सितारा
लिखने के मुआमले में, मैंने बड़े बड़े कड़े मराहिल तय किए हैं लेकिन मशहूर रक़्क़ासा और ऐक्ट्रस सितारा के बारे में अपने तास्सुरात कलमबंद करने में मुझे बड़ी हिचकिचाहट का सामना करना पड़ा है, आप तो उसे एक ऐक्ट्रेस की हैसियत से जानते हैं जो नाचती भी है और ख़ूब नाचती है लेकिन मुझे उस के किरदार का मुताला करने का भी मौक़ा मिला है जो अजीब-ओ-ग़रीब है।
मैंने अपनी ज़िंदगी में कई औरतों के किरदार-ओ-अत्वार का मुताला किया है लेकिन हक़ीक़त ये है कि जब सितारा के हालात-ए-ज़िंदगी मुझे आहिस्ता-आहिस्ता मालूम हुए तो मैं चकरा गया, वो औरत नहीं एक तूफ़ान है और वो भी ऐसा तूफ़ान जो सिर्फ़ एक मर्तबा आके नहीं टलता। बार-बार आता है सितारा यूं मियाना क़द की औरत है मगर बला की मज़बूत है। उसने जितनी बीमारियां सही हैं, मेरा ख़याल है कि अगर किसी और औरत पर नाज़िल होतीं तो वो कभी जांबर न हो सकती। वो तबअन बहुत हौसलामंद है शायद इसलिए कि वो कसरत की आदी है।
मैंने देखा है कि सुब्ह-सवेरे उठकर वो कम अज़ कम एक घंटे तक रियाज़त करती थी और ये रियाज़त कोई मामूली रियाज़त नहीं होती थी, एक घंटा भरपूर नाचना हड्डियों तक को थका देता है मगर सितारा मुझे कभी थकी थकी दिखाई नहीं दी। अस्ल में उस में वो चीज़ जिसे अंग्रेज़ी में STAMINA कहते हैं, बदर्जा-ए-अतम मौजूद है वो थकने वाली जिन्स नहीं, दूसरे थक-हार जाएंगे मगर वो वैसी की वैसी रहेगी जैसे उसने कोई मशक़्क़त नहीं की, उस को अपने फ़न से प्यार है उसी वालिहाना क़िस्म का जो वो मुख़्तलिफ़ मर्दों से करती रही है।
मामूली डांस के लिए वो इतनी मेहनत करेगी जितनी कोई रक़्क़ासा उम्र-भर नहीं कर सकती, उस की तबीयत में उपज है वो हमेशा कोई ख़ास बात करना चाहेगी। चलती फिरती जो एक नटनी में हो सकती है उस में ज़रूरत से ज़्यादा मौजूद है वो एक सेकेण्ड के लिए भी निचली नहीं बैठ सकती उस की बोटी बोटी थिरकती रहती है।
कहा जाता है कि वो नेपाल की रहने वाली है, मुझे उस के मुताल्लिक़ हत्मी तौर पर कुछ मालूम नहीं लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि सितारा के अलावा उस की दो बहनें और थीं। ये त्रिशूल यूं मुकम्मल होता है। तारा, सितारा और अलकनंदा, तारा और अलकनंदा तो अब क़रीब क़रीब मादूम हो चुकी हैं। मेरा ख़याल है उनका नाम भी किसी को याद नहीं होगा।
इन तीन बहनों की ज़िंदगी वैसे बहुत दिलचस्प है। तारा की कई मर्दों से वाबस्तगी रही। इस हुजूम में एक शौकत हाश्मी भी हैं जो उन तक कई पापड़ बेल चुके हैं। हाल ही में उनकी बीवी पुरनिमा ने उनसे तलाक़ ली है और वो इस सिलसिले में बड़े दर्दनाक बयान दे चुके हैं। अलकनंदा कई हाथों से गुज़री और आख़िर में प्रभात के शोहरत याफ़्ता ऐक्टर बलवंत सिंह के पास पहुंची, उस के पास वो अभी तक है या नहीं इस का मुझे इल्म नहीं।
इन तीन बहनों की ज़िंदगी की रुदाद अगर लिखी जाये तो हज़ारों सफ़े काले किए जा सकते हैं। लोग मुझे कोसते हैं कि मैं फ़ुहश निगारों, गंदा ज़हन हूँ लेकिन वो ये नहीं सोचते कि इस दुनिया में कैसी कैसी हस्तियाँ मौजूद हैं, मैं उसे फ़ुहश नहीं कहता। मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि या तो कोई आदमी माहौल के बाइस मज़मोमी हरकात का मुर्तकिब होता है या अपनी जिबल्लत के बाइस।
जो चीज़ आपको फ़ित्रत ने अता की है इस की इस्लाह-ए-नफ़्सानी इलाज से किसी हद तक मुम्किन है लेकिन अगर आप इस से ग़ाफ़िल रहे हैं तो इस की ज़िम्मेदारी किस पर आइद होती है। ये ज़रा सोचने की बात है।
तारा, सितारा और अलकनंदा तीन बहनें किसी के हाँ पैदा हुईं, ग़ालिबन नेपाल के किसी गांव में वहां से वो एक एक कर के बम्बई में आएं कि फ़िल्मी दुनिया में क़िसमत आज़माई करें लेकिन ये मुक़द्दर की बात है कि सिर्फ़ सितारा का सितारा चमका जो बाक़ी दो थीं वो टिमटिमाती रह गईं।
सितारा के मुताल्लिक़ जैसा कि मैं इस मज़मून के आग़ाज़ में कह चुका हूँ, पूरी तफ़सील से लिखते हुए झिजकता हूँ, वो औरत नहीं कई औरतें है। उसने इतने जिन्सी सिलसिले किए हैं कि मैं इस मुख़्तसर मज़मून में उनका अहाता नहीं कर सकता।
अंग्रेज़ी ज़बान में ऐसी औरत को NAFOMANIC कहा जाता है। ये औरत की एक ख़ास क़िस्म है जो एक मर्द के अलावा और सैंकड़ों से तअल्लुक़ क़ायम करती है।
सितारा का मैं जब भी तसव्वुर करता हूँ तो वो मुझे बंबई की पाँच मंज़िला बिल्डिंग मालूम होती है जिसमें कई फ़्लैट और कई कमरे हों और ये वाक़े है कि वो बैक-वक़्त कई मर्द अपने दिल में बसाए रखती थी। मुझे इतना मालूम है कि जब वो बंबई में आई तो उस का ताल्लुक़ एक गुजराती फ़िल्म डायरेक्टर से क़ायम हुआ जिसका पूरा नाम मुझे याद नहीं रहा लेकिन वो डेसाई था। दुबला पतला मरियल क़िस्म का इन्सान लेकिन था बहुत ख़ूबियों का मालिक, अपने काम में काफ़ी होशियार था मगर क़िस्मत ने उस की यावरी न की। चूँकि ज़िद्दी था इसलिए जगह जगह ठुकराया गया। इस से मेरी मुलाक़ात उस ज़माने में हुई जब सरोज फ़िल्म कंपनी ज़िंदा थी लेकिन अस्ल में ज़िन्दा दरगोर थी। मेरी उस की फ़ौरन दोस्ती हो गई इसलिए कि वो फ़न शनास था और अदबी ज़ौक़ भी रखता था। इसी दौरान में मुझे मालूम हुआ कि सितारा उस की बीवी है लेकिन उस से जुदा हो गई है। डेसाई को मगर इस जुदाई का इतना रंज नहीं था उस की बातों से मुझे सिर्फ़ इतना मालूम है कि वो इस औरत से पूरा निबट नहीं सकता था।
सितारा उस ज़माने में किसी और के पास थी लेकिन कभी कभी अपने शौहर डेसाई के पास भी आ जाती थी। वो ख़ुद्दार इन्सान था इसलिए वो उस से उमूमन बे-एतिनाई बरतता था और उसे मुख़्तसर मुलाक़ात के बाद रुख़स्त कर दिया करता था।
हिंदुओं के मज़हब के मुताबिक़ कोई औरत तलाक़ नहीं ले सकती। डेसाई से सितारा की शादी हिंदू क़ानून के तहत हुई थी इसलिए अब भी वो मिसिज़ डेसाई है हालाँकि वो कई मर्दों से मुंसलिक हो कर उनसे अलाहिदगी इख़्तियार कर चुकी है। मैं ये उस ज़माने की बात कर रहा हूँ जब डाक्टर महबूब का सितारा माइल बा-उरूज था। महबूब ने उसे अपनी किसी फ़िल्म में लिया तो उस के साथ सितारा के जिन्सी ताल्लुक़ात फ़ौरन क़ायम हो गए। इस की रूदाद मेरा क़लम बयान नहीं कर सकता। सिर्फ़ बब्बू (इशरत जहां) की ज़बान ही बयान कर सकती है।
आउट डोर शूटिंग के सिलसिले में महबूब को हैदराबाद जाना पड़ा था। वहां महबूब साहब हस्ब-ए-दस्तूर बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते थे और बाक़ायदा सितारा से इश्क़ फ़रमाते थे। मैं ये सब कुछ लिखने में हिचकिचा रहा हूँ। अस्ल में सितारा एक केस हिस्ट्री है उस पर नफ़्सियात के किसी माहिर ही को लिखना चाहिए था। बंबई में एक स्टूडियो फ़िल्म सिटी था। महबूब ने ग़ालिबन इसी में अपनी कोई पिक्चर बनाना शुरू की थी। उन दिनों वहां साउण्ड रिकार्ड करने वाले मिस्टर पी. एन. अरोड़ा थे (जवाब मशहूर प्रोड्यूसर हैं) बड़े मेहनती क़िस्म के नौजवान। फ़ज़ल भाई ने जो फ़िल्म सिटी के कर्ता धर्ता था उन को विलाएत भेजा था कि वो सदा बंदी का काम सीख के आएं। इसी ज़माने में सेठ शीराज़ अली हकीम भी वहीं थे और लेबारेट्री के इंचार्ज थे। डायरेक्टर महबूब से तो सितारा का सिलसिला चल रहा था लेकिन ब-क़ौल दीवान सिंह मफ़्तून एडिटर “रियासत” दिल्ली उस का टांका पी. एन. अरोड़ा से भी मिल गया।
