सरोजिनी नायडू
अब जल्से की जान रूह-ए-रवाँ सरोजिनी की बाबत सुनो, ठुमका-ठुमका बोटा सा क़द, गोल-गोल गदराया हुआ ज़ैल, खिलती हुई चम्पई रंगत, किताबी चेहरा, खड़ा-खड़ा नक़्शा, चेहरे से मतानत और सन्जीदगी हुवैदा है मगर साथ ही उसके ख़ुश-ख़ल्क़ और हँस-मुख भी ज़रूर हैं। ख़ूब गहरी-गहरी काली जुटी भवें, जट के ऊपर छोटा सा ख़ूब गहरा सुर्ख़ कुसूम का टीका। बड़ी-बड़ी नर्गिसी आँखें कुछ झुकी-झुकी सी। देखने में कमज़ोर मगर चलने और हरकत करने में हवा से बातें करें। आँखों के ढेले हर वक़्त तर-ओ-ताज़ा रहते हैं। पुतलियाँ ख़ूब सियाह और बड़ी-बड़ी जिनके चारों तरफ़ बड़े-बड़े मुड़े हुए सियाह गुन्जान पलकों का जंगला है जिसमें ये वहशी हर वक़्त रम करते रहते हैं। भला कहीं इस जंगले से ये काले शीराज़ी कबूतर रुकते हैं, नहीं, आनन-फ़ानन में दूर-दूर के कावे काट आते हैं। बुआ, आँखें क्या बताऊँ, ग़ज़ब की हैं मोती कूट-कूट कर भर दिए हैं, लेकिन साथ ही उनसे हिजाब-ओ-शर्म-ओ-हया और इस्मत-ओ-इफ़्फ़त पड़ी बरसती है। ये देख लो कि शहर-शहर मुल्क-मुल्क अकेली पड़ी फिरती हैं, हज़ारों लाखों मर्दों में उठती बैठती हैं। चाहिए था कि दीदे का पानी ढल जाता मगर नहीं? आँख में वो हया है कि बाज़ बे-हया मर्दों की तरफ़ उठते ही उनको भी हया-दार बना देती हैं। ये बाहर का फ़िरना इस से हज़ार दर्जा बेहतर है कि घरों की चार-दीवारी के अन्दर पड़े-पड़े पर्दों में गुर्दे लगाएँ और न बी-बी हमने हाशल्लाह-हाशर्र्ह्मान कोई उनकी ऐसी वैसी बात सुनी। मुतनासिब आज़ा हैं, छप-तख़्ती बड़ी प्यारी है जिसके सबब जामा-ज़ेबी और फबन ग़ज़ब की है, कान मौज़ूँ हैं, और लवें नीचे को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ झुकी हैं, बाल बड़े घने-दार काले भौंरा से हैं और अंग्रेज़ी मौजूदा तर्ज़ के मुवाफ़िक़ कन-पट्टियों पर झुकाकर और कानों पर से ले जाकर पीछे जोड़े की सूरत में लपेट देकर काली कंघियाँ लगाई गई थीं जिनमें हीरे की तरह चमकते हुए सफ़ेद नग जड़े हुए थे जो महीन बनारसी साड़ी के अन्दर से पट-बचनों की तरह झम-झम कर रहे थे। बालों की वज़ा थी तो अंग्रेज़ी मगर हमारी मुहम्मद शाही पट्टियों और सादी बब्बरियों से कुछ-कुछ मिलती जुलती है। बाएँ रुख़्सार पर ज़रा कछ ऊपर हट कर एक नन्हा सा हल्के सियाह-रंग का तिल है कि जब हँसते वक़्त गाल ऊपर की तरफ़ बड़ी ख़ूबसूरती से तलातुम पैदा करते हुए चढ़ते हैं तो शामत-ज़दा आँखों में घुसने की कोशिश करता है। सीधे रुख़्सारे में हल्का सा गड्ढा पड़ता है जिसकी बाबत दिल्ली वालियों का ख़याल है कि सास पर भारी होता है। चौखटा मौज़ूँ, बराबर-बराबर। जमी हुई ख़ूब चमकती हुई बत्तीसी जैसे बहरीन के मोती, होंठ जो हँसने और मुस्कुराने में एक दूसरे से जुदा होते हैं और फिर कुछ वक़्फ़े के बाद मिलकर बिल्कुल वाबस्ता हो जाते हैं पता देते हैं कि ये औरत बड़ी बर्दाश्त और तहम्मुल की है। रख-रखाव और अपने तईं लिए-दिए रखने का बड़ा माद्दा है। कोई राज़ की बात कह दो तो गोया कुएँ में डाल दी या यूँ समझ लो कि वो ज़बान-ए-हाल से कहते हैं कि हमने आज तक कोई छिछोरी, पोच, बेहूदा और लग़्वियात अपने में से बाहर नहीं जाने दी, पहले हम साकिनान-ए-दिल-ओ-दिमाग़ का झाड़ा लेते हैं फिर निकलने देते हैं। ख़ूबसूरत ठोढ़ी जैसे बनारसी लंगड़े की कैरी, मोरनी की सी गर्दन, गोल सुडौल बाज़ू, चपटी लंबोतरी साँचे में ढली बाँहें, अच्छी गोल-गोल नाज़ुक कलाइयाँ जिनमें फँसी-फँसी चमकते हुए ज़बर-जद्दी रंग की जापानी रेशमीं चूड़ियाँ, बीच में नीम के फूल के बंबई की जिला-दार अशर्फ़ी के सोने वाली चौड़ी और फिर रेशमीं चूड़ियों में मिली हुई इधर-उधर एक के बाद एक, बाइसके दर वाली वही सुर्ख़ी लिए अशर्फ़ी के सोने की पतली पतली नख़ें लगी हुई बड़ी भी मालूम होती थीं। गले में सत-लड़े की सी वज़ा की कंठी थी जिसमें जुगनी की जगह याक़ूत की आवाज़-दार जराई का चाँद और पुखराज की जड़ाई का तारा सा लगा हुआ था। कानों में हीरे के छोटे-छोटे बुन्दे थे जो बिजली की रौशनी में हरकत के साथ पड़े झमर-झमर करते थे।
बेगम नायडू के कानों को देखकर अल्लाह बख़्शे दद्दा सोभा याद आ गईं जो कहा करती थीं कि ए हे! औरत का हुस्न ही क्या जो ऊपर के सब कान न छिदे हों। निरे नीचे के एक-एक या दो-दो कान छिदे हों तो औरतें लगती नहीं। ख़ासे भांडों के साथ नाचने वाले लौंडे मालूम होने लगती हैं। सूरत ही नहीं निकलती जब तक कि नर्म-नर्म कान गोंटी की तरह न झुके पड़ते हों और जो बीवियाँ मारे नज़ाकत के गहना-पाता नहीं पहनतीं तो लोगो! चाहे मुझे कोई बद-शर्म कहे या बे-हया उस बन्दी को वही मियाँ मुराद के चूतड़ जैसे चाँद सादा-सादा रोढा-रोढा मुँह लगने लगता है। चाहे कितना ही गोरा-चिट्टा क्यों न हो। ख़सम भी बात करते लजियाए, मुए हम-ज़ाद का धोका खाए। अल्लाह ग़रीक़-ए-रहमत करे क्या अगले लोग भी थे और क्या थे उनके ख़याल। बहिश्तन किसी को भी ज़रा हल्का-हल्का सा ज़ेवर पहने देख लेती थी तो कोई-न-कोई चोट ज़रूर ही कर देती थी और हम बहनों में से तो अगर कोई ज़रा भी घबराकर एक भी चीज़ अलैहिदा कर देती थी तो हमारी जान से दूर, चार बार पन्जतन पाक का क़दम दरमियान, बे-चारी की अर्वाह न शरमाए, बला की तरह हाथ झाड़ के पीछे पड़ जाती थी और जो न कहनी थी वो कह सुनाती। ख़ैर बे-चारी, अब हमसे अच्छे लोगों में है। अल्लाह वाँ की अच्छी बनाए याँ तो अच्छी काट ही दी। कहते हैं कि मर के पाँव फेरे उसने