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सिंगापुर का मेजर हसरत

सय्यद ज़मीर जाफ़री

सिंगापुर का मेजर हसरत

सय्यद ज़मीर जाफ़री

MORE BYसय्यद ज़मीर जाफ़री

    दूसरी आलमगीर जंग के ख़ात्मे पर जब इत्तिहादी क़ाबिज़ फ़ौजें मलाया के साहिल पर उतरीं तो मौलाना चराग़ हसन हसरत इसके हर अव्वल दस्तों में शामिल थे। आप दो साल से कुछ ऊपर सिंगापुर में मुक़ीम रहे।

    मौलाना हसरत जुनूब मशरिक़ी एशियाई कमान के शोबा-ए-ताल्लुक़ात-ए-आमा से वाबस्ता थे और हेडक्वार्टर से शाए होने वाले हिंदुस्तानी अस्करी अख़बारात की इदारत-ओ-निगरानी का फ़रीज़ा उनके सुपुर्द था।

    हम दोनों (मसऊद ज़मीर) उनके नायब-ओ-मुआविन की हैसियत में उस शोबे से मुतअल्लिक़ थे। हमें अपनी इस ख़ुशबख़्ती पर बड़ा फ़ख़्र है कि हमें अपने ज़माने के एक साहब-ए-तर्ज़ इंशा पर्दाज़, एक बड़े सहाफ़ी और एक बहुत बड़े इंसान को बहुत क़रीब और बड़ी तफ़सील से देखने का मौक़ा मिला है। जो लोग अजनबी सर-ज़मीनों में फ़ातेह लश्करों की ज़िन्दगी का तजुर्बा रखते हैं वो इस अमर का अंदाज़ा कर सकते हैं कि हमें हसरत साहब से कितना और कैसा तक़र्रुब हासिल रहा होगा। वो ये भी जानते हैं कि ये ज़िन्दगी किसी चेहरे पर कोई नक़ाब बाक़ी नहीं रहने देती।

    हमारे रुफ़क़ा में से कैप्टन (अब लेफ़्टिनेंट कर्नल) जावेद ख़टिक। कैप्टन (अब कमांडर) हसन अस्करी जो अदबी दुनिया में इब्न-ए-सईद के नाम से मशहूर हैं। मेजर अहमद अली ख़ां जो आजकल बर्तानिया में पाकिस्तान के मो’तमिद-ए-तिजारत हैं। कैप्टन इनाम क़ाज़ी और कैप्टन (अब लेफ़्टेनेंट कर्नल) रशीद हयात पाकिस्तान के हिस्से में आए हैं। ये सब दोस्त वहाँ क़ौम के नाम से याद किए जाते थे और हसरत उस ‘क़ौम’ के ‘मुर्शिद’ थे। फिर आगे क़ौम के भी अंदर मसऊद और ज़मीर को मुर्शिद का ख़ुसूसी क़ुर्ब हासिल था। मसऊद दफ़्तर में उनका नंबर 3 था और ज़मीर दफ़्तर से बाहर उनका एडिकांग!

    इस मुताले से उसी दौर के हसरत का तज़्किरा मक़सूद है। चंद झलकियां, चंद बातें, चंद यादें!

    हमारे लिखने का तरीक़-ए-कार ये रहा है कि वाक़ियात की तरतीब में... क़ुर्बतों और फ़ासलों के मुताबिक़, कुछ हिस्सा मसऊद ने लिखा है और कुछ ज़मीर ने। मौलाना जहाँ एक के हाथ से निकल कर दूसरे के क़ब्ज़े में चले गए हैं, एक ने क़लम रोक कर मज़मून बल्कि यूँ कहना चाहिए कि मौलाना को दूसरे के सुपुर्द कर दिया है।

    मौलाना हसरत की बेवक़्त मौत हमारी तहज़ीबी तारीख़ का एक अज़ीम सानेहा है। ये एक फ़र्द की मौत नहीं, एक रिवायत, एक इदारे की मौत है। हम नियाज़मंदों के लिए उनकी मौत एक गहरे ज़ाती ज़ख़्म की हैसियत रखती है। ज़िन्दगी में किसी के साथ दो क़दम चल कर बिछड़ जाने पर क़लक़ होता है। ये तो उस दोस्त का बिछड़ना है जिसके साथ हम कामिल दो बरस तक एक दफ़्तर ही नहीं, एक घर में भी रहे... ये तो उस मुर्शिद की रुख़्सत का दाइमी घाव है जिसके क़दमों में बैठ कर हमने क़लम पकड़ना सीखा है... ये तो उस अंजुमन के उजड़ जाने का मातम है कि जिसकी रौशनी ही के सबब आज हम अपनी ज़िन्दगी को एक ग़ैर-मामूली मता समझते हैं। ये ग़म तो अब जान के साथ ही जाएगा। लेकिन इस मज़मून में तहरीर के अंदाज़ को हमने अमदन हल्का फुलका रखा है। हमारा अक़ीदा है कि रोते बिसूरते लहजे में मौलाना की शख़्सियत से इन्साफ़ करना तो कुजा, उनको छू सकना भी ना-मुमकिन है। हमने मुर्शिद के तज़्किरे के लिए वही उस्लूब चुना है जो ख़ुद उनका उस्लूब-ए-हयात था। हम हसरत साहब की पसंद-ओ-नापसंद से वाक़िफ़ हैं। हम अपने मुर्शिद को जानते हैं।

    (मीम-ज़्वाद)

    लीजिए अब ज़मीर से सुनिए,

    मुर्शिद मुझसे पहले सिंगापुर पहुँच चुके थे। जावेद के हमराह जिस वक़्त में हॉलैंड पार्क के एक वसीअ, दिलकुशा बंग्ले के अंदर पहुँचा तो मुर्शिद... क़ौम के दिल में बैठे हुए दोपहर का खाना खा रहे थे। मैं “शीराज़ा” के ज़माने से उनका नियाज़मंद था। देखते ही खाना छोड़ कर मुझसे लिपट गए। अपने पहलू में बिठा लिया और फिर लंच की उसी एक नशिस्त में बैठे-बैठे ढेरों बातें कर डालीं।

    “ख़ूब पहुँचे हो मेरे भाई। आज रात ज़हीर की सालगिरह की दावत है। मौलाना आज हमें एक गाकर पढ़ने वाले शायर की सख़्त ज़रूरत थी। सुब्हान अल्लाह लाहौर का बिखरा हुआ शीराज़ा, कहाँ कर जमा हो रहा है... लो चांवलों पर ये टिन की मछली बिछा कर खाओ। यहाँ तो यही कुछ मुर्दार खाने को मिलेगा मियां! वो तुम्हारी यूनियनिस्ट क़िस्म की रोटी यहाँ कहाँ?”

    अब हाज़िरीन से तआरुफ़ शुरू हुआ,

    “वो जनाब इनाम क़ाज़ी हैं। तुम उनका नाम ग़ालिबन पहली मर्तबा सुन रहे हो मगर मशहूर अदीब हैं... वो धान पान साहबज़ादे मौलाना अस्करी हैं। जावेद की राय में अपने नामवर वालिद मीरज़ा मुहम्मद सईद देहलवी से भी बड़े अदीब हैं... ये रशीद हयात हैं, बस रशीद हयात, महज़-ओ-ख़ालिस। जावेद से भी मिल चुके हो। आप चिलम और फ़िल्म से हो कर इल्म के कूचे में वारिद हुए हैं... और हज़रात ये मौलाना ज़मीरा जाफ़री हैं। जहलम के रहने वाले, जहाँ के लोग ख़ुदा के तसव्वुर के लिए थानेदार को देखते हैं।”

    फिर उस शाम ज़हीर की सालगिरह मनाई गई। ये ज़हीर से उनकी बेअंदाज़ा मुहब्बत की पहली झलक थी जो हमने देखी। मुर्शिद ने जज़ीरे के तक़रीबन सभी इंडियन अफ़सरों को मदऊ कर रखा था। दो-चार ख़ुश-ज़ौक़ अंग्रेज़ जोड़े भी मौजूद थे। महफ़िल जमी तो मुर्शिद मेज़बान के बजाए कुछ इस तरह मेहमान से बने बैठे रहे जैसे उन्हें अपने सिगरेट के अलावा किसी चीज़ से कोई वास्ता हो... मरने की अदा याद जीने की अदा याद... मगर जब फिर बोतलों के काग उड़ने लगे तो मुर्शिद ने चहकना शुरू किया और अब जो मंज़र बदला है तो पूरी अंजुमन गोया तन्हा हसरत की ज़ात से इबारत थी। मेजर अहमद अली ख़ां के अलफ़ाज़ में हसरत का चराग़ रौशन हो गया। उनके लबों से शे’र-ओ-अदब, तारीख़-ओ-तसव्वुफ़, तंज़-ओ-ज़राफ़त, ज़िन्दगी और उसकी चांदनी का एक सुबुक आबशार जारी था... तुझे हम वली समझते जो बादा-ख़्वार होता।