डायरेक्टर महबूब ने फ़िल्म ख़त्म किया तो सितारा पी. एन. अरोड़ा के हाँ बतौर बीवी या दाश्ता के रहने लगी। लेकिन इस दौरान में एक और हादिसा पेश आया। सिटी ही में या (किसी और स्टूडियो में जहां सितारा का काम कर रही थी) एक नौ वारिद अल-नासिर तशरीफ़ लाए। ये बड़े ख़ूबसूरत जवान थे। कम उम्र ताज़ा-ताज़ा डेरादून (देहरादून) से तालीम हासिल कर के आए थे। गाल सुर्ख़-ओ-सपेद थे उनको शौक़ था कि फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल हों।
जब आए तो फ़ौरन उन्हें एक फ़िल्म में रोल मिल गया। इत्तिफ़ाक़ से उस की कास्ट में सितारा भी शामिल थी जो बैक-वक़्त पी. एन. अरोड़ा, डायरेक्टर महबूब और अपने असली ख़ावंद मिस्टर डेसाई के पास आया जाया करती थी।
मालूम नहीं ये पहले की बात है या बाद की मगर सितारा की दोस्ती नज़ीर से भी हो गई जिसकी पहली दाश्ता जो कि एक यहूदन ऐक्ट्रस यासमीन थी उसे दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे गई थी। मुझे मालूम नहीं किन हालात में इन दोनों की मुलाक़ात हुई लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि उन दोनों में गाढ़ी छनने लगी। नज़ीर सितारा का फ़रेफ़्ता था और सितारा नज़ीर पर अपनी जान छिड़कती थी।
मैं नज़ीर को अच्छी तरह जानता हूँ। वो बहुत सख़्त मिज़ाज का आदमी है। वो औरत को ताबेअ रखने का क़ाइल है, औरत का ज़िक्र ही किया। मर्द भी जो उस की मुलाज़िमत में हों, उन्हें उस की गालियां और घुड़कियां सहना पड़ती हैं।
वो आदमी नहीं देव है लेकिन बड़ा मुख़लिस देव, वो मेरा दोस्त है। जब कभी मुझ से मिलता है सलाम दुआ के बजाय गालियां देता है लेकिन मैं जानता हूँ कि वो बेरिया है उस का दिल ख़ुलूस से मामूर है।
इस बेरिया और मुख़लिस आदमी ने सितारा को कई बरस बर्दाश्त किया। उस की सख़्त-गीर तबीयत के बाइस सितारा को इतनी जुर्रत न हुई कि वो अपने पुराने आश्नाओं से राह-ओ-रब्त क़ायम रखे लेकिन वो औरत जो सिर्फ़ एक मर्द की रिफ़ाक़त पर का न न रहती हो उस का क्या इलाज है। सितारा ने कुछ देर के बाद वही सिलसिला शुरू कर दिया जिसकी वो आदी थी। अरोड़ा, अलनासिर, महबूब और उस का ख़ावंद डेसाई सब ही उस के इल्तिफ़ात से मुस्तफ़ीद होते रहे। ये चीज़ नज़ीर की ख़ुद्दार तबीयत पर बहुत गिरां गुज़रती थी। वो ऐसा आदमी है कि एक मर्तबा किसी औरत से ताल्लुक़ क़ायम कर ले तो उसे निभाना चाहता है मगर सितारा किसी और ही आब-ओ-गिल की बनी थी। वो नज़ीर जैसे आदमी से भी मुतमइन नहीं थी।
मैं इस में सितारा का कोई क़ुसूर नहीं देखता। जो कुछ भी इस से सरज़द हुआ, सरासर उस की जिबल्लत के बाइस हुआ। क़ुदरत ने उस को इस तौर से बनाया है कि वो बादा-ए-हरजाम ही बनी रहेगी। कोशिश के बावजूद वो अपनी इस फ़ित्रत के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती।
यासमीन मोअतदिल औरत थी, ख़ूबसूरत, निस्वानियत का बड़ा अच्छा नमूना, मुझे अच्छी तरह याद है कि उसने जब नज़ीर से मुस्तक़िल घरेलू ज़िंदगी बसर करने का इरादा ज़ाहिर किया तो नज़ीर ने जिसे हज़ारों अश्ख़ास बहुत सख़्त-गीर समझते थे, यासमीन को इजाज़त दे दी कि वो जिस किसी के साथ शादी करना चाहती है, कर सकती है।
मेरी समझ में नहीं आता कि नज़ीर और सितारा का जिस्मानी ताल्लुक़ इतनी देर कैसे क़ायम रहा। नज़ीर से मेरी मुलाक़ात हिन्दुस्तान सेनेटोन में हुई। ये वो ज़माना था जब फ़िल्म इंडस्ट्री निहायत नाज़ुक हालत में थी। वो इस वजह से कि फाइनेंसर सट्टेबाज़ था आज लाखों के मालिक हैं दूसरे दिन दीवाला पिट रहा है।
हिदुस्तान सेनेटोन पहले सरोज फ़िल्म कंपनी थी। इस से पहले ख़ुदा मालूम उस का क्या नाम था। मैंने एक कहानी “कीचड़” के उनवान से लिखी। जब मैंने सेठ नानू भाई डेसाई को सुनाई तो उसने बेहद पसंद की। मैं समझता हूँ कि इस ज़माने में जब कि हुकूमत की तरफ़ से सख़्त क़िस्म का एहतिसाब आयद था, कोई प्रोडयूसर इस कहानी को फिल्माने की जुर्रत न करता मगर नानू भाई दिलेर आदमी था उसने कहानी ले ली मगर बाद में माली मुश्किलात दरपेश आईं तो वो मजबूर हो गया।
नज़ीर के लिए मैंने मज़दूर का एक अहम रोल लिखा था जो उस को बहुत पसंद था। जब उस को मालूम हुआ कि माली मुश्किलात के बाइस ये बाग़ी फ़िल्म नहीं बनेगा तो उसने सेठ नानू भाई डेसाई से कहा कि “आप ये कहानी मुझे दे दीजिए, मैं अपना सब कुछ बेच कर उस के फ़िल्माने पर लगा दूँगा” मगर ऐसी नौबत नहीं आई। नानू भाई को कहानी पसंद थी चुनांचे किसी न किसी तरह सरमाए का बंद-ओ-बस्त हो गया। फ़िल्म के डायरेक्टर दाद गुंजाल थे। गुजराती, फ़िल्म मुकम्मल हो कर रिलीज़ हो गया। लोगों ने इस की तारीफ़ की, पसंद किया मगर मैं मुतमइन नहीं था लेकिन इस का मेरे मौज़ू से कोई इतना ज़्यादा ताल्लुक़ नहीं। मुझे सिर्फ़ ये कहना था कि इस दौरान में नज़ीर को अपनी ज़ाती फ़िल्म कंपनी क़ायम करने की ख़्वाहिश पैदा हो गई। इसी ज़माने में यासमीन उस से रुख़स्त होने की तैयारियां कर रही थी। नज़ीर अज़म का मालिक है। उसने बहुत जल्द अपना ज़ाती फ़र्म बनाने का इरादा कर लिया चुनांचे जहां तक मेरा हाफ़िज़ा काम देता है उस का पहला फ़िल्म “संदेसा” था।
इस के बाद उसने अपना दूसरा फ़िल्म बनाया जिसका नाम ग़ालिबन “सोसाइटी” था, उस में उसने सितारा को भी कास्ट में शामिल किया और जो नतीजा हुआ, वो ज़ाहिर है कि वो दोनों एक दूसरे में मुदग़म हो गए और बहुत देर तक रहे लेकिन इस दौरान में जहां तक मैं जानता हूँ, सितारा अपने पुराने दोस्तों के हाँ भी आती जाती रही। पी. एन. अरोड़ा के पास वो अक्सर जाती थी।
मैं आपको एक दिलचस्प लतीफ़ा सुनाऊँ, मुझे बंबई छोड़ कर दिल्ली जाना पड़ा वहां मैंने ऑल इंडिया रेडियो की मुलाज़िमत इख़्तियार की। क़रीब क़रीब एक साल तक मैं बंबई की फ़िल्मी दुनिया के हालात-ओ-कवाइफ़ से ग़ाफ़िल रहा। एक दिन अचानक मैंने नई दिल्ली में अरोड़ा को देखा। हाथ में मोटी छड़ी, कमर दोहरी हो रही थी, यूं भी बेचारा मक्खनी क़िस्म का इन्सान है मगर उस वक़्त बहुत ख़स्ता हालत में था। बड़ी मुश्किल से क़दम उठा रहा था जैसे उस में जान ही नहीं। मैं टांगे में था और वो पैदल ग़ालिबन चहल-क़दमी के लिए निकला था। मैंने तांगा रोका और इस से पूछा कि “ये क़िस्सा क्या है उस का होलिया क्यूं इतना बिगड़ा हुआ है।” उसने हाँपते हुए मगर ज़रा फीकी सी मुस्कुराहट के साथ कहा। “सितारा... मंटो सितारा” मैं सब समझ गया। मेरा ख़याल है कि आपको भी समझ जाना चाहिए। अब एक और लतीफ़ा सुनिए, अल-नासिर जो अब तक बहुत मोटा और भद्दा हो गया है। जब वो शुरू शुरू में फ़िल्म सिटी आया था तो बहुत ख़ूबसूरत था, बड़ा नर्म-ओ-नाज़ुक, सुर्ख़-ओ-सपेद डेरा दोन की पहाड़ी फ़िज़ा ने उस को निखार दिया था, मैं तो यूं कहूँगा कि वो निसाइयत की हद तक ख़ूबसूरत था, उस में वो तमाम अदाएं थीं जो एक ख़ूबसूरत लड़की में हो सकती हैं। मैं जब दिल्ली में डेढ़ बरस गुज़ारने के बाद सय्यद शौकत हुसैन रिज़वी के बुलाने पर बंबई पहुंचा तो उस से मेरी मुलाक़ात मिनर्वा मोदी टॉन में हुई। वो गेट के बाहर खड़ा था। मैं हैरत-ज़दा था। गालों का गुलाबी रंग नदारद जिस्म पर पतलून ढीली ढाली। ऐसा मालूम होता था कि वो सिकुड़ गया है, निचुड़ गया है। मैंने उसे बड़े तशवीश भरे लहजे में पूछा। “मेरी जान! ये तुमने अपनी क्या हालत बना ली है।” उसने अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर सरगोशी में कहा। “सितारा... मेरी जान... सितारा।”
