल ख़ौफ़-ज़दा नहीं किया था। कपड़े ख़ुश्क हुए तो वो फ़ौरन दूसरे टेक के लिए तैयार थी।
जब वो अपने भीगे हुए कपड़े निचोड़ रही थी, तो मैंने और अशोक ने उस की टांग की एक झलक देखी जो काफ़ी दिलचस्प और शरीर थी। जब हम लोकेशन से फ़ारिग़ हो कर घर की तरफ़ रवाना हुए तो रास्ते में अशोक ने मुझसे कहा। “मंटो... टांग बड़ी अच्छी थी, जी चाहता था कि रोश्ट बना के खा जाऊं!”
अजीब बात है कि अशोक जैसा डरपोक और झेंपू अंदरूनी तौर पर सादियत पसंद था। इस की वजह यही हो सकती है कि वो चूँकि अपने जज़्बात दबा देने का आदी था इसलिए रद्द-ए-अमल की सूरत में सादियत पैदा हो गई थी।
टोस्टेर एमजी कार में अशोक और मैं दोनों स्टूडियो से घर वापस जाया करते थे और रास्ते में इधर उधर की मुख़्तलिफ़ बातें किया करते थे... मोटर उस सड़क पर से भी गुज़रती थी जिससे मुल्हक़ा गली में पारो का फ़्लैट था। एक शाम जब हम वहां से गुज़रे तो थोड़ी दूर आगे निकल कर अशोक ने मोटर रोक ली। मैंने उस से पूछा। क्या बात है?
मुड़ कर अशोक ने उस गली की तरफ़ देखा और कहा। “आज होली की ख़ुशी में पारो ने दावत दी है... जाऊं या न जाऊं?”
“मुझे क्या एतिराज़ हो सकता था। जाओ!”
“तो चलो तुम भी चलो!”
मैंने कहा। “मैं क्यूँ चलूँ... मुझे उसने मदऊ नहीं किया।”
“कोई बात नहीं...!” ये कह कर उसने तेज़ी से मोटर घुमाई और पारो के फ़्लैट के पास ब्रेक लगाई। हॉर्न बजाया तो बालकनी में वाचा और पाई नुमूदार हुए।
पाई ने मुझे देखा तो अपने मकरूह दाँतों की नुमाइश करते हुए बोला। “अरे... तुम भी आ गए!”
वाचा ने अशोक से कहा। “आओ दादा मनी आओ... तुम्हारा ही इंतिज़ार हो रहा था।
पारो ख़िलाफ-ए-मामूल बनारसी साड़ी में मलबूस दुल्हन सी बनी बैठी थी। हम कमरे में दाख़िल हुए तो उसने उठकर इस्तिक़बाल किया। मुझे देखकर उसने बड़े मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ में माज़रत की कि वो मुझे मदऊ करना भूल गई।
फ़ौरन शराब का दौर शुरू हो गया। पहला पैग ख़त्म हुवा तो पाई झूमने लगा, वाचा ने फ़र्माइश कि एक आध गाना हो जाये। पारो ने चुग़लियाँ खाने वाली निगाहों से अशोक की तरफ़ देखा और कहा। “क्यूं अशोक साहब! आप कुछ सुनेंगे?”