    ये महफ़िल, जो मुर्शिद की इस्तिलाह में “बज़्म-ए-हाव-ओ-हू” कहलाती थी। अगली सुबह के कोई तीन बजे तक क़ाइम रही। यूँ कहना चाहिए कि मुर्शिद अपने चंद जांनिसारों के साथ क़ाइम रहे वरना तीन चौथाई महफ़िल वहीं कुर्सियों पर पाँव पसार कर सो गई थी। मुर्शिद तो वहीं खड़े खड़े “सुबूही” तक लगा देने का हौसला-ओ-इरादा रखते थे मगर मालूम शायद ज़ख़ीरा ख़त्म हो गया था या शायद जिस किसी में अभी तक दूसरे को थामने पकड़ने की सकत बाक़ी थी वो उनको थाम पकड़ कर ख़्वाबगाह में ले गया और ये महफ़िल बिल-आख़िर इस तरह ख़त्म हुई कि उसको जमते तो सबने देखा था मगर बर्ख़ास्त होते शायद ही किसी ने देखा। निस्बतन होशमंद लोगों को डर था कि अगर कल सुबह उन्हीं लोगों ने दफ़्तर लगाना है तो ये दफ़्तर लग चुका। मुर्शिद की निस्बत सबको क़तई यक़ीन था कि वो कल क्या मानी, अब एक पूरे हफ़्ते के लिए गोया मुअत्तल हो गए मगर फिर दूसरी सुबह को जो पहली आवाज़ हॉलैंड पार्क के ख़ूबसूरत गुम्बदों और रौशन ग़ुलाम गर्दिशों में गूँजती हुई सुनाई दी वो मुर्शिद की आवाज़ थी।

    “जावेद, अस्करी, ज़मीर... क़ाज़ी साहब।”

    “अरे सावन के बादलो।”

    “अबे ख़बीसो।”

    और भागम भाग हम लोग जब तैयार हो कर नाश्ते के मेज़ पर पहुँचे तो वो पपीते के आख़िरी पुर्ज़े को कांटे की नोक पर बिठा कर ख़ुद दफ़्तर जाने के लिए तैयार खड़े थे। जहाँ सह-पहर तक अब उन्हें मसऊद के क़ब्ज़े में रहना था। लिहाज़ा ये रूदाद मसऊद ही से सुनिए,

    मुझे दफ़्तर में उनका नंबर 3 होने का इम्तियाज़ हासिल था। इससे पहले मैं कलकत्ता में उनके साथ काम कर चुका था। मुर्शिद मेरे लिए कोई नए बॉस थे। सिंगापुर पहुँचा तो पहले ही रोज़ मुझे पूरे एतिमाद में लेते हुए फ़रमाया,

    “मौलाना आपका इंतज़ार ही कर रहा था। अब ये काम संभालें। मैं बुढ्ढा आदमी हूँ। मुझे आराम करने दें। मैं चाहता हूँ कुछ पढ़ने का वक़्त मिल जाए, कुछ घूम फिर लूँ। आपकी थोड़ी बहुत मदद कर दिया करूँगा।”

    इस तमाम वक़्फ़ा में सिगरेट मुँह से नहीं निकली। धुआँ आँखों में जा रहा था। कभी कभी तो ये गुमान होता कि धुआँ आँखों में जा नहीं रहा, आँखों से रहा है। दर्मियान में झुंजला कर आँखें मलने भी लगते। लेकिन आँखों की जलन और सिगरेट के धुएं में कोई रिश्ता शायद वो कभी दरियाफ़्त कर सके थे। इलल-ओ-मालूल की अक्सर कारफ़र्माइयों से मुर्शिद उमूमन बेतअल्लुक़-ओ-बेनियाज़ ही रहे।

    “हाँ तो मौलाना मसऊद साहब बहुत अच्छा हुआ कि आप गए... लो भई चाय और ये सिगरेट... जावेद माचिस... सिंगापुर को आप कलकत्ता से ज़्यादा तक़्वा शिकन पाएंगे।

    इतने में मुझे कपड़ा जलने की बू सी आई। मैंने कहा, “मौलाना कहीं कोई कपड़ा तो नहीं जल रहा?” बोले, “आप कह रहे हैं तो ज़रूर जल रहा होगा। आप बड़े ख़तरनाक आदमी हैं... फिर ज़रा चिल्ला कर बोले... अरे क़ाज़ी साहब ज़रा इधर तो तशरीफ़ लाएं... देखिए कोई कपड़ा तो नहीं जल रहा? ये कहीं से बू सी क्या रही है?” इस कहीं से बू का राज़ ये खुला कि जनाब की पतलून का पाइंचा चार पांच इंच के क़रीब राख हो चुका था। फ़रमाने लगे, “मौलाना ये सिगरेट भी बड़ी वाहियात चीज़ है, सोचता हूँ कि इस लानत को छोड़ ही दूं।” और शाम तक सिगरेट और माचिस के ख़ाली बक्सों से आधी टोकरी भरी पड़ी थी।

    मुर्शिद की बातें करते हुए तसलसुल या उस्लूब का क़ाइम रखना मुश्किल हो जाता है। ख़ुद उन्होंने ज़िन्दगी को उस्लूब की बंदिशों में कभी क़ैद होने दिया। फ़ौज के सख़्तगीर ज़वाबित भी उन्हें कभी पाबंद कर सके। एक मर्तबा जब अफ़सर-ए-आला ने किसी बात पर बाज़-पुर्स की तो जवाब में ये शे’र लिख भेजा,

    जर्मनी ख़त्म और इसके साथ जापानी भी ख़त्म

    तेरी करनैली भी ख़त्म और मेरी कप्तानी भी ख़त्म

    कलकत्ते की बात है एक रोज़ दफ़्तर चले रहे हैं। इस शान से कि मुँह में सिगरेट है। फ़ील्ड सर्विस टोपी बग़ल में दबी हुई है और कंधों पर एक तरफ़ तीन स्टार लगे हैं और दूसरी तरफ़ दो।

    मेरे वहाँ पहुँचने पर मुर्शिद ने मुताले की इक ज़रा सी फ़ुर्सत और सैर-ओ-सियाहत की इक थोड़ी सी मोहलत के इवज़ अपने तमाम फ़राइज़ मुझे तफ़वीज़ कर देने का फ़रमान तो जारी कर दिया मगर हमें मालूम था कि ये सब कहने की बातें हैं। मुताले के लिए मुर्शिद को मोहलत की ज़रूरत ही थी। जिस तरह और लोग किताब पढ़ते हैं उस तरह हमने उन्हें पढ़ते कभी नहीं देखा। उनकी कैफ़ियत तो कुछ ऐसी थी कि किताब उठाई, उसे छुवा, टटोला, सूँघा, चंद एक वरक़ उलट पलट कर देखे और बस। उसके बाद वो किसी बातिनी अमल से किताब का नफ़्स-ए-मज़मून, किताब की रूह, सबकी सब, अपने ज़ेहन में मुंतक़िल कर लेते। दूसरे रोज़ आप उस किताब के मुताल्लिक़ बात करें तो और इस के किरदारों का हसब नसब, कहानी की उठान, उसकी कमज़ोरियाँ और ख़ूबियाँ, मुसन्निफ़ का स्टाइल और फ़लसफ़ा और फिर दस और किताबों से उसकी जुज़इयात का मवाज़ना, ये सब यूँ बयान कर जाते जैसे ये किताब उन्होंने मकतब में सबक़न पढ़ी हो।

    रही सैर-ओ-सियाहत की फ़ुर्सत, तो ये भी एक तरह की आरज़ू ही थी जिसे अमली रंग देने का इरादा मुर्शिद ने ग़ालिबन कभी किया ही था। सचमुच की सैर-ओ-सियाहत मुर्शिद के बस की बात ही थी। फिर सैर के लिए उन्हें तूल तवील रास्ते नापने की ज़रूरत भी क्या थी। हुस्न उनके लिए एक दाख़िली कैफ़ियत थी। हुस्न उनकी आँखों और उनके दिल में था। ख़ारजी अस्बाब का सहारा अगर उन्हें दरकार था तो निहायत सुबुक सा। मेस की एक खिड़की से झांको तो छालिया के कशीदाक़ामत पेड़ों के झुण्ड आपस में सरगोशियाँ करते नज़र आते थे। दूसरी तरफ़ बालकनी के बाहर चीनी चेरी का एक तनावर दरख़्त बाहें फैलाए खड़ा था। पुश्त को उठती हुई पहाड़ी की पेशानी पर एक अरब रईस का बंगला था जिसके ज़मुर्रुदीं लॉन ऊपर से लुढ़कते, फिसलते हमारे मेस के हाशिए पर कर कहीं रुकते थे। ज़रा हट कर नारियल के पेड़ एक दूसरे पर झुके हुए थे जिनका मंज़र चांदनी रातों में बड़ा फ़ुसूँ ख़ेज़ होता था। मुर्शिद फ़रमाया करते, चांसरी लेन के मनाज़िर जिस शहस के ज़ौक़ की तस्कीन नहीं कर सकते उस गधे को सारे स्विटज़रलैंड में घुमा लाइए तो भी उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा।

    अब आप समझ गए होंगे कि मुताला-ओ-सियाहत की फ़ुर्सत की ख़ातिर दफ़्तर का कारोबार मेरे हवाले करना मुर्शिद की एक अदा थी। लेकिन इस अदा में तसन्नो या तकल्लुफ़ हरगिज़ था। मुझे यक़ीन है कि वो उस वक़्त अपनी बातों पर वाक़ई यक़ीन कर रहे थे। हो सकता है कि दिल ही दिल में उन्होंने बाली के सफ़र का कोई तफ़सीली नक़्शा भी खींच रखा हो। मुझे कुछ ऐसा ख़्याल पड़ता है कि उस रोज़ मुर्शिद कोई आध घंटा पहले ही दफ़्तर से उठ कर चले गए थे। दूसरे दिन सुबह को नाशते के मेज़ पर भी मौजूद नहीं थे। कमरे में झाँका तो देखा कि कुर्ते पाजामे में लेटे “स्टोरी आफ़ सान माइकल” में मुस्तग़रिक़ हैं। “स्टोरी आफ़ सान माइकल” मुर्शिद की ताज़ा तरीन दरियाफ़्त थी। फ़रमाया, “मौलाना इससे बेहतर किताब मैंने तो आज तक नहीं पढ़ी।” लेकिन बाद में हम इस तरह के ग़ुलू के आदी हो गए। मुर्शिद का अंदाज़ ही ये था। उनके मुताला की किताबें मुंतख़ब तो होती ही थीं, बस जो किताब शुरू करते, उसके इश्क़ में मुब्तला हो जाते। “स्टोरी आफ़ सान माइकल” से पहले टॉलस्टॉय की “वार एण्ड पीस” दुनिया की बेहतरीन किताब थी और उससे पहले हेक्सले की “एलिस इन ग़ाज़ा।”