जहां देखो सितारा... मैंने सोचा कि ये सितारा सिर्फ़ ज़र्दियाँ पैदा करने के लिए पैदा हुई है। इधर पी. एन. अरोड़ा इंगलैंड का तालीम-याफ़्ता सदा बंद, उधर डेरादून (देहरादून) स्कूल का पढ़ा हुआ नौख़ेज़ लड़का।
अलग ले जा कर जब मैंने उस से पूरी तफ़सील पूछी तो उसने मुझे बताया कि वो सितारा के चक्कर में पड़ गया था जिसका नतीजा ये हुआ कि वो बीमार हो गया है। जब उस को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वो ज़्यादा देर तक इस चक्कर में रहा तो वो ख़त्म हो जाएगा तो वो एक रोज़ टिकट कटा कर डेरादून (देहरादून) चला गया, जहां उसने तीन महीने एक सेने टोरियम में गुज़ारे और अपनी खोई हुई सेहत किसी हद हासिल की, उसने मुझ से ये भी कहा कि वो इस दौरान में मुझे हिन्दी ज़बान में बड़े लंबे लंबे ख़त लिखती रही लेकिन मैं ये ख़त पढ़ नहीं सकता था अलबत्ता उनकी आमद से काँप काँप ज़रूर जाता था, उसने फिर मेरी कान में कहा।
“मंटो साहब! बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब औरत है।”
सितारा अस्ल में है ही अजीब-ओ-ग़रीब औरत, ऐसी औरतें लाख में दो तीन होती हैं। मैं जानता हूँ कि वो कई मर्तबा ख़तरनाक तौर पर बीमार हुई उस को ऐसे ऐसे आरिज़े लाहक़ हुए कि आम औरत कभी जांबर न हो सकती मगर वो ऐसी सख़्त-जान है कि हर बार मौत को गच्चा देती रही। इतनी बीमारियों के बाद ख़याल था कि उस के नाचने की क़ुव्वतें सल्ब हो जाएंगी मगर वो अब भी अपने अहद-ए-जवानी की तरह नाचती है। हर-रोज़ घंटों रियाज़ करती है। मालशए से तेल की मालिश कराती है और वो सब कुछ करती है जो पहले करती आई है। उस के घर में दो नौकर होते हैं, एक मर्द, एक औरत, मर्द आम तौर पर उस का मालिशिया होता है, जो औरत है उस के मुताल्लिक़ मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि वो पुरानी कहानियों की कटनी मालूम जो आसमान में थिगली लगाया करती थीं।
वो मलमल की बारीक साड़ी पहनती है। इतनी बारीक कि उस का सारा ढीला ढाला जिस्म उस में से छनछन कर बाहर आता रहता है और देखने वालों के लिए कराहत का मूजिब होता है। ये औरत मैंने जब भी देखी बहुत कम-गो, मगर बड़ी तेज़ नज़र देखी। उस की उम्र कम अज़ कम पचपन बरस के क़रीब होगी मगर वो जवानों की मानिंद चाक़-ओ-चौबंद थी उस की आँखें उक़ाब की तरह देखती थीं।
जब सितारा अकेली थी यानी वो किसी एक की हो के नहीं रहती थी तो उस का मकान दादर के ख़ुदादाद सर्किल में था और जो सिफ़तें या क़बाहतें सितारा में हैं, वो भी ख़ुदादाद हैं। नज़ीर जो अब स्वर्ण लता से मुंसलिक है, बड़ी ख़ूबियों का मालिक है। उसने बहुत देर तक सितारा को बर्दाश्त किया मगर जैसा कि मैं इस से पेश्तर अर्ज़ कर चुका हूँ वो एक मर्द की औरत नहीं है। चुनांचे जब नज़ीर तंग आ गया और इस को हत्मी तौर पर मालूम हो गया कि वो उस से निबाह नहीं कर सकता तो उसने एक रोज़ उस से हाथ जोड़ कर कहा। “सितारा मुझे बख़्श दो। मुझसे जो ग़लती हो गई मैं उस के लिए पशेमान हूँ और तुमसे माफ़ी का ख़्वास्त-गार।”
नज़ीर सितारा को मारा पीटा करता था। वो इस से ना-ख़ुश नहीं थी। ऐसी औरतें ज़द-ओ-कूब से एक ख़ास क़िस्म की जिन्सी लज़्ज़त महसूस करती हैं मगर उनसे मुंसलिका मर्द कब तक हाथा पाई करता रहे। वो ग़रीब भी एक अर्से के बाद आजिज़ आ जाता है। अब इसी सिलसिले की एक और कड़ी के मुताल्लिक़ भी सुनिए। जिस ज़माने में सितारा नज़ीर के यहां थी उसी ज़माने में नज़ीर का भांजा के। आसिफ़ भी वहीं था। के. आसिफ़ बड़ा तन-ओ-मंद था। बड़ा हटा कटा, जवानी से भरपूर जिसको औरत ज़ात से शायद कभी साबिक़ा ही नहीं पड़ा था, अपने मामूं के हाँ रहता था और इस से फ़िल्मी सनअत के मुताल्लिक़ वाक़फ़िय्यत हासिल कर रहा था। दिल में सैंकड़ों वलवले थे, बड़े अरमान थे, फिर फ़िल्मी दुनिया में आकर उसने औरतों (और वो भी एक्ट्रसों) को क़रीब से देखा था। इस के अलावा उसने अपने मामूं नज़ीर और सितारा के बाहमी ताल्लुक़ात भी अपनी आँखों से देखे थे। ये वो ज़माना था जब के. आसिफ़ की जवानी फूटी पड़ी थी। ये वो दौर था जब मर्द अपनी जवानी के जोश में पत्थरों की दीवार से भी भिड़ जाना चाहता है और सितारा यक़ीनन एक पथरीली दीवार थी जो किसी से टकराना चाहती थी।
नज़र उस ज़माने में रणजीत फ़िल्म स्टूडियो के ऐन सामने एक अहाते के अंदर रहता था। बड़ी ग़लीज़ सी जगह थी। नज़ीर ने एक पूरा फ़्लैट ले रखा था। इसी में उस की क़ायम की हुई हिंद पिक्चर्ज का दफ़्तर भी था। दो तीन कमरे थे, उनमें तख़्लिया क्या हो सकता है चुनांचे पर जोश नौजवान आसिफ़ को हर वो पहलू देखने का मौक़ा मिला जो इस मर्द-ओ-ज़न के बाहमी ताल्लुक़ात से वाबस्ता होता है।
नौजवान आसिफ़ के लिए ये एक नया तजुर्बा था। बड़ा हैरत-अंगेज़, उसने अपने शादीशुदा दोस्तों से इज़दवाजी ज़िंदगी के असरार कई बार सुने थे मगर उसे कभी ताज्जुब नहीं हुआ था। उस को मालूम था कि एक बिस्तर होता है जिस पर इन्सानी फ़ित्रत अपनी अज़ली-ओ-अबदी खेल खेलती है मगर आसिफ़ की आँखों ने जो कुछ एक बार महज़ इत्तिफ़ाक़ से देखा वो बिलकुल मुख़्तलिफ़ था। बड़ा ख़ौफ़नाक जिसने उस की हड्डी हड्डी झिंझोड़ दी। उसने कई बार कुत्तों की लड़ाई देखी थी जो एक दूसरे से बड़े वहशत-नाक तरीक़े पर गुथ जाते थे। एक दूसरे को झिंझोड़ते, भंभोड़ते, काटते और नोचते थे... उस का तन-बदन लरज़ गया। उसने सोचा ये मुहब्बत-ओह्ब्बत सब बकवास है। अस्ल में इन्सान दरिन्दा है और उस की मुहब्बत एक बड़ी ख़ौफ़नाक क़िस्म की क्षति मगर इस अखाड़े में उतरने और ऐसी कुश्ती लड़ने का शौक़ ज़रूर था, उस के बाज़ुओं में क़ुव्वत थी, उस के बदन में हरारत थी, उस के तमाम पट्ठे फ़ौलादी थे। उस की ख़ाहिश थी कि सिर्फ़ एक-बार उसे मौक़ा दिया जाये तो वो हरीफ़ को चारों शाने चित गिरा दे।
उस ज़माने में डायरेक्टर नय्यर (पाकिस्तान का ज़हीन मगर बद-क़िस्मत डायरेक्टर) भी नज़ीर के साथ था। आसिफ़ और वो दोनों हम-उम्र थे। दोनों कुंवारे और ख़्वाबों की दुनिया में बसने वाले, आपस में मिलते तो औरतों की बातें करते, उन औरतों की जो मुस्तक़िल में उनकी होने वाली थीं, पर जब सितारा का ज़िक्र आता तो वो दोनों काँप उठते और एक ऐसी दुनिया में चलते जाते जहां जन, देव और चुड़ैलें रहती हैं।
उनको क्या मालूम कि “निफ़ोमेंक” औरत क्या होती है। उनको क्या मालूम कि सितारा के मुक़ाबले में ऐसी औरतें भी हैं जिन्हें अगर बर्फ़ की सहल कहा जाये तो बजा है।
लेकिन उनको इतना मालूम था कि सितारा नज़ीर के साथ वफ़ादार नहीं वो हरजाई है। यूं तो नज़ीर की “होल टाइम” दाश्ता के तौर पर रहती है मगर पी.