तो मर के भी पहरा दिया। याद होगा। शताबू की उस रात कैसी घिग्घी बँधी थी और कैसी चीख़ी चिल्लाई है और पूछते थे कि अरी मुर्दार बता क्या आफ़त है सर पे मीराँ आए हैं या मूँ अल्लाह-बख़्श चढ़ बैठे हैं, कोई पिछल-पहरी देखी या तेरे मेरे प्यारों ने आ टेटुआ दबाया। कुछ जवाब न देती थी। बैरी की तरह थर-थर सर से पाँव तक काँपती थी, बात करती तो मुँह से पूरे लफ़्ज़ न निकलते, आख़िर जब ख़ाला मुग़्लानी ने क़ुरआन शरीफ़ की, वारी जाऊँ नाम के, हवा दी और उस्तानी जी ने पंज-सूरा और लाल ख़ाँ ड्योढ़ी-बान की माँ ने ला-ईलाफ़ पढ़ कर दम किया, जब क़ितामा के औसान दरुस्त हुए, मुँह से फूटी कि मंझली सरकार अल्लाह मेरी ख़ता-मुआफ़ करें मुझसे बड़ी चूक हुई। हज़रत बी-बी के बच्चों का सदक़ा दर-गुज़रा। जब अम्माँ-जान ने बिगड़ कर कहा शफ़्तल सदक़े वास्ते ही दिलाए जाएगी या कुछ कहेगी भी, तो किस तरह चबा-चबा के कहा है कि सरकार आलिया, मैंने मँझले सरकार की गुर्दे की जड़ाई वाली, हीरे की आरसी सुब्ह फ़ज्र ही नूर ज़हूर के तड़के छोटी महताबी वाली सख़ची में से जब सिलफ़ची आफ़्ताबा और लाल खारवे का ज़ेर-अन्दाज़ उठाने गई ये निगोड़ी इंद्र-सभा रात को इशा के बाद वहीं भूल आई थी। था तो सेवेरा ही, मेरा कलेजा भी खुरच रहा था। मैंने कहा कि देखूँ कुछ रात का बचा-खुचा गन्जीने में धरा हो तो ले जाकर बर्ता दूँ। नागहानी होनी शुदनी कलंक का टीका लगना था उठा ली, मेरा अल्लाह गवाह है जो कोई भी नीयत में ख़लल हो। उधम उसकी मचे ही हीगी और हाफ़िज़ जी बुधनी की फ़ाल खोलेंगे देखूँ किस का नाम निकलता है। सन्नो जी की बेटी किस का हुल्या बतलाती हैं, हुज़ूर यहाँ सरकारें ऐसी बे परवाह हैं कि किसी ने पलट कर सुध भी न ली। झुटपुटे के वक़्त से मुझे ख़याल हुआ कि कुछ ज़िक्र निकालूँ उसकी बाबत, फिर मैंने कहा कि मुझे चुप ही साध लेना चाहिए, दूसरे मुझे मुलम्मा तौलना था और मोदी-ख़ाना में रखना था इधर नामी फ़ितन ने सारा महल सर पर उठा लिया लोगो! ग़ज़ब है जिस सरकार, दरबार में ये पर्थमी की पर्थमी भरी हो। हथेली का फफूला ना फोड़ें। हल्के पानी न पियें। नगोड़े सब के सब बादशाही अहदी हो गए कि हिलाओ न जुलाइ टुकड़े मांग-मांग खिलाओ। खाऐं और मिग्राऐं। कर्मो-जलियाँ इनाम इकराम के वक़्त तो क्या-क्या पिल-पिल के दुश्मनों, बैरियों की जान पर आती हैं,एक है कि अपना हक़-ए-ख़िदमत जताती है, भला ये भी कोई ढंग है, कोई रवैय्या है, कोई क़रीना है कि दोनों वक़्त मिलने को आए और जिन्स अब तक बाहर नहीं गई। अब भला किस वक़्त वो निमाना करमों बंदा जिन्स सँभालेगा और कब पकारेंध कर फ़ारिग़ होगा। फिर वही मुद्दईयों की जान पर सर-शाम हाय हाय होगी, ये मासूम-मासूम फूल से