'मीर' ओ 'ग़ालिब'
एक शाएर ने ग़ज़ल भेजी किसी अख़बार में
ताकि शोहरत हो अदब के मो'तबर बाज़ार में
कुछ दिनों तो उस को छपने का रहा इक इंतिज़ार
पहुँचा आख़िर मालिक-ए-अख़बार के दरबार में
हो के बरहम जाते ही शिकवा एडीटर से किया
ये तो बतलाएँ कमी क्या थी मेरे अशआर में?
आप को ये क्या ख़बर था मुझ को कितना इज़्तिराब
नींद हफ़्तों तक न आई दीदा-ए-बेदार में
ये एडीटर ने कहा मैं छापता कैसे ग़ज़ल?
वो बुलंदी ही न थी जो चाहिए अफ़्कार में
शेर कोई ख़ाना-ए-दिल में उतरता ही नहीं
ना मुसीबत ये कमी है काविश-ए-फ़नकार में
जिस को कहता है ज़माना ग़ैर-मेयारी कलाम
छप नहीं सकता कभी हरगिज़ मिरे अख़बार में
सुन के इस रीमार्क को मग़्मूम शाएर ने कहा
'मीर' ओ 'ग़ालिब' भी नहीं कुछ आप के दरबार में
कुल्लियात-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' से ग़ज़ल लाया था मैं
आज वो भी छप न पाई आप के अख़बार में!
- पुस्तक : Papular Kalam (पृष्ठ 95)
- रचनाकार : Sayed Ejazuddin Shah Papular Merthi
- प्रकाशन : S.K. Rastogi for Krishna Prakashan Media (P) Ltd.
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