एन. अरोड़ा के पास भी जाती है और कभी कभी अपने पति डेसाई के पास भी जो बेचारा बड़े हसरत के दिन गुज़ार रहा था... और फिर और भी थे जिनमें अल-नासिर भी शामिल था।
दोनों चकराए चकराए रहते थे, उनकी समझ में नहीं आता था। नज़ीर के बिस्तर की हर शिकन का पस-ए-मंज़र उनको मालूम था। नज़ीर के खुरदुरे और गहरे साँवले रंग के चेहरे की गेंडे ऐसी सख़्त खाल पर जो आए दिन दाग़ धब्बे पड़ते थे, उस का जवाज़ भी उनको मालूम था लेकिन इस क़दर दोनों को यक़ीन था कि ये सिलसिला ज़्यादा देर तक नहीं चलेगा मगर वो चलता रहा अपने मामूल के मुताबिक़।
सुब्ह-सवेरे सितारे उठती और दूसरे कमरे में रियाज़ शुरू कर देती। ये भी हैरतनाक चीज़ थी कि सुब्ह उठते ही दो घंटे लगातार वो वहशियों की मानिंद नाचती रहे। ऐसे ऐसे तोड़े ले कि ज़मीन घूम जाये। तबलची के हाथ शल हो जाएं मगर उसे कुछ न हो। रियाज़त के बाद वो अपने मख़सूस मालशिए से मालिश करा लेती थी। इस के बाद नहा धो कर वो नज़ीर के कमरे में जाती जो कि सो रहा होता। उस को जगाती और अपने हाथ से दूध या ख़ुदा मालूम किस चीज़ का एक पियाला उसे ज़बरदस्ती पिलाती और दूसरा नाच शुरू हो जाता। ये सब कुछ आसिफ़ और नय्यर की आँखों के सामने हो रहा था। उनकी उम्र तजस्सुस की उम्र थी जब आदमी ख़ाली कमरों में भी ख़्वाह-मख़्वाह खिड़की, दर्ज़ों से झांक कर देखता है। रौशन दानों से भरे कमरों का जायज़ा लेता है। ज़रा सी आवाज़ आने पर उस के कान खड़े हो जाते हैं और वो उनमें मआनी भरने की कोशिश करता है। नय्यर, आसिफ़ के मुक़ाबले में जिस्मानी लिहाज़ से बहुत कमज़ोर था। उस की जिन्सी ख़्वाहिशें भी इसी लिहाज़ से मोअतदिल थीं मगर आसिफ़ के मज़बूत और तनोमंद जिस्म की रग-रग में बिजली भरी हुई थी जो किसी पर गिरना चाहती थी इसी लिए आसिफ़ चाहता था कि अँधेरी रात हो, आसमान पर काले बादलों का हुजूम हो, कान बहरे कर देने वाली बिजली की कड़क और तूफ़ान बाद-ओ-बारां में वो किसी का हाथ मज़बूती से पकड़ ले और उसे खींचता कहीं दूर ले जाये जहां पत्थरों का बसर हो।
नज़ीर का अज़ीज़ होने के बाइस सितारा घंटों आसिफ़ के पास बैठी रहती और इधर उधर की बातें करती रहती थी। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया आसिफ़ का हिजाब कम होता गया जो वो लाहौर से अपने साथ लाया था मगर उस को इतनी जुर्रत नहीं थी कि वो सितारा को हाथ लगाता क्यों कि वो अपने मामूं की सख़्त-गीर तबीयत से वाक़िफ़ था और उस से डरता था। लेकिन इस दौरान मैं इतना जान गया था कि सितारा उस की तरफ़ माइल है। वो जब भी चाहे उस की कलाई अपने मज़बूत हाथ में पकड़ कर उसे जहां चाहे ले जा सकता है... मगर वो घुप अंधेरी रात, वो तूफान-ए-बाद-ओ-बाराँ और वो पत्थरों का पुत्र!
आसिफ़ झुंजला रहा था कि क़ुदरत इतनी तावीक़ क्यों कर रही है जो होना है आज ही क्यों नहीं हो जाता। गाड़ियां जिन्हें कल एक दूसरे से टकराना है, आज ही क्यूं नहीं टकरा जातीं मगर ये कैसे होता जब कांटा बदलने वाला कांटा न बदलता।
वो दो गाड़ियों की तरह एक प्लेटफार्म पर रुकते थे मगर उनमें फ़ासला होता था। बहुत मामूली सा फ़ासला मगर जिस तरह एक गाड़ी दूसरी गाड़ी से हमकनार नहीं हो सकती थी इसलिए कि वो अपनी अपनी पटरियों के साथ जकड़ी होती हैं। इसी तरह वो भी एक दूसरे से हमकनार नहीं हो सकते थे।
जिस तरह इधर के मुसाफ़िर उधर के मुसाफ़िरों से खिड़कियों में से सर बाहर निकाल निकाल कर बातें करते हैं इसी तरह वो भी करते थे मगर फ़ौरन एक गाड़ी इधर रवाना हो जाती और दूसरी उधर, आसिफ़ को बड़ी झुंजलाहट होती थी मगर वो गुप अँधेरी रात और तूफ़ान बाद-ओ-बाराँ का मुंतज़िर था।
आख़िर वो घुप अँधेरी रात, तूफान-ए-बाद-ओ-बरां, राद-ओ-बर्क़ की जुमला हवलनाकियों के साथ आ ही गई।
बिल-आख़िर सितारा के करतूत देखकर नज़ीर भौंचक्का रह गया।
नज़ीर के सर से अब पानी गुज़र चुका था। काफ़ी लअन तअन के बाद उसने सितारा से कहा “अब तुम यहां नहीं रह सकतीं। अपना बिस्तर फ़ौरन गोल करो।”
सितारा, कुछ भी हो, आख़िर औरत ज़ात है। नज़ीर की सरज़निश के बाद उस में इतनी ताक़त नहीं थी कि वो अकेली अपना बिस्तर गोली कर सकती। नज़ीर से वो कैसे मदद मांगती। वो ग़ुस्से में बिफरा, मुंह में झाग निकालता बाहर निकल कर अपने दफ़्तर में जा बैठा। आसिफ़ ने उस के ये तेवर देखे तो उस को यक़ीन हो गया कि वो अंधेरी रात आ गई।
थोड़ी देर वो ख़ामोश बैठा उस के बाद उठा और आहिस्ता आहिस्ता दूसरे कमरे में पहुंच गया। जहां सितारा पलंग पर बैठी अपनी चोटीं सहला रही थी।
चंद बातों ही से उस को मालूम हो गया कि मुआमला ख़त्म है। दिल ही दिल में वो बहुत ख़ुश हुआ। चुनांचे उसने सितारा को ढारस दी। कुछ इस तौर पर कि एक नया मुआमला शुरू हो गया।
आसिफ़ ने उस का बिस्तर बोरिया बाँधा और उस के साथ उस के घर वाक़ेअ दादर (ख़ुदादाद सर्किल) छोड़ने गया।
यहां सितारा ने आसिफ़ का बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया।
आसिफ़ ने जुर्रत से काम लेकर सितारा का हाथ पकड़ लिया और कहा। “इस की क्या ज़रूरत थी सितारा।”
सितारा ने अपना हाथ आसिफ़ की गिरफ़्त से छुड़ाने की कोशिश न की मगर आसिफ़ मुतमइन न था। थोड़ी देर राज़-ओ-नियाज़ की बातें हुईं। सितारा ने आसिफ़ को अपने इस सह्र का नमूना चखाया जिससे वो उस वक़्त तक सैंकड़ों मर्द, दुबले पतले, हट्टे कट्टे, ज़िद्दी और वहशी अपनी ख़्वाहिशात का ग़ुलाम बना चुकी थी।
अगर दिन होता तो आसिफ़ को यक़ीनन तारे नज़र आजाते मगर रात को उसे ख़ुदादाद सर्किल के इस फ़्लैट में दिन तुलूअ होता नज़र आया... उस की मसर्रतों का दिन, मगर वो फिर भी मुतमइन नहीं था। उसने सितारा से कहा कि “देखो, तुम्हारा मेरा सम्बंध बहुत मज़बूत हो जाना चाहिए। हरजाई पन छोड़ो, बस एक की हो जाओ।”
सितारा ने उसे यक़ीन दिलाया कि वो आसिफ़ के सिवा किसी की तरफ़ आँख उठा कर भी न देखेगी। आसिफ़ मुतमइन हो गया मगर इस ख़ौफ़ से नज़ीर उस से इतनी देर लगाने की वजह न पूछ बैठे। आशिक़ सादिक़ की तरह उस का हाथ चूम कर चला गया और वादा कर गया कि वो दूसरे रोज़ ज़रूर आएगा।
वो गया, तो सितारा उठी, सिंगार मेज़ के पास जा कर उसने अपने बाल दुरुस्त किए, साड़ी तबदील की और किसी की तरफ़ आँख उठाए बग़ैर नीचे उतरी और टैक्सी ले कर पी. एन. अरोड़ा के पास चली गई।
जुमला मोअतरिज़ा है लेकिन हुआ करे। कहना ये है कि सितारा को मुझसे सख़्त नफ़रत थी। मैं “मुसव्विर” का एडिटर था और बेलाग लिखता था। बाल की खाल, और नित-नई के कालमों में कई बार मैंने उस की दुरगत बनाई थी लेकिन बड़े सलीक़े से। उस में कोई सूक़ियाना-पन नहीं था। फिर भी वो नाराज़ थी और मुझे इस नाराज़ी की सच पूछिए तो कोई परवाह भी नहीं थी इसलिए कि मुझे उस से कोई ग़र्ज़ नहीं थी और यूं भी फ़िल्मी हस्तियों से दूर दूर ही रहता था।
मैंने नित नई या बाल की खाल के कालमों में जब नज़ीर और उस की लड़ाई का ज़िक्र ज़रा नमक मिर्च लगा कर किया तो वो बहुत सीख़ पा हुई और उसने मुझे ख़ूब गालियां दीं।