बच्चे ख़ाली अंतड़ियों इन नमक हरामों की जान को दुआ देते हुए आराम करेंगे। इसी तरह नवाब कि जिसके दम की सारी रावण-भावन है। इन मस्तानी के कलेजे में छुरी-कटाऊँ डालने को वक़्त से बे-वक़त खाने के मारे भूक मारी जाएगी। बस कुछ यूँही सा जमी जम खाएँगे। इन माल-ज़ादियों के गहरे हैं, सारा उलुश उन्हीं ग़ैबानियों के तलड़ में घिसेगा। सरकार आलिया में जल्दी- जल्दी जिन्स तौल झोंक फ़र्ख़ंदा के हाथ बाहर बावर्ची-ख़ाना में भिजवा, नानी फ़ितन की फूफा-फूफा और थूक पीक उड़ते देखने छोटी सह-दरी में चली गई। वो मुझे देख कर और तेज़ हुईं और जाएँ तो जाएँ कहाँ, एक एक गाली, सवा-सवा मन की दे डाली और मैं जब हँसी और हँसते हँसते लोट गई तो पेट में बल पड़ गए तो और भी आपे से बाहर हुईं। पन-कटी पटख़ नाक के बाँसे पर ऐनक को रख और उसके डरों को पीछे चुटिया की तरफ़ खिसका, लकड़ी टेकती उठीं कि भलारा तो सही ख़ामपारा मैं ख़ुद नवाब पास छोटी महल-सराए में जाती हूँ और क़सम है मुझे तीस धार दूध की जो नवाब पर निसार कीं और तलाक़ है उस बंदी की जनती पर जो तेरी पूरी तरह कुद-बुद-याना बनवाई। ठेरजा बड़ी चर्बिया गई है। अभी आन के आन सुधरवाए देती हूँ। मेरा भी फ़तहुन्निसा नाम नहीं। अपने नाम की मैं भी एक बंदा-ए-बशर हूँ किसी मुग़ल की नहीं चमार की जनी कहियो जो तेरे सारे मग़ज़ की गर्मी ना छुटवा दी। वो रस्सियों से बँधवा साईसों से जुतियाँ न लगवाई हूँ कि तू भी कधी को याद करे। लंका कहें की चोटी, जामा मस्जिद की सीढ़ियों पे की शहिदन, उड़वा बैगनी। ओख़ू क्या-क्या थिरकती है। क्या-क्या कलें तोड़ती है। बोटी-बोटी पड़ती नाचती है। ख़ाक पे बिसमिल्लाह, अल्लाह ने देख के ही पटख़ा है। देखती जा वो चार चोट की मार पिटवाऊँ कि बंद-बंद ढीला हो जाए, खड़ी पड़ी कहरवा नाचे। अब तू ही इस घर में बिराज ले या मैं रह लूँ। सरकार आलिया! नानी फ़ितन ने सरकार हुज़ूर से शिकायत की धमकी दी, मेरे हाथों के तोते उड़ गए। ज़मीन के सिरे टटोलती थी। नानी फ़ितन के आगे हाथ जोड़े, तौबा की, नाक रगड़ी, अल्लाह-रसूल के वास्ते दिए, हज़ारों ख़ुशामदें दर-आमदें, मिन्नत समाजतें कीं तब कहीं ख़ुदा-ख़ुदा करके उनका जोश उतरा, ग़ुस्सा ठंडा हुआ, नरम पड़ीं, पसीजीं, छोटी हवेली में तो न गईं मगर हाँ बड़ड़-बड़ड़ घंटों करती रहीं। फिर मैं उठ दर्रे में ख़ाला हपऊ के पास जा बैठी, छालिया कतर एक ज़र्दे का टुकड़ा खाया इतने में ख़ासे का वक़्त आया, मकहू सपड़चन बहंगी सँभाल पतेलियाँ लेने ड्योढ़ी पर गई। मैंने शैदी को फुलकों का आटा रुकवाने बाहर दौड़ाया। और ख़ुद चची रहमत के पास खाना उतरवाने नेमत-ख़ाने के क़रीब जा बैठी। वहाँ कुछ बैठे-बैठे नींद सी आई। सोची कि तूने अभी