अशोक झेंप गया और अपने मख़सूस अख्खड़ अंदाज़ में सिर्फ़ इतना कह सका। आप गाएँगी तो मैं सुनूँगा।
गाना शुरू हुआ। बाज़ारी क़िस्म की ठुमरी थी। इस के बाद एक ग़ज़ल हुई। फिर कोई फ़िल्मी गीत, इस दौरान में पारो का शौहर या जो कोई भी वो था, गिलासों में शराब और सोडा उंडेलता रहा। दूसरे पैग के बाद पाई की आँखें मुंदने लगीं। अशोक ज़्यादा पीने का आदी नहीं, इसलिए वो डेढ़ पैग से आगे न बढ़ सका। वाचा ने तीसरे पर अपने गिलास का मुँह-बंद कर दिया।
ठुमरियां, ग़ज़लें, गीत बहुत देर तक होते रहे। आख़िर में जब उसने भजन सुनाया तो उसने मेरी मौजूदगी का एहसास करके एक नअत शुरू की लेकिन मैंने फ़ौरन उस को रोक दिया। “पारो देवी! ये महफ़िल-ए-निशात है... शराब के दौर चल रहे हैं। यहां काली कमली वाले का ज़िक्र न किया जाये तो अच्छा है।”
उसने अपनी ग़लती का एतिराफ़ किया और मुझसे माफ़ी की तलबगार हुई। खाना बहुत अच्छा था... अशोक जल्दी फ़ारिग़ हो गया। उस के हाथ धुलवाने के लिए पारो उठी... जब अशोक वापस आया तो वो घबराया हुआ था। जल्दी जल्दी उसने रुख़स्त चाही और मुझे साथ लेकर वहां से चल दिया।
रास्ते में कोई बात न हुई। उसने मुझे मेरे घर छोड़ा और चला गया।
कई दिन गुज़र गए। शूटिंग बड़ी बाक़ायदगी से हो रही थी... एक शाम जब मैं और अशोक वापस घर जा रहे थे तो शिवाजी पार्क के जहां पारो का फ़्लैट का था, अशोक ने मोटर की रफ़्तार कम की और मुझसे मुख़ातब हुआ। “मंटो! तुम्हें एक दिलचस्प बात बताऊं?”
उस के लहजे में किस क़दर कपकपाहट थी।
मैंने एक लहज़े के लिए सोचा कि ये दिलचस्प बात क्या हो सकती है। “बताओ!” अशोक हंसने लगा “तुम्हें याद है, उस रोज़ जब हम पारो के हाँ खाना खा रहे थे, तो वो मेरे हाथ धुलवाने के लिए उठी थी।”
अशोक ने कहा “ये तो मुझे घबराहट याद आ गई। हाँ हाँ!”
जब ग़ुस्ल-ख़ाने में उसने मुझे तौलिया दिया तो मुझसे आहिस्ता से कहा, “कल आप अकेले आइए... शाम को साढ़े छः बजे...” मैं घबरा गया और तौलिया फेंक कर बाहर निकल आया। अशोक ने मोटर सड़क के किनारे ठहरा ली।
मैंने उस से पूछा। “तुम गए?”
“हाँ...!” अशोक ने इस्टेरिंग वेल से हाथ हटाए और उन्हें ज़ोर ज़ोर से मलने लगा। लेकिन वहां से भी भाग आया।”
मैं तफ़सील जानना चाहता हूँ। हुआ क्या... पूरा सीन तो बताओ!
उसने मुझे सोफ़े पर बिठाया। आप क़ालीन पर मेरे साथ लग कर बैठ गई। दो पैग मुझे पिलाए। ख़ुद भी थोड़ी सी पी और फिर फिर वो लगी अपनी मुहब्बत दिखाने... मैं सुनता रहा और काँपता रहा। जब उसने मेरा हाथ दबाया तो मैंने उसे बड़े ज़ोर से झटक दिया... उस की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन फ़ौरन कहीं ग़ायब हो गए... वो मुस्कुराने लगी... भय्या अशोक! मैं तो आपका इम्तिहान ले रही थी... मैंने ये सुना तो चकरा गया। उठा तो उसने फिर कहा, “अशोक साहब! मैं तो आपको अपना भाई समझती हूँ...” मैंने कुछ न कहा और नीचे उतर गया। कार में बैठा... घर पहुंच कर मैंने आधा पैग पी कर सोचा तो मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ... क्या हर्ज था अगर मैं...! अशोक के लहजे में तास्सुफ़ था।
मैंने कहा। “कोई हर्ज नहीं था।”
अशोक के लहजे में तास्सुफ़ और ज़्यादा हो गया है। “और... मुझे वो पसंद भी थी।”
ये सुनकर मेरे सामने वो मंज़र आगया जो उस वक़्त वुक़ूए के रोज़ रात के नौ बजे स्टूडियो के बाहर सख़्त सर्दी में फ़िल्माया जा रहा था। जश्न-ए-मसर्रत में लोग नाच गा रहे थे... अशोक अपनी हीरोइन वीरा की बाँहों में बाँहें डाले महव-ए-रक़्स था और पारो एक तरफ़ मुसज्जमा अफ़्सुर्दगी बनी अकेली खड़ी थी...!
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