    हमने पूछा, “आप दफ़्तर में तो नहीं तशरीफ़ ले जाएंगे।” बोले, “मौलाना मुझे तो आप छुट्टी ही दे दें। मैं चाहता हूँ, मगर हाँ देखिए कोई दस बजे के क़रीब जीप भेज दीजिएगा। ज़रा रेफिल्ज़ लाइब्रेरी का चक्कर लगा आऊँगा। मुम्किन है थोड़ी देर को दफ़्तर में भी निकलूं।”

    हमारा दफ़्तर सेसिल स्ट्रीट में एक इमारत की बालाई मंज़िल में था। सेसिल स्ट्रीट को सिंगापुर की फ़्लैट स्ट्रीट कह लीजिए। उस ज़माने में सिंगापुर के तमाम अंग्रेज़ी और मलाई रोज़नामे वहीं से निकलते थे। जिस जगह हम बैठते थे वो जंग से पहले एक डच तिजारती कंपनी का दफ़्तर था जो मलाया से रबड़ और मसाले बरामद और डेनमार्क से बियर दर-आमद करती थी। दफ़्तर क्या था एक वसीअ हाल था जो किसी ज़माने में पार्टीशनों से मुज़य्यन हो गया मगर जापानियों के चार साला तसल्लुत में उन तकल्लुफ़ात का नाम-ओ-निशान मिट चुका था। जापानी जिस इमारत में एक मर्तबा बसेरा कर गए उसके दरवाज़े, खिड़कियाँ तक ग़ायब हो जातीं। सागवान की बेश-बहा अलमारियों को तोड़ कर चावल उबालने के लिए चूल्हा सुलगा लेना उनके लिए कोई ग़ैर-मामूली बात थी। अल-ग़रज़ हमारा दफ़्तर बिल्कुल नंग-धड़ंग क़िस्म का दफ़्तर था। जिसके चोबी फ़र्श पर भारी भरकम फ़ौजी बूट हर वक़्त एक ज़लज़ला बपा किए रखते थे। अभी दस बज कर कुछ मिनट ही गए थे कि उस ज़लज़ले की लरज़ और गरज में एक नई शिद्दत पैदा हो गई और हम समझ गए कि मुर्शिद तशरीफ़ ले आए। मोटी मोटी किताबों का एक “दो बग़ल भर पुलंदा” रैक में फेंका, टोपी उतारी, सिगरेट मुंह में उड़ेसी और माचिस खटखटाते हुए बैठ गए। हम जानते थे कि मुर्शिद अख़बार से जुदाई ज़्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे। मुर्शिद की नज़रों में हम सब जाहिल थे। कोई ज़रा कम, कोई क़द्र-ए-ज़्यादा। अख़बार वो बिल्कुल हमारे हाथों में कैसे छोड़ सकते थे? चुनांचे आते ही जाइज़ा शुरू हो जाता,

    “मौलाना लाइए तो इधर, ये आप क्या लिख रहे हैं। मौलाना ये कोई सुर्ख़ी तो हुई। हमें तो यही बताया गया था कि ख़बर की सुर्ख़ी में पहली सतर जुमला फ़िऐलिया ख़बरिया होना चाहिए। आपको शायद इनसे तआरुफ़ हो लेकिन मौलाना! मुब्तदा और ख़बर, मुज़ाफ़ और मुजाफ़ इलैह में एक बहुत क़रीबी रिश्ता होता है। और... भई मुहरम अली, मैं आपसे अर्ज़ कर चुका हूँ कि आप हर सुबह क़ातिबों के क़लम ज़रूर देख लिया करें। कल की सुर्ख़ियाँ तो एक दूसरे को खाने को दौड़ रही थीं। हमीद साहब “नून” का दायरा बनाने की मश्क़ अगर आपने लग कर चार पांच बरस कर ली तो आप “नून” बना लिया करेंगे। फ़िलहाल तो आपका “नून” फ़िरोज़ ख़ां “नून” का “नून” मालूम होता है।”

    तारीफ़ के मुआमले में मुर्शिद शक़ावत की हद तक सख़्त थे। कुछ तो इसलिए कि दूसरों को नापते जांचते वक़्त शायद नादानिस्ता दूसरों का मवाज़ना अपने साथ कर जाते थे और ज़ाहिर है कि मवाज़ना उनसे हो तो तारीफ़ के क़ाबिल कौन निकले? फिर उन्हें ये ख़्याल भी था कि इल्म-ओ-अदब से ताल्लुक़ रखने वाले आज कल के नौजवानों की बरख़ूद ग़लती पहले ही तश्वीशनाक सूरत इख़्तियार कर चुकी है, उन्होंने तारीफ़ कर दी तो मबादा दिमाग़ भी ख़राब हो जाए। वो हैरान होते थे कि ये कैसा दौर गया है कि लोग क़वाइद के इब्तिदाई उसूल जाने बग़ैर, अरबी-ओ-फ़ारसी की तहसील के बग़ैर, असातिज़ा के कलाम का मुताला किए बग़ैर, शे’र की तहज़ीब और उसका मिज़ाज समझे बग़ैर, मुसन्निफ़ और शायर बन बैठते हैं। मस्त क़लंदर में एक अफ़साना छप गया, चलो अफ़साना निगार बन गए। “फुलझड़ी” ने एक ग़ज़ल शाए कर दी, लीजिए शायर हो गए। फिर तहसीन बाहमी के हलक़े क़ाइम कर के जहालत के हिसारों में क़ैद हो कर बैठ गए।

    एक मर्तबा मुझे भी मज़ाहिया कालम लिखने का शौक़ पैदा हुआ था। पहले रोज़ कालम मुर्शिद को दिखाया। कालम पर निगाह जमाते सिगरेट से सिगरेट सुलगाते गए। पढ़ चुके तो सिगरेट के कश बीचों बीच एक मुबहम सी “हूंह” कह कर काग़ज़ मुझे दे दिया। मुँह लटकाए हुए मैं वापस अपनी जगह पर बैठा। दूसरे रोज़ पूछते हैं, “मौलाना वो अपना कालम आपने क्या किया, आज के अख़बार में तो नहीं है।” मैंने अर्ज़ किया, “फाड़ कर फेंक दिया था।” फ़रमाया, “दे देते क्या हरज था। और लग़वियात भी तो छपती रहती हैं।” मुर्शिद की ज़बान से ये भी गोया हौसला-अफ़ज़ाई के कलिमात थे। उसके बाद कभी-कभार मैं कालम लिख कर मुर्शिद के पास ले जाता और उनसे “हूंह” वसूल हो जाती जो कालम की इशाअत की इजाज़त भी होती।

    एक रोज़ तो उन्होंने तारीफ़ की हद ही कर दी। इरशाद हुआ, “मौलाना अगर आप मेहनत करें तो मुम्किन है एक रोज़ आपको कालम लिखना जाए। आपको ये बहुत बड़ा एडवान्टेज है कि आप अनपढ़ हैं इसलिए आप फ़ुलां या फ़ुलां के उस्लूब नक़ल करने के बजाए ख़ुद अपनी सीधी-सादी ज़बान में बात कह जाते हैं। ये तहरीर की बड़ी ख़ूबी होती है। निगारिश की अपनी तर्ज़ इसी से बनती और निखरती है।” इन दो जुमलों के अलावा मुर्शिद के मुँह से कभी और कोई तौसीफ़ी कलिमा सुनना नसीब हुआ, अगरचे पस-ए-पुश्त वो अपने शागिर्दों की थोड़ी बहुत तारीफ़ कर दिया करते थे।

    मुर्शिद के साथ काम करना तलवार की धार पर चलना था। मामूली से मामूली ग़लती को अपने उस्लूब-ए-तंज़ की ताज़गी के साथ वो महीनों तर-ओ-ताज़ा रखते। ये नामुमकिन था कि किसी रोज़ वो काम से मुतमइन हो जाएं या खुल कर शाबाश दे जाएं। मेयार के मुआमले में वो क़दम क़दम पर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना जालिब और नसीर हुसैन ख़्याल का हवाला देते। ज़मीर की राय थी कि अगर मौलाना आज़ाद, मौलाना जालिब और नवाब ख़्याल भी उनके स्टाफ़ में होते तो उनका मुरत्तब किया हुआ अख़बार मुर्शिद के मेयार पर शायद ही पूरा उतरता। मुर्शिद के साथ काम करते हुए एक अजीब सी घुटन तारी रहती थी मगर उनके जाने के बाद ही महसूस हुआ कि इस घुटन से हमने कितना कुछ सीखा और उनकी नज़र अपने पेशे में हमारे क़द-ओ-क़ामत को कितना ऊँचा ले गई थी। इल्म-ओ-फ़न पर उनका अपना अंदाज़ तालिब इल्माना था। अपने आप उन्होंने कभी फ़ारिग़-उत-तहसील नहीं समझा। वो हमेशा, हर वक़्त, इल्म के इक्तिसाब में मसरूफ़ रहे। कहा करते, “अख़बार-नवीसी करते पच्चीस बरस हो गए हैं लेकिन यहाँ फ़ौज में कर और पब्लिक रिलेशन्ज़ के अपने साथी अंग्रेज़ सहाफ़ियों के काम को देख कर सहाफ़त के कई गुर अब समझ में आए हैं।” फ्रैंक-ओन के आप बड़े मद्दाह थे। फ्रैंक ओन उन दिनों बर्तानवी फ़ौजों के अख़बार “सनी आक” का एडिटर यानी अंग्रेज़ों का चराग़ हसन हसरत था। आजकल वो ग़ालिबन बर्तानिया के सबसे कसीर-उल-इशाअत रोज़नामा “डेली मेल” का एडिटर है।