सुब्ह के ख़र्च को सुराहियाँ आब-दार-ख़ाने में से निकाल कर बझीरों पर नहीं धरी हैं। इस काम से निचिंत हो कर सो रहूँगी। इतनी भी हिम्मत न पड़ी अपने हिस्से की रोटी और तसर्रुफ़ का सालन दादी दलीन की पोती से ले लेने को कह, और उससे आब-ए-हयात को निकालने और बझीरों पर रखने को जता, जाकर पड़ रही। सरकार आलिया ज़रा की ज़रा ही आँख झपकी होगी देखती क्या हूँ कि एक बुढ़िया मुँह में दाँत न पेट में आँत आई और मेरी छाती पर चढ़ बैठी। बहुतेरा उसे दोनों हाथों से हटाती हूँ, पाँव भी मारती हूँ। धकेलती हूँ मगर वो मरयम से टलीम नहीं होती। आख़िर उसी हश्त-मश्त में उसने मेरी गर्दन की तरफ़ हाथ बढ़ा मूंडे पर रख दिया और कहा कि छोटी चंबली मेरी बच्ची की आरसी अभी उसके हवाले कर वर्ना मूंडिया मरोड़ कर रख दूँगी। सरकार मेरा लहू ख़ुश्क हो गया, चीख़ने की कोशिश करती तो आवाज़ न निकलती। फिर मेरी आँख खुली तो आप लोगों को देखा। लीजिए ये रही आरसी। ये कह नेफ़े में से निकाल कर हवाले की। नानी हज़रत बड़ी नाराज़ हुईं। कहने लगीं ज़ोफ़ है, लानत है तुझपे ख़ुदा की, देखा मुर्दार चुराने का मज़ा। वो बे-ग़ैरत, धोया दीदा, चिकना घड़ा, बूँद पड़ी फिसल गई, बैठी ठी ठी हँसती रही। हम लोग तो फिर चले आए। सुब्ह इस ना-मुराद ने बे-चारी दद्दा सोभा की फ़ातिहा मछली की धोवन, माश के बड़ों और अंडों पर दिलवा दी। उस रोज़ से फिर किसी के ख़्वाब में नहीं आईं मगर देखो फेरा मरे पर भी दिया। मेरी कोई चीज़ इधर से उधर, जा से बे-जा हुए या ज़रा भी मैं आँखों से ओझल हो जाऊँ बस दीवानों की तरह सड़ी सौदाइयों की तरह हो जाती थी। एे हे देखो! अच्छों की याद करने के बाद भी होती है। सच है चाँद प्यारा नहीं काम प्यारा है। लो मैंने भी बात कहाँ से कहाँ ला डाली। कहाँ बेगम नायडू का सरापा कहाँ उनकी जान से दूर दद्दा सोभा का रोना सूरत और ज़ेवर से तो आश्ना हो गईं अब लिबास और जो बातें उनके मुताल्लिक़ रह गई हैं सब आगे चल कर बताए देती हूँ।
किनाए-दार हल्के मोतियाई रंग की बनारसी साड़ी। किनारे पर धनिए की बेल और मतन पर बर्फ़ की बूटियाँ पड़ी थीं। चोली मरहनी तराश की थी जिसकी आस्तीनें ख़ूब फँसी फँसी आधे बाज़ुओं तक थीं। चोली का कपड़ा बनारसी था जिस की ज़मीन पे पास-पास गुलाब और महुए की सुनहरी बूटियाँ पड़ी थीं और उसपे किनारा जो लगाया था वो भी बनारसी। जिसकी बेल ख़ुदा जाने किस क़िस्म की जाल की थी, लेकिन चोली का रंग और टिकाई साड़ी ही के जवाब की थीं। साड़ी बंबई के तर्ज़ से बँधी थी। चारों तरफ़ ख़ूब अच्छा मीठा मीठा झोल दिया हुआ था। लेकिन ओढ़ने का सिरा मामूली साड़ियों से बड़ा था जिस के आँचल को उल्टे खोए पर मुहीन मुहीन चंट देकर और फूल सूई अटका कर सर