इस के बाद जब मुझे अपने जासूसों के ज़रीये से आसिफ़ और उस के खु़फ़ीया मुआशक़े का पता चला और मैंने चुभते हुए इशारों और किनाइयों में उस का ज़िक्र अपने कालमों में किया तो वो भन्ना गई और उसने आसिफ़ से कहा। “तुम इस शख़्स को पीटते क्यों नहीं, ख़ुद नहीं पीटते तो किसी से पिटवाओ या किसी और अख़बार वाले से कहो कि वो उसे अपने अख़बार में ढेरों के ढेर गालियां दे।”
आसिफ़, बड़े ज़र्फ़ का आदमी है। उस में बुर्दबारी है, तहम्मुल है, मज़ाक़ समझने की अहलियत रखता है, हालाँकि अन-पढ़ है उसने सितारा की ये बातें इस कान से सुनीं, उस कान से निकाल दीं।
मुआमला अब ज़्यादा नज़ाकत इख़्तियार कर गया था। ये तो आपको मालूम हो चुका है कि सितारा किस क़िस्म की औरत है। अगर उस से किसी मर्द का वास्ता पड़ जाये तो उस की रिहाई मुश्किल हो जाती है। फ़क़त एक अल-नासिर ही था जो चंद माह उस के साथ गुज़ार कर डेरादून (देहरादून) भाग गया वर्ना एक रोज़ उस की अंतड़ियां बिलकुल जवाब दे जातीं और उस की क़ब्र बंबई के क़ब्रिस्तान में बनी होती। जिसके कतबे पर कुछ इस क़िस्म का शेर मर्क़ूम होता।
लहद पर मेरी वो पर्दापोश आते हैं
चराग़-ए-गोर-ए-ग़रीबां, सबा बुझा देना
हाँ तो मुआमला बहुत नज़ाकत इख़्तियार कर गया था इसलिए कि नज़ीर के दिल में शकूक पैदा हो रहे थे। वो सोचता था। ये मेरा भांजा, इतनी इतनी देर कहाँ ग़ायब रहता है जब वो उस से पूछता था वो कोई बहाना पेश कर देता।
मगर ये बहाने कब तक चलते। इस का स्टाक एक रोज़ ख़त्म होना ही था, नज़ीर के दिल में सितारा के लिए अब कोई जगह नहीं था। वो ऐसा आदमी नहीं था कि अपना फ़ैसला तबदील कर दे। उस को सितारा की नहीं आसिफ़ की फ़िक्र थी। अपने भांजे की जिस को वो अपना अज़ीज़ समझता था और जिसको उसने सिर्फ़ इस ग़र्ज़ से अपने पास रखा था कि वो कुछ बन जाये।
अलबत्ता उस को फ़िक्र थी कि वो कहीं उस औरत के हत्थे न चढ़ जाये। वो उस औरत के साथ कई बरस गुज़ार चुका था। उस की रग-रग और नस-नस से वाक़िफ़ था। उस को मालूम था कि आसिफ़ जैसे नौजवान उस का मन भाता ख्वाजा हैं और उनको अपने दाम में फंसाना उस ऐसी तजुर्बाकार औरत के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। लुत्फ़ की बात तो ये है कि वो ख़ुद-ब-ख़ुद उस के दाम के नीचे आ जाते थे। एक बार फंस जाते तो फिर रिहाई मुश्किल हो जाती थी।
सितारा से किसी मर्द का साबिक़ा पड़ जाये और इत्तिफ़ाक़ से वो सितारा को पसंद आ जाए तो फ़र्दन और रात का बेश्तर हिस्सा उसी के साथ काटना पड़ता है। नज़ीर को आसिफ़ की पय-दर-पय ग़ैर हाज़रियों ही से पता चल गया था मगर जब आसिफ़ कहता कि मामूं जान !ये आप क्या कह रहे हैं, मैं इस के मुताल्लिक़ तो सोच भी नहीं सकता तो वो शश-ओ-पंज में पड़ जाता लेकिन दिल में उसे पूरा यक़ीन था कि ये लौंडा फंस चुका है और झूट बोल रहा है।
आसिफ़ वाक़ई झूट बोल रहा था। मुआमला अगर किसी और औरत का होता तो वो यक़ीनन कभी झूट न बोलता मगर सितारा उस के मामूं की दाश्ता थी। उस के साथ वो ऐसे ताल्लुक़ात क़ायम नहीं कर सकता था, वो ताल्लुक़ात जो क़ायम हो चुके थे।
पीछे हटना और फ़रार अब बहुत मुश्किल था। आसिफ़ उस ज़ैन तस्मा पा की गिरफ़्त में था। भाग निकलने का सवाल ही पैदा नहीं होता था मगर इधर नज़ीर की आँखों में बराबर ख़ून उतर रहा था। उस को बस एक मौक़ा चाहिए था। ऐसा मौक़ा कि वो सब कुछ ख़ुद अपनी आँखों से देखे।
एक रोज़ नज़ीर ने वो सब कुछ देख भी लिया जो वो ख़ुद अपनी आँखों से देखना चाहता था। मेरा हाफ़िज़ा साथ नहीं देता। मुझे सारे वाक़ियात अच्छी तरह मालूम थे मगर अब इतना अरसा गुज़र गया कि बहुत सी बातें ज़हन से उतर गई हैं। वो ख़ून जो नज़ीर की आँखों में एक अर्से से उतर रहा था वो उस वक़्त पी गया और उन दोनों पर टूट पड़ा।
आसिफ़ ने अपने मामूं को कसमें खा खा कर यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि वो दोनों बेगुनाह हैं। उनके दर्मियान ऐसा कोई रिश्ता, ऐसा कोई ताल्लुक़ नहीं जिसके लिए उन्हें मोर-ओ-इताब बनाया जाये नज़ीर उस वक़्त कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं था। ऐसा मालूम होता था कि वो मार मार के उन दोनों की हड्डियां पसलियाँ तोड़ देना चाहता है ताकि सारा क़िस्सा ही ख़त्म हो, मगर मजीद (मशहूर ऐक्टर जवाब पाकिस्तान में है) ने बड़ी होशियारी से बीच बचाव कराया।
मजीद को आसिफ़ और सितारा के मुआशक़े का इल्म था। सुना है कि उसने आसिफ़ को कई बार मोतनब्बे किया था कि वो इस ख़तरनाक खेल से बाज़ आ जाए मगर जवानी के वो दीवाने दिन जिनमें से आसिफ़ की ज़िंदगी गुज़र रही थी, न माने और नतीजा उस का ये हुआ कि जिस राज़ को वो अपनी दानिस्त के मुताबिक़ बड़े दबीज़ पर्दों के अंदर छुपाए बैठे थे, फ़ाश हो गया।
नज़ीर जैसा कि मैं उस से पहले अर्ज़ कर चुका हूँ, बहुत सख़्त-गीर आदमी है मगर ऐसे बहुत कम आदमी हैं जिनको मालूम है कि वो नर्म-दिल भी है। जो काम वो ख़ुद करता है उस की अच्छाई बुराई का शऊर रखता है। जो औसत दर्जे का आदमी नहीं रखता। वो सितारा से एक अर्से तक जिस्मानी तौर पर वाबस्ता रहा लेकिन वो नहीं चाहता था कि ये वाबस्तगी आसिफ़ की सितारा से भी हो।
आसिफ़ उस का भांजा था। कहा जा सकता था कि वो इसी रिश्ते की बिना पर आसिफ़ और सितारा का मिलाप पसंद नहीं करता था मगर मैं जो नज़ीर के किरदार के तमाम टेढ़े तिर्छे ज़ावियों से वाक़िफ़ हूँ, वुसूक़ से कह सकता हूँ कि अगर आसिफ़ के बजाये कोई और आदमी होता तो वो उस से भी यही कहता कि देखो उस औरत से बचोगे। एक सिर्फ़ मैं ही था जिसे अपनी तवानाई और क़ुव्वत पर नाज़ था लेकिन मैं भी हार गया।
नज़ीर ख़ुलूस का पुतला है। एक ऐसे ख़ुलूस का जो हर वक़्त बड़ा दुरुश्त और खुर्दुरा लिबास पहने रहता है।
नज़ीर ने मजीद के कहने पर सितारा और आसिफ़ दोनों को छोड़ दिया इस लिए भी कि आसिफ़ ने अपने मामूं को यक़ीन दिलाया था कि उन दोनों के ताल्लुक़ात बिलकुल पाक और साफ़ हैं।
नज़ीर चला गया मगर वो मुतमइन नहीं था। बज़ाहिर वो एक अक्खड़ आदमी मालूम होता था। शैय लतीफ़ से कोरा मगर वो दूसरों के दिल की गहराइयों में एक माहिर ग़ोता-ज़न की तरह उतर सकता है और फिर वो सितारा की एक एक रग से वाक़िफ़ था। उसने ऐसी कई मंज़ीलीं देखी थीं जो आसिफ़ शायद सारी उम्र भी न देख सके। वो मुतमइन नहीं था।
इस हादिसे के बाद आसिफ़ और सितारा के दर्मियान कुछ देर बातें हुईं। वादे वईद हुए, कसमें खाई गईं कि वो कभी एक दूसरे से जुदा न होंगे वग़ैरा वग़ैरा। इस के बाद आसिफ़ ने सच्चे आशिक़ों के अंदाज़ से सितारा से रुख़स्त ली और चला गया।
सितारा ने अपना मेक-अप दुरुस्त किया। नए कपड़े पहने और टैक्सी मंगवा कर पी. एन. अरोड़ा के पास चली गई, जिसकी सेहत दिल्ली के हकीमों के इलाज से अब किसी क़दर बहाल हो चुकी थी और उस के पिचके हुए गालों में थोड़ा सा गोश्त आ गया था।
अल-नासिर भी था। डायरेक्टर महबूब भी थे और ख़ुदा मालूम और कितने थे। आसिफ़ गो एक बहुत ही कड़े मरहले से गुज़र चुका था मगर उसने सितारा के यहां अपनी आमद-ओ-रफ़्त यकसर मुनक़तअ न की और वो कर भी कैसे सकता था जब कि पुरानी जादूगरनियों की तरह उस जादूगरनी ने आसिफ़ को एक मक्खी बना कर अपनी दीवार के साथ चिपका रखा था। अब सिर्फ़ नजात का एक ही रास्ता था कि पुरानी कहानियों का कोई शहज़ादा सुलैमानी तावीज़ के ज़रीये से उस जादूगरनी का मुक़ाबला करता और अंजाम-कार आसिफ़ उस के चंगुल से निकलता।