    सिंगापुर में “दोअलफ़कीर” किताबों की एक बड़ी दुकान थी जिसके मालिक एक मद्रासी मुसलमान थे। मद्रास में अब “दोअलफ़क़ीर” नाम आम सुनने में आता है। पता नहीं “दोअलफ़कीर”... अब्दुल फ़क़ीर ही का मुख़फ़्फ़फ़ था या ज़ुल्फ़िक़ार की मालाबारी शक्ल। मुर्शिद उसी तजस्सुस में दो एक मर्तबा उस दुकान पर गए और फिर ये मामूल बन गया कि दफ़्तर से वापसी पर वहाँ ज़रूर रुक जाते। सिंगापुर की मर्तूब आब-ओ-हवा में सारी दोपहर काम करने के बाद हमें घर जाने की जल्दी होती मगर मुर्शिद हैं कि दुकान में खड़े एक शेल्फ़ से दूसरे शेल्फ़ और दूसरे से तीसरे की तरफ़ खिचे चले जा रहे हैं। किताबों की दुकान के अंदर जा कर वो बाहर निकलने का रास्ता ही भूल जाते। एक एक किताब से ताक झांक हो रही है। उधर हम दरवाज़े पर खड़े या जीप में बैठे उन्हें कोस रहे हैं। बा’ज़-औक़ात हम उन्हें उतार कर ख़ुद चुपके से फ़रार हो जाते और जीप वापस भेज देते। मुर्शिद को इस पर बड़ा दुख होता। इसलिए नहीं कि हमने उनका इंतज़ार क्यों किया, इसलिए कि उनके साथ इकट्ठे रहने और काम करने के बावजूद हम इतने कोर ज़ौक़ और बेहिस क्यों थे कि किताबें क़तार दर क़तार और मंज़िल बा-मंज़िल रखी हैं मगर हम मेस की तरफ़ दौड़ रहे हैं। मुर्शिद का बस चलता तो वो मेस के बजाए “दोअलफ़कीर” या किताबों की किसी दूसरी दुकान में बिस्तर ला डालते।

    दफ़्तर से मुर्शिद कभी गैर-हाज़िर नहीं हुए। वैसे इरादा उन्होंने कई मर्तबा किया। बा’ज़-औक़ात महज़ इस ख़्याल से कि यूनिट का अफ़सर कमानडिंग होने की वजह से उनमें और दूसरों में आख़िर फ़र्क़ ही क्या हुआ? उनसे आख़िर कौन सवाल कर सकेगा कि आप दफ़्तर क्यों नहीं आए? मगर फिर दफ़्तर के बग़ैर जी भी लगता। एक दो घंटे के बाद टेलीफ़ोन आता कि जीप भेज दो। दफ़्तर आए और कोई चीज़ लिखने बैठ गए। एक दफ़ा उर्दू के शायरों के तज़्किरे का एक सिलसिला अख़बार में शुरू कर दिया और किसी किताब या हवाले की मदद लिए बग़ैर बीसियों शोअरा भुगता दिए। जिन शायरों का हम में से किसी को नाम भी याद था, उनकी तारीख़-ए-पैदाइश और तारीख़-ए-वफ़ात ही नहीं, बल्कि उन तारीख़ों में इख़्तिलाफ़ात की बहस, उनके कलाम की खुसुसियात और चीदा चीदा अशआर यूँ क़लमबंद करते जाते जैसे कहीं से नक़ल कर रहे हों।

    क़लम और ज़बान पर मुर्शिद का जितना ज़ोर चलता था ज़िन्दगी के दूसरे मसाइल उतने ही उनके क़ाबू से बाहर थे। किसी इरादे की तकमील उनसे नहीं हो सकी। वैसे जनाब के इरादे भी नाक़ाबिल-ए-अमल होते। मसलन वही बाली के सफ़र का इरादा लीजिए। जिसकी तरफ़ सरसरी सा इशारा ऊपर चुका है। उस ज़माने में बाली का सफ़र उतना ही आसान था जितना कि पिकनिक पर रावलपिंडी से वाह तक चले जाना है। एयर फ़ोर्स के हवाई जहाज़ चारों तरफ़ भागे फिरते थे और पब्लिक रिलेशन्ज़ का नाम हर सफ़र के लिए खुल जा सिम सिम के मानी रखता था। लेकिन मुर्शिद भला अवामुन्नास की तरह सफ़र क्यों करते? मुर्शिद के बाली के सफ़र का तसव्वुर ये था कि ज़मीर उनके साथ हो। कुछ पैदल, कुछ एक्कों पर और कुछ टट्टुओं पर वो एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचें। खाने का वक़्त जहाँ जाए पड़ाव करके वहीं चूल्हा रौशन किया जाए। एक आदमी लकड़ियाँ चुन रहा हो, दूसरा देगची मांझ रहा हो और पगडंडी के किनारे मुर्ग़ी भूनी जा रही हो। इस तरह का एक और शायराना इरादा उनका ये था कि सिंगापुर से दो-चार मील पर एक छोटा सा जज़ीरा वो पट्टे पर ले लें और बाक़ी ज़िन्दगी वहाँ मुताला-ओ-तस्नीफ़ में गुज़ार दें। घंटों इस स्कीम का ज़िक्र अज़कार रहता। एक दफ़ा मैंने निहायत ही ग़ैर शायराना सवाल कर दिया कि इस ग़ैर-आबाद जज़ीरे पर बसर-औक़ात की क्या सूरत होगी। फ़रमाया, “भई ये जज़ीरे तो अल्लाह-तआला ने जन्नत के नमूने पर बनाए हैं कि फ़िक्र-ए-रोज़गार का वहाँ गुज़र तक नहीं है। इस मिट्टी में आप धान की मुठ्ठी उठा कर फेंक दें और दूसरे महीने फ़सल लपेट लें। खाने के लिए मुर्ग़ियां पालिये। फिर नारियल हैं कि आपके लिए अक्ल-ओ-शर्ब के क़ाब सर पर उठाए खड़े हैं। सुबह सुबह एक कश्ती में बैठ गए और कुछ ताज़ा ताज़ा नौ नौ मछली पकड़ लाए। मौलाना इंसान को और क्या चाहिए?” मुर्शिद दर-अस्ल अपनी ज़ात में एक वज़ा और एक तहज़ीब के सिम्बल थे। लोग कहते हैं मौलाना चराग़ हसन हसरत का नाम हमेशा ज़िंदा रहेगा, उनका जसद-ए-फ़ानी ख़त्म हो गया मगर उनका नाम कभी ख़त्म होगा। मुम्किन है ये सब दुरुस्त हो लेकिन हमें इसमें तसल्ली का कोई सामान नहीं मिलता। हसरत का नाम ज़िंदा रह सकता है मगर हम जानते हैं हमारा मुर्शिद अब यहाँ नहीं है और उसके साथ ही अदब-ओ-फ़न और तहज़ीब-ओ-वज़ादारी का एक पूरा दौर तारीख़ के एक मोड़ के उधर ओझल हो गया है। मकतब ही रहे तो अब कौन होगा जो घंटों इस तहक़ीक़ में लगा रहे कि जूँ जूँ के बाद तूँ तूँ कहा जाता है तो क्यों कहा जाता है। आज किसी लिखने वाले की तहरीर में मुहावरे या ग्रामर की किसी ग़लती की तरफ़ इशारा किया जाए तो जवाब मिलता है कि जनाब मैं तो उसको उसी तरह दुरुस्त समझता हूँ। मुर्शिद ज़रा से इश्तिबाह पर सनद के लिए परेशान हो जाते थे। “सालिक साहब फ़ुलां मुहावरे के मुताल्लिक़ कुछ उलझन सी लाहक़ हो रही है। कुछ याद पड़ता है कि मुंशी दयाशंकर नसीम ने इस मुहावरे को इस तरह बाँधा है मगर अब वो मक़ाम ज़ेहन से उतर गया है। आपके ज़ेहन में तो कोई सनद होगी?” लेकिन मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गया, आइए फिर सिंगापुर की तरफ़!