पर से ले जाकर पीछे नीचे तक लटकता छोड़ दिया था। जिससे बिछाने की ढक्कन बड़ी ख़ूबी से हो गई है और मुम्बई की आम साड़ियाँ जो पारसिनें बाँधती हैं कि पल्लू का एक सिरा लेकर दाएँ पहलू की लपेट के बाद गाई के नीचे से बाएँ पहलू की तरफ़ उड़स लेती हैं और दूसरा सिरा पीछे समोसा-नुमा लटका रहने देती हैं। इस में वो बात न रही थी (यानी पीछे समोसे की तरह नहीं था) बल्कि दोनों सिरे पीछे ही लटके हुए थे। कान के पास कुछ सर-गाह के आँचल की झूक थी जिसको सरोजिनी साहिबा अक्सर बोलते वक़्त अजीब अन्दाज़ से दाएँ कान और हँसली का सिरा ढाँकने के लिए बड़ी फुर्ती से झुका लेती थीं जो फिर हरकत से आहिस्ता-आहिस्ता खिसक कर पीछे हट जाता था और फिर वो चुटकी से पकड़ कर आगे खिसका लेती थीं। पाँव में पैर से ऊँची एड़ी की सियाह बेगमी जूती थी। जिस वक़्त ये तक़रीर करने खड़ी होती हैं उस वक़्त का आलम बयान से बाहर है। आवाज़ में एक ख़ास क़िस्म की लरज़ थी जो दिलों में लर्ज़िश पैदा करती थी। कभी तो आवाज़ रसाँ रसाँ ऊपर चढ़ कर महावट के भूरे-भूरे बादलों की सी गरज पैदा करती थी और कभी आहिस्ता-आहिस्ता नीचे हो कर सावन-भादों की बाजरा फुवार का मज़ा देती थी। और कभी एक जगह क़ायम हो कर सुनने वालों के दिलों की मुतहर्रिक मौजों में चाँद के ग़ैर-मुस्तक़िल अक्स का मज़ा दे जाती थी। या ये मालूम होता था कि गुल-मुश्की के तख़्ते में सोने मोतियों का हज़ारा छूट रहा है। जिसकी सदहा पतली पतली धारें लब के पास एक दूसरे से बहुत ही क़रीब-क़रीब मिली हुई निकल कर और ऊपर फैलती हुई और एक दूसरे से दूर होती हुई और फिर एक ख़ास क़िस्म की महराब बनाकर फूलों की नाज़ुक-नाज़ुक काली पंखुड़ियों पर गिर के और थोड़ी देर ठहर कर और अपनी चमक दिखा के छोटे-छोटे मोतियों की टूटी हुई लड़ियों की तरह तख़्ते में चारों तरफ़ बिखर जाती हों। जिस वक़्त वो जोश में आन कर सर को हरकत देकर गर्दन को अकड़ाती थीं तो मालूम होता था कि बारिश से धुले हुए हरे कंचन से जंगल में हिरनी हवा के रुख खड़ी कस्तूरी की बू ले रही है। लफ़्ज़ों को पुर-ज़ोर और पुर-असर बनाने के लिए जब वो मुट्ठियाँ भींच के और हाथ ढीले छोड़ के जो अकड़ाती थीं और झूमती थीं तो मालूम होता था कि सत्ह-ए-आब पर कँवल की तैरी हुई बेलों में जल-परी राज हंसों के साथ खड़ी अठखेलियाँ कर रही है। फिर ख़ातिम-ए-तक़रीर के बाद उनका एक दम फ़ौरन ही बैठ जाना और दीवान में तालियों का शोर और हाज़िरीन की चर-ग़म चर-ग़म बिल्कुल जल-परी के खेलते खेलते दफ़्अतन ग़ोता लगा जाने और जल कव्वों के शोर-ओ-ग़ुल के मानिन्द था। या उनका झूमना ऐसा मालूम होता था कि किसी हरी-हरी दूब के जंगल में चाँदनी चटक रही है और हवा के झोंके