मैं जानता हूँ और अच्छी तरह जानता हूँ कि ताक़तवर से ताक़तवर सुलैमानी तावीज़ भी सितारा पर असर अंदाज़ नहीं हो सकता। वो एक ऐसा हिसार है जिसे लंधोर भी सर नहीं कर सकता।
ये चक्कर यूंही चलता रहा। नज़ीर और आसिफ़ के ताल्लुक़ात रोज़-ब-रोज़ कशीदा होते चले जा रहे थे।
हाँ मैं एक बात कहना भूल ही गया। जब नज़ीर ने सितारा का बिस्तर गोल किया था तो रफ़ीक़ ग़ज़नवी, मशहूर मौसीक़ार ने मुफ़ाहमत की कोशिश की। उसने सितारा, अरोड़ा और नज़ीर को अपने यहां बुलाया। शराब के दौर चले, रफ़ीक़ ने जो गुफ़्तार का ग़ाज़ी है, बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कई पैग शराब के पिलाए मगर कोई सूरत पैदा न हुई और जब कोई सूरत पैदा न हुई तो ख़ुद-ब-ख़ुद एक सूरत पैदा हो गई। रात-भर सितारा रफ़ीक़ के फ़्लैट में रही और वो उस को समझाता रहा कि अब कोई सूरत पैदा नहीं हो सकती।
अजीब बात है कि रफ़ीक़ ने फिर मुफ़ाहमत की कोशिश न की और न सितारा उस के यहां रात को ये सुनने के लिए गई कि अब कोई सूरत पैदा नहीं हो सकती। शायद इसलिए कि सितारा के किसी तोड़े में रफ़ीक़ को एक दो मात्रे कम महसूस हुए होंगे और ये भी हो सकता है कि सितारा ने ये महसूस किया हो कि रफ़ीक़ सुर से एक आध सूत्र ऊपर या नीचे गाता है... उस के मुताल्लिक़ वुसूक़ से कुछ नहीं कहा जा सकता।
अब हम फिर सितारा और आसिफ़ की तरफ़ पलटते हैं। सितारा उस पर बहुत बुरी तरह लट्टू थी कि वो नौजवान खामकार था। उस की ज़िंदगी में सितारा शायद सबसे पहली औरत थी।
कहा जाता है कि नज़ीर ने एक-बार फिर छापा मारा और दोनों को ऐन मौक़ा पर जा पकड़ा। इस दफ़ा किस ने बीच बचाव किया। इस का मुझे इल्म नहीं बहर-हाल मुआमला रफ़ा-दफ़ा हो गया क्यूं कि आसिफ़ ने अपने मामूं को यक़ीन दिला दिया कि उस के सितारा के दर्मियान ऐसी वैसी कोई बात नहीं। बहर-हाल आसिफ़ और सितारा के सर से आई बला एक दफ़ा फिर टल गई मगर उस का नतीजा ये हुआ कि एक दिन आसिफ़ ग़ायब हो गया। दूसरे दिन मालूम हुआ कि सितारा ग़ायब है। इस्तिफ़सार पर मालूम हुआ कि वो किसी तीर्थ की यात्रा करने गई है। अगर मौसम हज का होता तो यार लोग यक़ीनन उड़ा देते कि हज़रत आसिफ़ हज करने गए हैं।
मुझे मालूम नहीं वो दोनों कहाँ गए थे मगर दिल्ली से ख़बर मौसूल हुई कि सितारा मुशर्रफ़ बा-इस्लाम हो चुकी है और उस का इस्लामी नाम अल्लाह-रखी रखा गया और यह कि आसिफ़ ने उस से बाक़ायदा निकाह पढ़वा लिया है।
उस के मामूं नज़ीर पर इस का क्या रद्द-ए-अमल हुआ, उस के मुताल्लिक़ आप ख़ुद सोच सकते हैं मगर पुर-लुत्फ़ बात ये है कि हिंदूओं के क़ानून के मुताबिक़ तलाक़ हो ही नहीं सकती। औरत एक दफ़ा किसी मर्द से वाबस्ता हो जाये तो सो हीले करने पर भी ख़ुद को अपने पति से जुदा नहीं कर सकती। यूं वो आवारा-गर्दी कर सकती है, सैंकड़ों मर्दों की आग़ोश की ज़ीनत बन सकती है मगर रहेगी अपने पति की पत्नी। और ये भी है कि हिंदू औरत चाहे दूसरा मज़हब इख़्तियार कर ले मगर उस की अस्ल पोज़ीशन में फ़र्क़ नहीं आ सकता। इस लिहाज़ से गो सितारा अल्लाह रखी बन कर बेगम के आसिफ़ हो गई थी मगर क़ानून की नज़रों में वो मिसिज़ डेसाई थी। उस बीमार सूरत डेसाई की बीवी जो रोटी कमाने के लिए बहुत बुरी तरह हाथ पांव मार रहा था।
जब इस ख़बर की तसदीक़ हो गई तो मैंने “मुसव्विर” के कालमों में जी भर के लिखा। क़रीब क़रीब हर हफ़्ते इस नए ब्याहता जोड़े का ज़िक्र होता था। बड़े तंज़िया मज़ाहिया और उफ़िक़ाहिया अंदाज़ में।
माह-ए-ग़ुस्ल यानी हनीमून मनाने के बाद जब ये जोड़ा बंबई वापस आया तो नज़ीर ख़ून के घूँट पी के रह गया। एक दफ़ा मुझे रेस कोर्स जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ मैं ने देखा कि हुजूम में से आसिफ़ शार्क स्किन के बे-दाग़ सूट में मलबूस, फुर्तीली सितारा की कमर में हाथ दिए चला आ रहा है। जब वो मेरे क़रीब पहुंचा तो वो पहले मुस्कुराया फिर हंसने लगा और मेरी तरफ़ हाथ बढ़ा कर कहने लगा। “भई ख़ूब... बहुत ख़ूब, नमक मिर्च और बाल की खाल के कालमों में तुम जो लिख रहे हो ख़ुदा की क़सम की ला-जवाब है।”
सितारा तेवरी चढ़ा कर एक तरफ़ हट गई मगर आसिफ़ ने उस की तरफ़ कोई तवज्जो न दी और मुझसे बड़े बलंद बाँग ख़ुलूस के साथ देर तक बातें करता रहा। मैं इस से पेश्तर अर्ज़ कर चुका हूँ कि वो बड़े ज़र्फ़ का आदमी है और अन-पढ़ होने के बावजूद मज़ाह और अफ़काह समझने की अहलियत रखता है।
अब बंबई में हर शख़्स को जिसे फ़िल्मी सनअत से दिलचस्पी थी। मालूम होता था कि कोई आसिफ़ है, जिससे सितारा ने शादी कर ली है। भिंड यब बाज़ार और मुहम्मद अली के ईरानी होटलों में पंजाब और यू.पी के मुसलमान जो मुस्लिम लीग की हिमायत में थे। चाय की प्यालियां सामने रखकर अपनी बेपनाह मसर्रत का इज़हार करते थे कि “मियां भाई (मुसलमान) ने एक काफ़िर औरत को मुसलमान कर के अपने अक़्द में ले लिया।”
बाज़ कहते थे कि आसिफ़ को अब इस साली से ऐक्टिंग नहीं करानी चाहिए।
बाज़ कहते थे कि “कोई वांदा (हर्ज) नहीं मगर जब बाहर निकले तो पर्दा ज़रूर किया करे।”
बाज़ कहते थे “हटाओ यार... ये सब स्टंट है।”
बहर-हाल जहां तक मैं समझता हूँ, आसिफ़, सितारा से क़ानूनी तौर पर शादी कर चुका था मगर एक अर्से के बाद जब मैंने उस से पूछा। “क्यूं धांसू क्या वाक़ई सितारा तुम्हारी मनकूहा बीवी है।”
तो वो हंसा। “कैसा निकाह और कैसी शादी?”
अब अल्लाह ही बेहतर जानता है कि अस्ल मुआमला क्या था और क्या है।
आसिफ़ का अपना मकान कोई भी नहीं था। बस दोनों वहीं ख़ुदा-दाद सर्किल (दादर) में रहते थे और खुले बंदों रहते थे। सितारा की मोटर थी इस में घूमते थे।
मेरा ख़याल है, दिल्ली में आसिफ़ ने शायद लाला जग निरावन को इस बात पर आमादा कर लिया था कि वो उसे एक फ़िल्म बनाने का सरमाया दे। उस से शायद उसने कुछ एडवान्स भी लिया होगा जभी तो वो तंगदस्त नहीं था।
आसिफ़ में एक बड़ी ख़ूबी है कि ख़ुद-एतिमाद है। उस के अंदर एहसास-ए-कमतरी का शाइबा तक मौजूद नहीं। वो बड़े बड़े डाइरेक्टरों और स्टोरी राइटरों के छक्के छुड़ा सकता है। महज़ अपनी ख़ुदा-दाद क़ाबिलियत की बदौलत। उस ख़ुदा-दाद क़ाबिलीयत को मैं हाऊस संस कहा करता था। आसिफ़ के सामने भी, मगर उसने कभी बुरा न माना।
आसिफ़ जब डायरेक्टर बना तो दूसरे तंग ख़याल और कमज़र्फ़ डाइरेक्टरों के मानिंद उसने अपना हलक़ा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र महदूद न रखा। उसने हर दिमाग़ को दावत दी कि वो कोई अच्छी चीज़ पेश करे, जिसे वो ब-ख़ुशी क़ुबूल कर लेगा।
मैं ख़ुदा मालूम कहाँ का कहाँ चला गया मगर यहां मुझे एक लतीफ़े का करना इसलिए दिल-चस्प मालूम होता है कि मेरी ज़ात से मुताल्लिक़ है।
आसिफ़ उन दिनों फूल बना रहा था। मैं अपने फ़्लैट वाक़ेअ क्लियर रोड में था कि नीचे से मोटर की हॉर्न की ताबड़तोड़ आवाज़ें आईं। मैंने बालकनी में निकल कर देखा। एक बहुत बड़ी मोटर नीचे खड़ी थी। जब मैं जंगले पर पहुंचा तो पिछली सीट से आसिफ़ ने खिड़की से अपना वज़नी सर बाहर निकाला और मुस्कुराया। मैंने इस से कहा। “आओ, क्या बात है?”