    दफ़्तर में मौलाना के चेहरे पर मुसलसल ख़ुशूनत सी तारी रहती थी जिसकी वजह से दफ़्तर के औक़ात में उनसे खुल कर बात करने की जुर्रत कोई करता। उस वक़्त वो हसरत साहब बल्कि बा’ज़-औक़ात “सर” तक हो जाते थे। लेकिन दफ़्तर से उठते ही सब हिजाबात उठ जाते और वो हसरत साहब से उतर कर “मुर्शिद” हो जाते। जीप की अगली नशिस्त में जनाब फैल जाते और पिछली नशिस्त में जावेद, इनाम क़ाज़ी, ज़मीर और मैं। अब फ़िक़रे पर फ़िक़रा चुस्त हो रहा है, बात में से बात निकल रही है। रास्ते में इस बे-तकल्लुफ़ी से बोलते कि सिंगापुर के ट्रैफ़िक के तमाम शोर-ओ-ग़ुल के बावजूद पटड़ी पर चलते हुए रहगीर उनकी बात सुन सकते थे। कई दफ़ा ऐसा हुआ कि किसी वाक़िफ़कार ने कोई ऐसा इन्किशाफ़ कर दिया जिस पर ग़ुस्सा, नदामत, ताज्जुब या कोई और मुनासिब रद्द-ए-अमल जो होता वो तो होता ही था, सबसे ज़्यादा कोफ़्त इस बात पर होती थी कि ‘क़ौम’ का ये क़िस्सा बाहर कैसे पहुँच गया। बाद में पता चलता, “अरे भई कल जब तुम्हारी जीप गुज़र रही थी। मैं ब्रास रोड पर ‘कौन वाह’ में खड़ा तस्वीरें देख रहा था कि हसरत साहब की आवाज़ ने चौंका दिया और फिर जो कुछ वो फ़रमा रहे थे उसने और भी...” अल-ग़रज़ दफ़्तर से बाहर क़दम रखते ही मुर्शिद कुछ और हो जाते मगर दास्तान का ये हिस्सा ज़मीर से सुनिए कि वो इस मुआमले में “माहिर-ए-मुर्शिदियात” है।

    दफ़्तर में मेरा उनका वास्ता कुछ वैसे कम था कुछ मैं इस वास्ते को और भी कम रखता था। इस “वास्ते” से बस ये समझिए कि कुछ ख़ौफ़ ही आता था, मुर्शिद जब आवाज़ देते, दिल दहल जाता। इलाही ख़ैर! मालूम कमबख़्त कौनसा मुहावरा उल्टा जा पड़ा है? किस रोज़ मरे को तकलीफ़ पहुँच गई है? कहीं कोई शतर गुर्बा तो नहीं पकड़ा गया? किसी जुमले की नशिस्त तो बर्ख़ास्त नहीं हो गई, कोई बंधने वाला ख़्याल खुल तो नहीं गया? ख़ुदा मालूम तज़्कीर-ओ-तानीस का कौनसा शाख़साना उठने वाला है? हमें मुर्शिद के सामने अपनी जहालत के एतिराफ़-ओ-इक़रार में क्या ताम्मुल हो सकता था। ताहम नौजवानों की पूरी मानवी नस्ल को अपने सामने तख़्तादार पर खिंचते हुए देखने से हम कतराते ज़रूर थे। हमें मुर्शिद की डाँट से ज़्यादा उनकी मायूसी-ओ-आज़ुर्दगी का डर था। वो गाँधी जी की तरह दूसरों को सज़ा देते हुए अपने आपको सज़ा देने लगते थे।

    मैं मुर्शिद की शामों और रातों का अर्दली था। वाक़िया ये है कि वो दिनों की बनिस्बत अपनी शबों में कहीं ज़्यादा ज़िंदा-ओ-ताबिंदा नज़र आते थे। दिन को तो वो अक्सर एक निहायत वाहियात से खोल में, जिसको उन्होंने अपने शख़्सियत के ऊपर मंढ रखा था, सिकुड़ कर बैठे रहते थे। बा’ज़-औक़ात उनका रवय्या निहायत रूखी फीकी सर्द-महरी से जा मिलता। हमने बारहा ये तमाशा देखा कि कोई मुलाक़ाती पास बैठा है मगर मुर्शिद सिगरेट का टिन उसके सामने रखकर ख़ुद खोल में छुपे बैठे हैं। वो ग़रीब पशेमान हो कर उठने लगा तो मुर्शिद जैसे चौंक कर बोले, “हूँ, तशरीफ़ रखिए मौलाना, आपसे तो अभी बहुत सी बातें करना हैं।” वो उठकर बैठ गया तो मुर्शिद फिर ग़ायब। दर-अस्ल उनके अपने अंदर इतना कुछ था कि बाहर देखने की उन्हें फ़ुर्सत थी ख़्वाहिश। अलबत्ता शाम को जब आफ़ताब ग़ुरूब होता तो ये आफ़ताब तुलूअ हो जाता। उनकी आदत थी कि दफ़्तर से आने के बाद कोई किताब सीने पर रखकर थोड़ी देर के लिए सो जाते। सर-ए-शाम बेदार होते, ग़ुस्ल करते, लिबास बदलते। छुट्टी का दिन होता तो सिरे से उठते ही उस वक़्त, शेव भी शाम ही को बनाते। उनके लिए जाग कर सोना जितना मुश्किल था, सो कर जागना उससे ज़्यादा मुश्किल था और जाग कर फिर कहीं बाहर जाने के लिए तैयार होना तो गोया क़तरे का गुहर होना था। साफ़-सुथरा लिबास पहनने का शौक़ ज़रूर था मगर उस शौक़ को इतनी अहमियत भी नहीं दे रखी थी कि लिबास ख़ुद पहनना भी पड़े। सिगरेट, किताब और शराब के अलावा वो किसी शैय को भी कोई ख़ास अहमियत देते थे। फ़ौजी वर्दी की नोक पलक के बारे में सख़्त लापरवा थे। मगर चूँकि बड़ा जरनैली क़द काठ पाया था इसलिए जो चीज़ जिस तरह पहन लेते, सज जाती। वो तैयार होते नहीं थे, तैयार कराए जाते थे। उनका बेटमैन इनायतुल्लाह जिसको वो अल्लामा कहते थे, बेगम हसरत पर तहसीन-ओ-आफ़रीन भेजते हुए अक्सर कहा करता था, “मैं तो साहब को बच्चों की तरह पाल रहा हूँ।”

    मुर्शिद तैयार हो कर बैठते तो पूरी ‘क़ौम’ उनके कमरे में जमा हो जाती। मेस से मुल्हिक़ बड़ी आला नशिस्त-गाह मौजूद थी लेकिन वहाँ जाकर बैठने का सवाल ही पैदा होता था कि मुर्शिद का बस होता तो वो खाना भी उसी मेज़ पर खाते जिस पर समरसट माहम, जेम्ज़ जोइस, अज़्रा पाऊंड और बालज़ाक वग़ैरा के दोश बदोश हजामत का सामान, ऐनक और घड़ी, सिगरेट और माचिस, क़लम और काग़ज़, मेदे के अंग्रेज़ी चूरन, मोज़े और छोटी मोटी दर्जनों दूसरी चीज़ें पड़ी रहती थीं। “महफ़िल-ए-नूरानियाँ” उसी मेज़ के गिर्द जमती। मुर्शिद उस वक़्त अपने आपको खोल से निकाल कर गोया मेज़ पर रख देते। उस वक़्त उनके चेहरे की शगुफ़्तगी और घनी गुनजान मूँछों में से फूटकर कान की लवों तक फैलती हुई एक दिल-आवेज़ मुस्कुराहट देखने की चीज़ होती थी। शाम हुई और मुर्शिद ने अपना मख़सूस नारा-ए-मस्ताना बुलंद किया,

    “ज़रा ख़ानसाहब को आवाज़ देना।”

    ये ख़ानसाहब पूरी यूनिट के क्वार्टर मास्टर थे जो अमलन मुर्शिद ही के लिए वक़्फ़ हो कर रह गए थे। वो बेचारे सुबह से उस आवाज़ के मुंतज़िर होते और आवाज़ सुनते ही मेज़ को कारगह-ए-शीशा गिराँ बना कर रख देते। मुर्शिद की “महफ़िल-ए-शबीना” की पहली मजलिस डिनर तक जारी रहती और डिनर वो ग्यारह बजे से पहले शाज़ ही खाते।

    ये “महफ़िल-ए-शबीना” “ज़रा ख़ानसाहब को आवाज़ देना” से शुरू हो कर उमूमन इस मक़ाम पर ख़त्म होती जहाँ या तो हलक़ से कोई आवाज़ निकल ही सकती या लोग अपने आपको आवाज़ें देने लगते। मुर्शिद को अपने दौर के किसी शायर का कोई शे’र शायद ही याद हो मगर असातिज़ा क़दीम के बिला मुबालिग़ा हज़ारों अशआर सीने में महफ़ूज़ थे। बिलउमूम वो दाग़ से शुरू होते फिर जूँ-जूँ कैफ़ बढ़ता जाता तूँ तूँ ग़ालिब बेदिल से होते हुए, उर्फ़ी-ओ-नज़ीरी सा’दी हाफ़िज़ की तरफ़ ऊपर ही ऊपर चढ़ते जाते। दूसरों के शे’र पढ़ने में उन्हें जितनी राहत होती अपने शे’र सुनाने में उतनी ही वहशत होती। हम इसरार करते तो लाहौल पढ़ कर टाल देते। लेकिन “महफ़िल-ए-शबीना” के आख़िरी रसीले लम्हात में हथियार डाल देते औरे फिर एक निहायत पुरसोज़, खोए खोए, डूबते उभरते तरन्नुम के साथ, जिसमें मारवा-ए-सुख़न भी एक बात होती थी, ढाई तीन तीन शे’रों की दो-चार ग़ज़लें सुना देते। उनकी मशहूर ग़ज़ल “आओ हुस्न-ए-यार की बातें करें” हमारा “क़ौमी तराना” थी जिसके बाद मुर्शिद हुस्न-ए-यार की बातों से आगे निकल कर ख़ुद “आस्तान-ए-यार” की तरफ़ चल पड़ते।