से हिलते हुए पत्तों की ओट में पट-बचनो की चाँदनी के सामने मद्धम-मद्धम चमक में एक दौर किसी चट्टान पर बैठे हुए गडरिए की बैन की आवाज़ पर केचली फाड़ कर नई निकली हुई नागिन का फन फैलाकर खेलने या किसी गाँव से रात के सन्नाटे में पोंगी की आने वाली लहर पे लहरा लेने के मानिन्द था और फिर बोलते बोलते आनन-फ़ानन में कुछ जिस्म को ढीला छोड़ के कुर्सी, जो जगह की तंगी की वज्ह से पीछे हटाई गई थी ताकि उन्हें खड़े होने में सहूलत हो और उसका हटाया जाना उन्हें याद न रहा था, एक पास ही पड़ी हुई चौकी पर बैठ जाना। लहरा बंद होने पर नागिन के फन सिकोड़ के पत्तों पे से ओस चाटने की था।
और हाँ जब हमारे कॉलेज के मश्हूर शाइर सुहेल साहब ने फ़ारसी का क़सीदा पढ़ा है, उस वक़्त बेगम नायडू की पतली पतली उँगलियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद ताल सुर के साथ कुर्सी पर, जिस पर वो बैठी थीं, पड़ने लगीं। एक तो क़सीदे के अल्फ़ाज़ ऐसे थे कि जिनके अदा करने में ख़ुद-ब-ख़ुद एक राग की सुहावनी आवाज़ निकलती थी। फिर लफ़्ज़ बड़े फ़सीह शान-शौकत के, बन्दिश-ए-अनवरी और कआनी की बन्दिश से पाला जमाए। सोने पे सुहागा सरोजिनी साहिबा की उँगलियों की हरकत ने ग़ज़ब का समाँ बाँध दिया।
अच्छी। कहोगी तो सही कि दुई सबकी सूरत बताई लेकिन सुहेल साहब की बाबत कुछ न बताया। लो सुनो, एक मुट्ठी भर का सूखा सहमा मर्दुआ, हड्डियों की माला, मिर्ज़ा मुनहनी, हल्का पित्ता फूक से कोसों दूर जाए। बनारस के पास जो आज़मगढ़ है जहाँ के शिबली मर्हूम रहने वाले थे वहीं के ये भी रहने वाले हैं। उनकी शागिर्दी का भी उन्हें शरफ़ हासिल है, मगर बड़े मियाँ की अर्वाह भी ऐसे क़ाबिल आदमी के शागिर्द होने पर नाज़ करती होगी।
ए हाँ एक बात और याद आई। जिस वक़्त सरोजिनी साहिबा बोल रही थीं तक़रीर सारी अंग्रेज़ी में थी। और अंग्रेज़ी वो ज़ोरदार कि ख़ुद अंग्रेज़ मुँह तकें कि या अल्लाह कोई रहमत का फ़रिश्ता है या आज़ादी का खड़ा बोल रहा है। सारे लोगों पे वो सन्नाटा जैसे अगन चहके और सारे परिन्दे चुपके हो कर बैठ रहें। मैंने अपने दिल में कहा कि चल तूने तो कई दफ़्अ सुना है आज और सुनने वालों का तमाशा देख। अब मैंने जो लोगों की तरफ़ आँखें दौड़ाईं, किसी की तो आँखें फटी की फटी रह गईं थीं और किसी का मुँह खुला का खुला रह गया था। एक अंग्रेज़ ज़रा मोटा सा, सुर्ख़-सुर्ख़ लाल चुक़ंदर सा रंग-ए-ज़र्द-ज़र्द दाँत निकोसे, मुँह फाड़े ऐसा मब्हूत होके बैठा था कि मालूम होता था कि दुश्मनों को साँप सूँघ गया। एे है कुछ अजीब ही बेचारे की सूरत बन के रह गई थी कि ये देखे से हँसी आती थी।
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