उसने दरवाज़ा खोला और पिछली सीट पर बैठी सितारा से कुछ कहा। उस के बाद मुझसे मुख़ातब हुआ। “आता हूँ और बताता हूँ।”
लंबी चौड़ी मोटर का इंजन स्टार्ट हुआ और वह चश्म-ज़दन में अडलफ़ी चैंबर्ज़ के अहाते से बाहर निकल गई। आसिफ़ ने सीढ़ियों का रुख़ किया।
मैंने दरवाज़ा खोल दिया। एक मिनट में आसिफ़ अंदर दाख़िल हुआ और बड़े पुरजोश अंदाज़ में मुझ से हाथ मिला कर कहने लगा। “मैं तुम्हें अपनी कहानी सुनाने आया हूँ।”
मैंने अज़-राह-ए-मज़ाक़ कहा। “तुम्हें मालूम है मैं फ़ीस लिया करता हूँ।”
आसिफ़ ने कुछ न कहा, मुझ से हाथ मिलाया और उल्टे पांव वापस चला गया। मैंने उस को आवाज़ें दीं। उस के पीछे दौड़ता गया मगर उसने मेरी एक न सुनी। बस इतना कहा कि वो फ़ीस ले कर आएगा तो कहानी सुनाएगा वर्ना नहीं।
मैं बहुत पशेमान हुआ कि मैंने उस से ऐसा मज़ाक़ किया। मैं समझता था कि वो मेरी इस बात को इसी रंग में लेगा जिस रंग में कही गई थी मगर मुआमला उस के बर-अक्स निकला और वो चला गया।
मैं ऊपर आया और अपनी बीवी से सारा क़िस्सा बयान किया। तो उसने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि “ये मेरी ऐन हिमाक़त थी इसलिए कि आसिफ़ मेरा बे-तकल्लुफ़ दोस्त नहीं था और ये वाक़िया है कि उस के और मेरे मरासिम कुछ ज़्यादा नहीं थे। चूँकि वो और मैं तबअन साफ़ गो, दिल-शिकन हद तक साफ़ गो हैं इसलिए मैंने जब उस से फ़ीस का मज़ाक़ किया था तो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में कोई ऐसी बात नहीं थी जिससे मुझे उस के जज़्बात मजरूह करना मतलूब थे और न में ऐसा बनिया हूँ कि उस से पहले ही रुपये का तक़ाज़ा करता। मुझे तो सिर्फ़ कहानी सुनना थी और बस।
और मैं कई डाइरेक्टरों से उनकी थर्ड क्लास कहानियां एक नहीं चार चार मर्तबा सुन चुका था क्यों कि वो मेरी राय के तालिब होते थे। मैंने उन से कभी अपने वक़्त की (जो कि ज़ाहिर है ज़ाए होता था) क़ीमत तलब नहीं की।
मुझे अफ़सोस था कि मैं ने आज़फ़ को नाराज़ किया। मैं इस के मुताल्लिक़ सोच ही रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैं ने दरवाज़ा खोला। एक आदमी खड़ा था। उसने एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में दिया और चला गया। मैं अभी लिफ़ाफ़ा खोल ही रहा था कि नीचे से हॉर्न की आवाज़ आई। मैं ने बालकनी में जा कर देखा। सितारा की गाड़ी थी और वो अडलफ़ी चैंबर के गेट से बाहर निकल रही थी।
लिफ़ाफ़ा खोल कर मैं ने देखा कि सौ सौ के पाँच नोट हैं। उनके साथ एक मुख़्तसर सी तहरीर थी। फ़ीस हाज़िर है अब मैं कल आऊँगा।
मैं भौंचक्का हो के रह गया।
दूसरे रोज़ सुब्ह नौ बजे के क़रीब वो उसी कार में आया। सितारा साथ थी मगर वो ऊपर न आई। आसिफ़ को दस्तक देने की ज़रूरत महसूस न हुई इसलिए कि दरवाज़ा खुला था और मैं उस के इस्तिक़बाल के लिए दहलीज़ में खड़ा था।
उसने मुझे देखते ही कहा। “क्यूं डाक्टर साहब, फ़ीस मिल गई आपको?”
मैं बहुत शर्मिंदा हुआ जिसका इज़हार मैंने बड़े पुर-ख़ुलूस और मौज़ूं-ओ-मुनासिब अलफ़ाज़ में किया और वो पाँच सौ उस को वापस करना चाहिये।
आसिफ़ अपने मख़सूस अंदाज़ में हंसा और सोफ़े पर अपनी नशिस्त जमा कर कहने लगा। “मंटो साहब! आप किस ख़याल में हैं। ये पैसा मेरा है न मेरे बाप का। प्रोडयूसर का है, ग़लती मेरी थी जो मैं बग़ैर फ़ीस के चला आया। हालाँ कि मेरी नीयतुल्लाह हरगिज़ ये नहीं थी कि मुफ़्त काम कराया जाये। आपका वक़्त यक़ीनन ज़ाएअ होगा और इस की क़ीमत भी। ख़ुदा की क़सम आपको फ़ीस ज़रूर मिलनी चाहिए लेकिन अब छोड़िए इस बकवास को और कहानी सुनिए।
उसने मुझे कुछ और कहने की मोहलत न दी। वो बड़े सोफ़े पर था। मैं उस के सामने एक कुर्सी पर बैठ गया। आसिफ़ को मैंने कभी कहानी सुनाते या सुनते नहीं देखा था। उसने अपनी बोसकी की क़मीज़ की आसतीनें ऊपर चढ़ाईं। पतलून के ऊपर के बटन जो पीटी का काम देते हैं खोले और सोफ़े पर एक आसन जमाल कर कहानी सुनाने के अंदाज़ में बैठ गया। हाँ तो कहानी सुनिए। “उनवान है “फूल क्या ख़याल है आपका” उनवान से मुताल्लिक़?”
मैंने कहा है। “अच्छा है।”
शुक्रिया। “अब आप सुनिए। मैं आपको मंज़र बह मंज़र सुनाता हूँ।”
और उसने अपनी कहानी जो ख़ुदा मालूम किस की लिखी थी। अपने मख़सूस अंदाज़ में सुनाना शुरू की। ये मख़सूस अंदाज़ कुछ इस क़िस्म का है कि कहानी सुनाने के दौरान में वो मदारी-पन करता है यानी हस्ब-ए-ज़रूरत वाक़ियात के उतार चढ़ाव के साथ ख़ुद भी उतरता चढ़ता रहता है। अभी वो सोफ़े पर। चंद लमहात के बाद उस की पुश्त दीवार पर, दूसरे नज़र पर उस का सर नीचे और टांगें ऊपर और धम से नीचे फ़र्श पर। उस के फ़ौरन बाद कुर्सी पर उकड़ूं बैठा है मगर फ़ौरन इकट्ठा खड़ा हुआ है और यूं मालूम होता है कि इलेक्शन में कोई आदमी वोट हासिल करने के लिए तक़रीर कर रहा है।
कहानी ख़त्म हुई। बड़ी लंबी कहानी। शैतान की आंत की तरह।
चंद लमहात ख़ामोश में गुज़रे। इस के बाद आसिफ़ ने मुझसे पूछा। “क्या ख़याल है, आपका कहानी के मुताल्लिक़?”
मेरे मुँह से ये अलफ़ाज़ ख़ुद-ब-ख़ुद निकल गए। “बकवास है।”
आसिफ़ ने ज़ोर ज़ोर से अपने होंट काटे और बौखला कर सोफ़े की पुश्त पर बैठ गया और ग़ज़बनाक लहजे में पूछा। “क्या कहा?”
कोई और होता तो बहुत मुम्किन है लड़खड़ा जाता मगर मैं हमेशा ऐसे मुआमलों में साबित-क़दम रहा हूँ चुनांचे मैं ने और ज़्यादा मज़बूती से कहा। “मैंने कहा था बकवास है।”
आसिफ़ ने अपने मदारी-पन से मुझे मुतअस्सिर करने की बहुत कोशिश की। मुझे फ़ुज़ूल की झिक-झिक पसंद नहीं थी। वो बहुत ऊंचे सुरों में बोलता था। मैं ने सोचा, इस का इलाज यही है कि एक दफ़ा मैं भी अपने हलक़ को खुली छुट्टी दे दूं। चुनांचे मैंने उस से कहा। “सुनिए आसिफ़ साहब! आप एक बहुत वज़नी पत्थर मंगवाइए, उस को मेरे ऊपर रखिए और उस पर वज़नी हथौड़े मारिए। ख़ुदा की क़सम !मैं फिर भी कहूँगा कि आपकी ये कहानी बकवास है।”
ये सब कुछ मैंने बहुत ऊंचे सुरों में कहा था। आसिफ़ सोफ़े की पुश्त की दीवार पर से नीचे उतर आया। आगे बढ़ कर उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और अपने होंट चूसते हुए कहा। “ख़ुदा की क़सम! बिलकुल बकवास है, मैं तुमसे यही सुनने आया था।”
मैं समझा शायद मज़ाक़ कर रहा है लेकिन चंद लमहात के बाद मुझे मालूम हुआ कि वो क़तअन संजीदा था। चुनांचे हम कहानी में तरमीम-ओ-इस्लाह के मुताल्लिक़ सोचने लगे।
लतीफ़ा ख़त्म हुआ। ये मेरी ज़ात से यक़ीनन मुताल्लिक़ है मगर उस के बयान से मक़सूद सिर्फ़ था कि आपको आसिफ़ और सितारा के किरदार का तक़ाबुल नज़र आए।
एक ज़माना गुज़र गया। आसिफ़ और सितारा मियां बीवी की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे मगर यहां मुझे एक और लतीफ़ा याद आ गया।
जिस ज़माने में आसिफ़ और मेरी दोस्ती नहीं थी और उस का ताल्लुक़ भी सितारा के साथ क़ायम नहीं हुआ था।
के. आसिफ़ साहब के चेहरे पर बिला-मुबालिग़ा दस हज़ार कीलें थीं और इतने ही मुहासे थे। जिनके मुताल्लिक़ कहा जाता है कि ये जवानी की निशानियां हैं। मैं सोचता था कि अगर जवानी की निशानियां इतनी बदनुमा और तकलीफ़-देह हैं तो ख़ुदा करे किसी पर जवानी न आए। (मुझ पर अल्लाह का शुक्र है कभी आई ही नहीं)
मैं जब उस के चेहरे की तरफ़ देखता जो कि बिला-मुबालिग़ा ख़ाना-ए-ज़ंबूर दिखाई देता था तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती। मैं नीम हकीम भी हूँ। अपनी दानिस्त के मुताबिक़ और अपने डाक्टर दोस्तों से मश्वरा कर के मैंने कई दवाएं ख़रीद कर उस को दें मगर कोई फ़ायदा न हुआ। कीलें इसी तरह मौजूद थीं मगर जब सितारा उस की ज़िंदगी में आई तो चंद महीनों के अंदर अंदर उस का चेहरा बिलकुल साफ़ हो गया सिर्फ़ निशान बाक़ी रह गए थे।
एक और लतीफ़ा सुन लीजिए। बम्बई टॉकीज़ में कमाल अमरोहवी और मैं दोनों इकट्ठे काम कर रहे थे। उसकी कहानी “महल” को फ़िल्म के लिए मौज़ूं-ओ-मुनासिब शक्ल देने के लिए सोच बिचार हो रही थी। इस दौरान में कमाल के दाहिने गाल पर एक छोटी सी फुंसी नुमूदार हुई जो उस को बहुत तकलीफ़ देने लगी। उसने तकलीफ़ का ज़िक्र मुझ से किया। मैंने उस से कहा। “एक बड़ा सहल इलाज है और तीर ब-हदफ़।”
उसने मुझ से पूछा। “क्या?”