    “हाउ-हू” की ये महफ़िलें, मुर्शिद के क्लासिकी मज़ाक-ए-अदब, उनकी वसीअ मालूमात, दिलनशीं ज़राफ़त, शुस्ता-ओ-बरजस्ता बज़्लासंजी, और बरमहल आला अशआर के तरश्शोह के बाइस एक सदाबहार दबिस्तान-ए-इल्म-ओ-दानिश का दर्जा रखती थीं। बातों बातों में हम वो कुछ सीख जाते जो बरसों के बाक़ायदा इक्तिसाब से भी शायद ही सीख सकते। बहस के मुआमले में उनका मुआमला ये था कि इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है। चुनांचे उन्हें छेड़ने के लिए हम कोई ग़लत नज़रिया कोई मुतनाज़े फीह मुहावरा, कोई भोंडा उस्लूब-ए-बयान, शेरशाह सूरी का ग़लत साल-ए-जुलूस, शिबली के माख़ज़ात, सीमाब अकबराबादी का कोई शे’र। ग़रज़ ये कि कोई सी बात मिसरा-ए-तरह बनाकर छोड़ देते और मुर्शिद मशरिक़-ओ-मग़रिब की वुसअतें समेट कर देखते देखते मालूमात का एक कुतुबमीनार खड़ा कर देते। किसी लफ़्ज़ की सेहत के दर्पे हो गए तो उर्दू, फ़ारसी असातिज़ा के यक मुशत पंद्रह बीस अशआर गोया एक दूसरे से बंधे हुए चले रहे हैं। क़दीम असातिज़ा में से वो ख़ुदा मालूम कहाँ कहाँ से ऐसे ऐसे गुमनाम लेकिन जय्यद शोअरा को ढूंढ निकालते जिनको जानना अदब को जानने के लिए लाज़िमी है मगर जानता कोई नहीं। उर्दू शायरी में वो हसरत मोहानी और इक़बाल के बाद किसी शायर से कोई सरोकार रखते थे। जिन शोअरा का कलाम नज़र से गुज़रता था या जिनको ज़ाती तौर पर जानते थे, मुर्शिद ने उनको सिर्फ़ दो दर्जों में तक़सीम कर रखा था। सूझ-बूझ का शायर और बकवास। किसी लफ़्ज़ के हसब नसब का मसला दरपेश है तो चराग़ लेकर मिस्र-ओ-यूनान के अंधेरों में उतर जाते और अरब-ओ-अजम, अफ़्ग़ानिस्तान-ओ-कश्मीर से होते हुए जब मुराजअत फ़रमाते तो तुर्की-उल-अस्ल, अरबी-उल-नस्ल, ईरानी नज़ाद और ख़ानाज़ाद अलफ़ाज़ के अलग अलग जुलूस उनके हमरिकाब होते। तारीख़ पर उबूर का ये आलम कि ग़यासुद्दीन बलबन के रिकाबदारों के नाम मअ सन्-ए-विलादत-ओ-वफ़ात सुन लीजिए। सिंकदर-ए-आज़म मक़दूनिया से चल कर जिन जिन रास्तों से होता हुआ ब्यास तक पहुँचा था, मुर्शिद उन रास्तों के एक एक पत्थर से वाक़िफ़ थे। इस्लाम के तहज़ीबी, मुआशरती असरात पर उनकी नज़र इतनी गहरी थी कि सदियों की धूप छांव के एक एक साये अलाहेदा अलाहेदा कर के दिखा देते। दूसरी तरफ़ प्राचीन, हिंदू देवमाला में भी बड़ी दूर तक पहुँचे हुए थे। अफ़सानवी देवी देवताओं के बाहमी रिश्तों नातों, झगड़ों आवेज़िशों से पूरे पूरे बाख़बर, इल्म-ए-तिब से इतना गहरा शग़फ़ कि अगर वो अदब के बजाए तिब में जा पड़ते तो शायद ज़्यादा आसूदा रहते। मज़े की बात ये कि फ़लसफ़ा हो या फ़लकियात, इस क़दर सुलझाकर बयान करते कि मौलाना सलाहुद्दीन अहमद के अलफ़ाज़ में मौज़ू को पानी करके छोड़ते। तारीख़ उनका ख़ास मज़मून था। मुर्शिद जो कुछ बोलते तारीख़ मालूम होता, जो कुछ लिखते तारीख़ बन जाता।

    मुर्शिद मौज में होते तो नुक्ता तराज़ी-ओ-अंजुमन साज़ी के लिए कोई ग़लत बात कहने की भी चंदाँ ज़रूरत होती। इस कैफ़ियत में वो सही बात के भी पुर्ज़े उड़ा देते। बिलखुसूस जहाँ ज़ाती पसंद या राय की गुंजाइश होती। मसलन अगर आप गाँधी जी की अज़मत बयान कर रहे हैं तो मुर्शिद बंदूक़ की नली गाँधी जी की तरफ़ सीधी कर देते। अगर आप गाँधी जी की मज़म्मत कर रहे हैं तो मुर्शिद अपने तरकश के सारे तीर लेकर गाँधी जी की हिमायत में सीना-सिपर हो जाते। असलियत, जहाँ तक मैं समझ चुका हूँ, ये थी कि एक अज़ीम जीनियस होने की वजह से उनकी अपनी अना का जज़्बा बड़ा क़वी था। वो बड़ी से बड़ी शख़्सियत से मरऊब होने को तैयार थे। छोटों के सामने वो जिस आजिज़ी से बिछ जाते थे बड़ों के सामने उतने ही सरकश नज़र आते। लेकिन फिर चंद शख़्सियतें ऐसी भी थीं जिनके सामने उनकी गर्दन हर वक़्त झुकी हुई मिली। अल्लामा इक़बाल और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ख़िलाफ़ वो एक लफ़्ज़ भी सुन सकते।

    दोस्तों की मुहब्बत उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सर्माया, सबसे बड़ी तस्कीन थी मगर दोस्ती करने में वो तक़द्दुम या तेज़ी के क़ाइल थे। मुद्दत तक यही खुल सकता कि वो दोस्त बनने पर आमादा भी हैं या नहीं लेकिन अंदर ही अंदर निहायत नामालूम तौर पर वो दूसरे के दिल में समा जाते और फिर दोस्ती में उनकी बेबसी यहाँ तक पहुँच जाती कि दोस्त अगर दुश्मन भी हो जाता तो वो उसे छोड़ सकते। आला-ज़र्फ़ी का ये हाल था कि वो सालिक साहब की सबसे ज़्यादा इज़्ज़त ही इसलिए करते थे कि सालिक साहब फ़न में उनके सबसे बड़े हरीफ़ थे। अहमद शाह बुख़ारी, मजीद मलिक, मौलाना सलाहुद्दीन, सूफ़ी तबस्सुम, आबिद, फ़ैज़, ताज का ज़िक्र हमेशा बड़ी मुहब्बत और शेफ़्तगी के साथ करते और हिंदुस्तान भर में बहुत कम लोगों को उनके पल्ले का आदमी समझते। नियाज़मंदों की अदबी ख़ामियों पर अंदर ख़ाने ख़ुद उन ग़रीबों को खा जाते मगर बैरूनी मा’रकों में मुर्शिद का ताक़तवर क़लम उनकी ढाल बन जाता। अपने साथ बेदिल, नज़ीरी, ज़हूरी, फ़ग़ाली वग़ैरा को भी दोस्त की कुमुक पर ले आते। दोस्तों से वो कमज़ोरी की हद तक मुहब्बत करते थे। अफ़राद-ओ-इक़दार के बारे में उनके जमे हुए नज़रियात-ओ-तास्सुबात इतने भारी पत्थर थे कि कोई दूसरा तो क्या, उन चट्टानों को वो ख़ुद भी अपनी जगह से हिला सकते थे। सिंगापुर में वो अपने लाहौर के बा’ज़ ऐसे जिगरी दोस्तों का तज़्किरा अक्सर बड़े फ़ख़्र के साथ किया करते थे जिनमें से एक दूध दही की दुकान करता था। एक लोहे के नलके नलकियां बेचता था और एक हसरत साहब से दोस्ती के अलावा सिरे से कोई काम ही करता था। वो जब उनकी बेग़रज़ मुहब्बत, बे रिया ख़ुलूस, बेलौस वाबस्तगी में अपने हुस्न-ए-बयान का जादू जगाते तो यूँ मालूम होता कि ये लोग जैसे नॉवेलों के हीरो थे जो किताबों से निकल कर लाहौर के गली कूचों में चले आए थे। बा’ज़-औक़ात मुर्शिद इशरत-ओ-आसूदगी के इस माहौल में, जो वहाँ उन्हें मयस्सर था, उन दोस्तों की याद में तड़प उठते, मग़्मूम हो जाते और मुलाज़िमत तर्क कर देने के मंसूबे सोचने लगते। उनके एक अज़ीज़ दोस्त रियाज़ शमीम (अब लेफ़्टीनेंट कर्नल) जब इत्तफ़ाक़न तब्दील हो कर सिंगापुर गए तो मुर्शिद इस क़दर ख़ुश हुए कि इस तरह बेतहाशा ख़ुश होते हमने उन्हें कभी देखा था। हफ़्तों भर मिलने वाले से रियाज़ शमीम ही का तज़्किरा चलता रहा।

    “मौलाना, सुना आपने, रियाज़ शमीम भी यहीं गए।”

    “मैं दिल्ली में था तो वो वाना से बदल कर दिल्ली गया, फिर कलकत्ते और अब मेरे पीछे पीछे यहाँ भी।”

    “आप रियाज़ शमीम से मिले हैं? ज़रूर मिलिएगा, हसीन भी है, ज़हीन भी है।”

    उनका सीना यक़ीनन आरज़ुओं और इरादों का तलातुम ज़ार होगा मगर वो अपनी आरज़ुओं, महरूमियों की कथा से दूसरों को कभी मुकद्दर करते थे। वो ज़िन्दगी के हर रूप को एक इनाम, एक फ़ैज़ान समझते थे। बहरहाल जिन दो एक आरज़ुओं की आवाज़-ए-बुलंद परवरिश किया करते रहते थे उनमें से एक सिलसिलेवार आरज़ू ये थी कि दरिया के किनारे एक माक़ूल सा घर हो, ढंग की लाइब्रेरी हो, जिसमें बैठ कर वो समर्ना से बग़दाद, बग़दाद से समर्ना की तारीख़ लिखते रहें और चंद यार-ए-जानी हों जिनके साथ शाम को ‘हाउ-हू’ रहे। ग़ालिबन ये तन्हा आरज़ू है जिसकी तकमील के लिए उन्होंने अमली इक़दाम भी किया था। पूंछ में दरिया के किनारे एक मकान बनवा लिया था, किताबों का ख़ासा ज़ख़ीरा जमा कर लिया था। मगर अफ़सोस कि हालात और ज़िन्दगी ने उन्हें वो काम करने दिया जो सिर्फ़ वही कर सकते थे।

    लाहौर शहर और इस की ज़िन्दगी से मुर्शिद को इश्क़ था। सिंगापुर कि जुनूब मशरिक़ी एशिया का पेरिस समझा जाता है, बड़ा ही जमील-ओ-ताबनाक शहर है। जंग के बाद फ़तह की मसर्रतों ने उन दिनों उसको कुछ और ज़्यादा पेरिस बना रखा था। शराब वाफ़र थी, वक़्त अपना था। ग़ालिब ने जो बात आम के बारे में कही है वही बात इस खित्ते के ज़ोहरा शमाइलों पर सादिक़ आती थी कि आम भी थे और शीरीं भी। आबाद मयख़ाने, शादाब रक़्सगाहें, ख़्वाबगूं साहिल, गाते हुए कैबरे, जगमगाते हुए क्लब, मामूर रेस्तोराँ, हैप्पी वर्ल्ड ग्रेट वर्ल्ड के तरब ख़ाने, आज़ादी, फ़ुर्सत, फ़राग़त, मुर्शिद को और क्या चाहिए था? उन्हें उस शहर से यक-गोना लगाव भी पैदा हो गया था। सिंगापुर ने उन्हें ज़िन्दगी के दो ऐसे बेहतरीन और अह्द आफ़रीं साल दिए थे कि हर बरस के थे दिन पच्चास हज़ार। मगर उसके बावजूद स्वाद-ए-रोमत-उल-कुबरा में उन्हें अपनी दिल्ली यानी लाहौर की याद हमेशा तड़पाती रही। मैं हर वक़्त साये की तरह उनके साथ लगा रहा हूँ। मुझे ऐसा कोई लम्हा याद नहीं जब वो लाहौर की याद से ग़ाफ़िल हुए हों।

    “मौलाना ये शहर बकवास है।”

    “मौलाना इस शहर की अपनी कोई शख़्सियत नहीं।”

    “मौलाना सिंगापुर को आप उठाकर फ़्रांस में भी रख सकते हैं।”

    और लाहौर के फ़ज़ाइल में,

    “मौलाना लाहौर बिजली का बटन दबाने से नहीं बन गया।”

    “मौलाना लाहौर एक तहज़ीब, एक वज़ा का नाम है।”

    “मौलाना, लाहौर, लाहौर है।”

    मुझे अच्छी तरह याद है, एक दावत में मुर्शिद एक मेजर सेठी से इतनी सी बात पर सचमुच लड़ पड़े थे कि सेठी के वालिद लाहौर की सुकूनत तर्क करके लखनऊ जा बसे थे।

    मुर्शिद की रिंद-ए-मशरबी कोई ढकी छुपी चीज़ नहीं। इतनी मामूली चीज़ है कि मेरे छुपाए छुप सके। वो ख़राबी के पूरे मानों में रिंद-ए-ख़राबात थे। उन्हें सिगरेट, किताब, शराब से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। उन्हें इस तरह देखना ग़लत भी होगा। पीने के मुआमले में वो शायरी के रिवायती बलानोश की तरह दरिया समेट कर पी जाते थे। जितनी पीते जाते हवास उतने ही रौशन होते जाते। बड़ी मुश्किल ये थी कि उनके बहकने का आसानी से पता भी तो नहीं चल सकता था। आँखें उमूमन वैसे ही सुर्ख़-ओ-मस्त रहती थीं। पाए वो यूँ कब जाते थे कि खोए जाने का सुराग़ मिल सके। अगर कोई टोकता कि मौलाना आप शायद बहक गए हैं तो जवाब मिलता, मौलाना आप बहक गए हैं। मेरा तो सर-ए-दामन भी अभी तर नहीं हुआ। फिर होशमंदी का सुबूत देते हुए तीन चार साग़र पै पै ख़ाली कर जाते। उनका बहकना अगर कुछ था तो एक निहायत मासूम सा, बड़ा इल्मी क़िस्म का बहकना था। तंज़ नोकीला हो जाता, लतीफ़े भरपूर हो जाते, अशआर की रवानी तुग़्यानी पर जाती। मासियत-ओ-बख़्शिश के मज़ामीन ज़ोर बाँध देते। जिन अशआर को वो पहले पीने का उनवान बनाते थे उन्हीं अशआर को बाद में रोने का सामान बना लेते। हमने अपनी सहूलत के लिए ये अलामत मुक़र्रर कर छोड़ी थी कि मुर्शिद जिस वक़्त लाहौर या सालिक साहब के मौज़ू पर बिला-वजह ही दूसरों से उलझने लगें तो ये समझिए कि वो बहक गए। इस मरहला पर वो ख़ान साहब को हज़ार आवाज़ें देते ख़ान साहब क़रीब फटकते।

    मुर्शिद हर शाम को जिस फ़रावानी से पीते, जिस बाक़ायदगी से रात को “शगुफ़्तन-ए-गुलहा-ए-नाज़” की सैर को निकलते और फिर जिस यकसूई के साथ उन नज़ारों में उलझ कर रह जाते थे, उसके बाद उनसे ये तवक़्क़ो रखना कि उन्हें अपने घर-बार, बीवी-बच्चे का भी कुछ ख़्याल होगा, एक ज़्यादती की बात थी। बज़ाहिर उनकी वारफ़्तगी से यही मालूम होता था कि,

    दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं

    लेकिन ये सब क़यास ही क़यास था। मुर्शिद की शख़्सियत का सबसे हैरत-अंगेज़ पहलू यही है कि वो अंदर ही अंदर एक निहायत जमे हुए घरेलू क़िस्म के इंसान थे। बड़े शफ़ीक़ बाप, निहायत रफ़ीक़ उलक़ल्ब शौहर, अपनी सारी मावराइयत के बावस्फ़ उनका दिल हर वक़्त लाहौर या पूंछ में अपने बीवी-बच्चे के साथ धड़कता रहता था। घर से ख़त आने में दो रोज़ की ताख़ीर हो जाती तो परेशान हो जाते। जवाबी तारों का सिलसिला बाँध देते।

    बाज़ार की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त से उन्हें सख़्त वहशत होती थी। उनकी ज़रूरत की अक्सर चीज़ें हमीं लोग ख़रीदा करते। मगर जब कभी ख़ुद बाज़ार में निकलते तो ज़हीर-ओ-ज़ैनब के लिए ज़रूर कोई कोई तोहफ़ा ख़रीद लेते। ज़हीर को इतने लम्बे लम्बे और प्यारे प्यारे ख़त लिखते कि अगर उतना वक़्त मुस्तक़िल तस्नीफ़ की तरफ़ दिया होता तो वो “बग़दाद से समर्ना” तक वाली तारीख़ लिख डालते। एक मर्तबा आप वहाँ ज़रा एक बाक़ायदा इश्क़ में मुब्तला हो कर अक़्द-ए-सानी पर आमादा हो गए थे। महीनों तग-ओ-दौ होती रही। सैंकड़ों डालर के तहाइफ़ लड़की वालों की नज़र कर दिए। मगर जब अक़्द की साअत क़रीब आई तो ज़हीर याद गया, ज़ैनब याद गई। पूंछ याद गया और आख़िरश अपने होने वाले मुअज़्ज़िज़ ख़ुसर को ये पैग़ाम भिजवा दिया कि मौलाना मुझे माफ़ कर दो, मुझ पर लानत भेजो, मुझे भूल जाओ।

    मुर्शिद की गश्त-ए-शबीना का अंदाज़ भी कुछ अपना ही था। मग़रिबी मौसीक़ी से उन्हें हौल आता था। फ़िल्म देखने को वो तज़ी-ए-औक़ात समझते। अलबत्ता चीनी, मलाई, इंडोनेशी ओपेरों को शौक़ से देखते। लेकिन किसी एक मक़ाम पर देर तक बैठे रहना उनके लिए क़रीब क़रीब नामुमकिन था। होता ये था कि किसी इब्तिदाई गीत पर या मंज़र पर ख़ुश भी हो लेते, सर भी हिला दिया, साथ साथ कल्चर की बहस भी उठाते रहे मगर फिर दस पंद्रह मिनट के बाद उकता भी गए।

    “मौलाना ये तो बकवास है। आइए कहीं और चलते हैं।”

    उसके बाद कहीं और, फिर कहीं और... और जब तक शहर का आख़िरी ओपेरा बंद हो जाता। कहीं और का सिलसिला बंद होता। रेस्तोरानों में बैठने का भी यही हंजार था। एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में। कहीं दो मिनट को बैठ जाते, कहीं बस झांक कर लौट आते। कहीं लोग बहुत ज़्यादा होते कहीं बहुत कम होते। हर रात क़रीबन सारा शहर घूम कर लौटते। वो थोड़ी सी मोहलत में बहुत कुछ देख लेना चाहते थे, कैसी भी जगह हो, एक मक़ाम से बहुत जल्द उनकी तबीयत भर जाती थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि ज़िन्दगी से भी शायद इसीलिए वो बहुत जल्द उकता गए।