मैंने उसे कहा। “तुम सितारा का घर जानते हो ना?”
“हाँ हाँ, क्यूं नहीं!”
“तो ऐसा करो। उस की सीढ़ियों का एक चक्कर लगा आओ मगर देखो अंदर नहीं जाना।”
कमाल ज़हीन आदमी है, मेरा मतलब समझ गया और बहुत देर तक हंसता रहा। लतीफ़े ख़त्म हुए।
बहुत देर तक सितारा और आसिफ़ इकट्ठे इज़दवाजी ज़िंदगी बसर करते रहे। अब दोनों ग़ालिबन माहिम के एक फ़्लैट में रहते थे। वहां कहीं रहते थे क्यूं कि वहां मेरा कई मर्तबा आना जाना हुआ। लेडी जमशेद रोड, जी टी रोड के चर्च के सामने एक गली थी जिसके आख़िरी सिरे पर एक तीन मंज़िला बिल्डिंग, ग़ालिबन तीसरी मंज़िल पर सितारा का फ़्लैट था।
मुझे यहां जाने का कई बार इत्तिफ़ाक़ हुआ। उन दिनों आसिफ़ फूल बनाने के बाद ग़ालिबन अनार कली बनाने की तैयारी कर रहा था। उस की कहानी कमाल अमरोहवी ने लिखी थी मगर वो शायद उस से मुतमइन नहीं था क्यूं कि वो कई आदमियों को दावत दे चुका था कि वो इस में कुछ जिद्दत पैदा करें। मैं भी उन ही लोगों में से एक था।
मैं आम तौर पर सुबह आठ बजे के क़रीब वहां पहुंचता। दरवाज़ा एक बुढ़िया खोलती जो मलमल की बारीक साड़ी पहने होती। उसे देखकर मुझे सख़्त कोफ़्त होती। मुझे ऐसा मालूम होता कि दरवाज़ा अल्फ़-लैला की किसी कुटनी ने खोला है।
मैं अंदर जाता और सोफ़े पर बैठ जाता। साथ वाले कमरे से जो ग़ालिबन ख़्वाबगाह थी। ऐसी ऐसी आवाज़ें आतीं कि रूह लरज़ लरज़ जाती। थोड़ी देर के बाद आसिफ़ नुमूदार होता। हस्ब-ए-आदत अपने होंट चाटते हुए उस की हैयत-कुज़ाई देखने की चीज़ थी। मलमल का कुर्ता जगह जगह से फटा हुआ है। गर्दन और सीने पर नीले पड़े हैं। बाल परेशान हैं, सांस फूली हुई है, मामूली अलैक सलैक होती और वो फ़र्श पर ढेर हो जाता। थोड़ी देर के बाद सितारा, आसिफ़ के लिए एक पियाला भेजती। जिसमें मालूम नहीं किस चीज़ की ख़ैर होती। आसिफ़ आहिस्ता-आहिस्ता बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता पियाला ख़त्म करता, उस के बाद हम अपना काम शुरू कर देते जो ज़्यादा-तर गप्पों पर मुश्तमिल होता।
काफ़ी अरसा गुज़र गया। सितारा और आसिफ़ के ताल्लुक़ात बड़े मुस्तहकम नज़र आते थे मगर एक दम जाने क्या हुआ कि ये सुनने में आया कि आसिफ़ अपने अज़ीज़ों में किसी लड़की से शादी कर रहा है। तारीख़ पक्की हो गई और वो अनक़रीब अपने दोस्तों के साथ लाहौर रवाना होने वाला है।
मैं उन दिनों बहुत मसरूफ़ था वर्ना उसे मिलकर ज़रूर दरियाफ़्त करता कि ये क्या क़िस्सा है लेकिन मुझे उस का मौक़ा न मिला लेकिन एक रोज़ उस से सर-ए-राह मुलाक़ात हो गई। मैं ने सरसरी तौर पर उस से पूछा तो उसने सिर्फ़ इतना कहा। “मैंने वो क़िस्सा ख़त्म कर देने की ठानी थी। चुनांचे हो जाएगा।”
वो कार में था, मैं पैदल था और उस को उजलत भी थी इसलिए ज़्यादा बातें न हो सकें। चंद रोज़ के बाद मालूम हुआ कि आसिफ़ एक बहुत बड़ी पार्टी के साथ रवाना हो गया है। इस के बाद ये इत्तिला मिली कि लाहौर में इस की शादी बड़े ठाट से हुई। ख़म के ख़म लंढाए गए। मुजरे हुए और राग रंग की कई महफ़िलें जमी फिर सुना कि आसिफ़ अपनी नई-नवेली दुल्हन के साथ बंबई पहुंच चुका है और पाली हिल बांद्रा में उसने एक कोठी का निस्फ़ हिस्सा किराए पर उठा लिया है लेकिन बाद में मालूम हुआ कि पूरी कोठी नज़ीर के पास थी जिसने आधी अपने भांजे को दे दी।
ये बड़ा ख़ुशगवार इन्क़िलाब था। मुझे मालूम नहीं सितारा का रद्द-ए-अमल क्या था लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अरोड़ा के हाँ वो अक्सर जाया करती थी और वो भी उस के हाँ अक्सर आया करता था।
उन दिनों आसिफ़ पाली हिल में रहता था। नई-नवेली दुल्हन पास थी। मेरा ख़याल है कि वो उन दिनों मुग़ल-ए-आज़म की तैयारियों में मसरूफ़ था। उस की कहानी कमाल अमरोही ने लिखी थी मगर आसिफ़ उस से मुतमइन नहीं था। उसने कई इंशा-प्रदाज़ों से मश्वरा लिया था मगर वो फिर भी मुतमइन नहीं था।
इस ज़िम्न में आपको कई लतीफ़े सुना सकता हूँ मगर उनसे कोई मतलब हल नहीं होगा। कहना सिर्फ़ ये है कि आसिफ़ और उस की नई-नवेली बीवी, सुनहरे जलओं की ब्याही। चंद रोज़ इकट्ठे रहे। इस के बाद ये देखने में आया कि आसिफ़ साहब घर से ग़ायब हैं और रातें सितारा के साथ गुज़ारते हैं।
ये शादी ज़्यादा देर तक क़ायम न रही। नज़ीर का नौजवान लड़का भी वहीं था। मालूम नहीं क्या हुआ कि आसिफ़ ने अपनी बीवी के पास जाना छोड़ दिया। नाचाक़ी हुई, उस के बाद पता चला कि तलाक़ होने वाली है और इस दौरान में आसिफ़ बराबर सितारा के यहां जाता था।
उस से ये भी मालूम हुआ कि सितारा कारीगर है। उस का मुक़ाबला नई-नवेली दुल्हन नहीं कर सकती। चुनांचे चंद महीनों के बाद आसिफ़ की दुल्हन अपने घर वापस चली गई और बाद में मालूम हुआ कि तलाक़ हो गई है।
अब फिर आसिफ़ और सितारा इकट्ठे थे। आसिफ़ की ब्याहता बीवी के मुताल्लिक़ कई अफ़साने मशहूर हैं मगर मैं उनका ज़िक्र करना नहीं चाहता इसलिए कि मुझे उनकी सदाक़त के मुताल्लिक़ अच्छी तरह इल्म नहीं।
मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि आसिफ़ ने ब्याह किया। लाहौर में बड़े ठाट की मजलिसें जमीं, उस के बाद आसिफ़ अपनी बीवी को लेकर बंबई आया। पाली हिल पर ठहरा और दो तीन महीने के अंदर अंदर उसने अपनी बीवी को छोड़ दिया। उस की वजह सितारा के सिवा और क्या हो सकती थी।
सितारा मर्दुम-शनास औरत है। उस को वो तमाम ढब आते हैं जो मर्द को अपने तरफ़ राग़िब कर सकते हैं बल्कि यूं कहिए कि उसे दूसरी औरतों के लिए बिलकुल नाकारा बना देते हैं। यही वजह है कि आसिफ़ ने अपनी बीवी को छोड़ दिया और सितारा की आग़ोश में चला गया इसलिए कि उस में कशिश थी।
आसिफ़ की शादी अपने ख़ानदान में हुई थी। इस ख़ानदान के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ रिवायात मशहूर हैं लेकिन मैं उनका तज़किरा करना नहीं चाहता।
आसिफ़ ने अपनी ब्याहता बीवी को छोड़ दिया शायद इसलिए कि उस में वो ख़ुसूसियतें मौजूद नहीं थीं जो सितारा में थीं, शायद इसलिए कि आसिफ़ कुंवारी लड़की का क़ाइल नहीं था बहर-हाल जो नतीजा बरामद हुआ वो हर शख़्स को मालूम है।
आसिफ़ की नई-नवेली दुल्हन चली गई और आसिफ़ ने फिर से सितारा के यहां क़याम शुरू कर दिया, इस क़याम के दौरान में अजीब-ओ-ग़रीब अफ़्वाहें मुंतशिर हुईं मगर उनके मुताल्लिक़ कुछ कहना नहीं चाहता।
मैं ने ये मज़मून लिखा है। मुझे मालूम है कि आसिफ़ मुझ से नाराज़ नहीं होगा इसलिए कि वो बड़े ज़र्फ़ का आदमी है, सितारा यक़ीनन नाराज़ होगी... मगर वो मुझे थोड़ी देर के बाद बख़्श देगी इसलिए कि उस का ज़र्फ़ भी छोटा नहीं है। वो बड़ी क़द-आवर औरत है (हालाँकि उस का क़द बहुत पस्त है...) वो मुझे मालूम नहीं कैसा आदमी समझती है मगर में उसे ब-हैसियत औरत के ऐसी औरत समझता हूँ जो सौ साल में शायद एक मर्तबा पैदा होती है।
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