    सैर-ओ-सफ़र में कभी-कभार वो बेमक़्सद-ओ-बेइख़्तियार से हो कर जैसे नदी में कोई संग-ए-रवां आवारा... घूमने के भी बड़े हामी-ओ-मुबल्लिग़ थे।

    “मौलाना इन नपी तुली शाहराहों में धरा ही क्या है।”

    “मौलाना ज़िन्दगी बड़ी बेकराँ चीज़ है।”

    “मौलाना ज़िन्दगी बड़ी बेकराँ चीज़ है।”

    “मौलाना ज़िन्दगी को आगे पीछे, शुमाल-जुनूब हर तरफ़ से सीखना चाहिए।”

    “मौलाना आइए आज हम अपने आपको शहर पर छोड़ दें।”

    और अपने आपको शहर पर छोड़ने के मानी ये होते कि वो हसरत साहब जो सुबह की सैर में भी पैदल चलते थे, घंटों शहर के दालान दर दालान क़िस्म के अक़्बी कूचों में मारे मारे फिरते। एक मर्तबा अपने आपको जज़ीरे पर छोड़ते छोड़ते हम एक ऐसे साहिली कॉमपोंग यानी गाँव में जा निकले जहाँ तक पहुँचने से पहले एक वसीअ-ओ-तवील दलदल के ऊपर तंग तख़्तों के एक झूलते लरज़ते “पुल सरात” पर से गुज़रना पड़ता था। जिन लोगों ने मुर्शिद को देखा है वो उनकी मुसीबत का अंदाज़ा कर सकते हैं। मगर ज़िन्दगी को आगे पीछे से देखने के वलवले में वो इस “पुल सरात” पर से भी गुज़र गए।

    यहाँ एक वाक़या याद गया। उन्हीं दिनों मुर्शिद के दोस्त मशहूर अदीब प्रोफ़ेसर अहमद अली हिंदुस्तान से चीन जा रहे थे। उनका जहाज़ शब के चंद घंटों के लिए सिंगापुर में रुक रहा था। मुर्शिद एक मुद्दत से उनकी राह तक रहे थे और उनके चंद घंटों के क़ियाम को पुरलुत्फ़ बनाने के लिए कोई पूरे तीन शब-ओ-रोज़ की मस्रूफ़ियत तै कर छोड़ी थी। लेकिन इत्तफ़ाक़ देखिए कि जिस शाम अहमद अली वहाँ पहुँचे हैं, मुर्शिद को सो कर जागने, जाग कर उठने, उठकर तैयार होने और फिर दो तीन साग़र बरा-ए-मुलाक़ात पीने में इतनी देर हो गई कि जब हम लोग जहाज़ पर पहुँचे तो प्रोफ़ेसर साहब शहर की गश्त पर निकल चुके थे। अब उन्हें ढूँढने का मरहला शुरू हुआ। जावेद ने कहा कि “इतने बड़े अजनबी, पुरअसरार शहर में अँधाधुंद तलाश से कौन मिल सकता है। लेकिन मुर्शिद बहुत पुर-उम्मीद थे। फ़रमाया, “क्यों नहीं मिलेगा। मुझे मालूम है अहमद अली को कहाँ होना चाहिए। मेरे भाई मैं अहमद अली को जानता हूँ। तलाश शुरू हुई तो अहमद अली को जहाँ-जहाँ होना चाहिए था, एक एक मक़ाम पर छान मारा मगर वो ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब हो गए थे। कोई बारह बजे के क़रीब मुर्शिद ये कह कर कि ज़रा ताज़ा-दम हो कर अभी फिर निकलते हैं, एक चीनी रेस्टॉरेंट में घुस गए और वहाँ जाम-ओ-मीना से मालूम क्या सरगोशियाँ हुई कि ख़यालात का धारा अहमद अली को पा सकने की रजाइयत की तरफ़ से यकबारगी अहमद अली को पा सकने की क़ुनूतियत की तरफ़ मुड़ गया। बोले,

    “मौलाना ये अहमद अली तो मिलता दिखाई नहीं देता।”

    “क्यों?” हमने पूछा।

    “मौलाना चीनियों के इस शहर में अहमद अली का मिलना नामुमकिन है। बात ये है कि सामने के रुख़ से अहमद अली भी साठ फ़ीसदी चीनी मालूम होता है और चीनियों के अंबोह में किसी चीनी से आप ख़त-ओ-किताबत तो कर सकते हैं, उसे शनाख़्त नहीं कर सकते। अब उसको जहाज़ पर ही पकड़ेंगे।”

    फिर वहीं बैठे-बैठे मुर्शिद ने जो अहमद अली की बातें शुरू की हैं कि “वो कितना प्यारा आदमी है, कितना निडर अदीब है, कितना क़ीमती दोस्त है,” तो दर्मियान में हमारी वक़्फ़ा बवक़्फ़ा याद दहानियों के बाद जब रेस्तोरान से उठकर आख़िर जहाज़ पर पहुँचे तो जहाज़ हांगकांग को रवाना हो चुका था। बाद में ख़त-ओ-किताबत से मालूम हुआ कि प्रोफ़ेसर साहब ने भी उस शब अपने आपको सिंगापुर पर छोड़ रखा था।

    मुर्शिद गो खाने से ज़्यादा पीने के क़ाइल थे। ताहम अदब की तरह खाने का भी बड़ा ही क्लासिकी मज़ाक़ रखते थे। ज़ाइक़ा तो बाद की बात थी, खाने की सूरत बुरी होती तो उस पर भड़क उठते। तबीयत मुनग़्ज़ हो जाती, इश्तिहा मर जाती। खाना खाने के बजाए खाना खाने के हक़ में तक़रीर करते। नवाबान-ए-अवध, सलातीन-ए-कश्मीर और क़ुतुब शाही अली क़ुली ख़ानों के मतबख़ों, दस्तर-ख़्वानों के मुताल्लिक़ वो जो वसीअ ज़ाती मालूमात रखते थे उन मालूमात ने मुर्शिद को इस ज़िम्न में कुछ और भी मुश्किल-पसंद बना दिया था। ज़ाइक़े और तनव्वो के लिहाज़ से कश्मीरी खाने को खानों का बादशाह मानते थे। शब देग, गोश्ताबा, कमीख़्वाना, आफ़ताब वग़ैरा कश्मीरी खानों की एक तवील फ़ेहरिस्त थी जो हमें हर खाने पर सुनना पड़ती। बारहा मुर्शिद ने शब देग ख़ुद अपने हाथ से दम करने का प्रोग्राम बनाया लेकिन देग मयस्सर सकी शब। एक मर्तबा एक चीनी लखपति की दावत पर जब कोई पच्चास कोर्सों के डिनर से साबिक़ा पड़ा जिसमें चीनी बावर्चियों ने चिड़िया की एक चोंच में तुर्श, नमकीन, शीरीं मछली तल कर सामने रख दी थी तो मुर्शिद चीनियों की अज़मत के भी क़ाइल हो गए थे मगर क़यादत का झंडा फिर भी कश्मीर ही में लहराता रहा।

    दो साल के बाद मुर्शिद 8 फरवरी 1947ई. को हमसे रुख़्सत हुए। अहबाब का एक हुजूम अलविदा कहने को साहिल पर मौजूद था। जिसमें फ़ौजी अफ़सर, सरदार, सिपाही सभी शामिल थे। मक़ामी मुलाक़ातियों का भी एक जम-ए-ग़फी़र पहुँचा हुआ था। मलाई मोअज़्ज़िज़ीन, अरब सौदागर, चीनी आर्टिस्ट और हैप्पी वर्ल्ड और ग्रेट वर्ल्ड के ख़िदमतगार एक अजनबी को रुख़्सत कर रहे थे। उनमें बहुत थोड़े थे जो अदीब चराग़ हसन हसरत की अज़मत से वाक़िफ़ थे। उन लोगों को इंसान चिराग़ हसन हसरत की मुहब्बत जज़ीरे के कोने कोने से खींच लाई थी। हमसे हमारा मुर्शिद जुदा हो रहा था। सिपाही एक ऐसे अफ़सर को रुख़्सत कर रहे थे जो अफ़सरों की नौअ ही से मुख़्तलिफ़ था। मक़ामी अहबाब उस शख़्स को अलविदा कह रहे थे जिससे मिलकर वो एशिया के एक अज़ीम मुल्क की रूह में झांक सके थे। हैप्पी वर्ल्ड के ख़िदमतगार उस मुहसिन से महरूम हो रहे थे जो चाय पिए बग़ैर भी बड़ी बाक़ायदगी, बड़ी फ़य्याज़ी से उनको टिप देता था। और जब अज़ीम “डिवीज़न शाएर” लंगर उठा कर आबनाए मलाका के खुले दहाने की तरफ़ रेंगने लगा तो हमें यूँ महसूस हुआ जैसे ज़िन्दगी के वो दो साल हमारी पूरी ज़िन्दगी पर फैल गए हों। जज़्बात के एक मुश्तर्का झटके से हर दिल बोझल, हर आँख नमनाक हो गई मगर जो शख़्स बच्चों की तरह बिलबिला कर रो पड़ा वो मुर्शिद का अर्दली अल्लामा इनायतुल्लाह था जो मुर्शिद को बच्चों की तरह पालता रहा था।

    वो अदा-ए-दिलबरी हो कि नवा-ए-आशिक़ाना

    जो दिलों को फ़त्ह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना

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