तुझ में ऐ हिन्दोस्ताँ कुछ आज-कल हद से सिवा
चार-सू फैली हुई है शायरी की इक वबा
इस मरज़ में अब तो अस्सी फ़ीसदी हैं मुब्तला
मुस्तनद शाएर है जिस ने इक तख़ल्लुस रख लिया
शायरी गो अहद-ए-माज़ी में थी पायान-ए-उलूम
अब तख़ल्लुस में सिमट कर आ गई जान-ए-उलूम
ऐ अजाइब-ख़ाना-ए-हस्ती की जिंस-ए-बे-बहा
अहद-ए-मौजूदा के शाएर वाह क्या कहना तिरा
तेरी कसरत हर जगह मरदुम-शुमारी से सिवा
तू फ़रिश्ता है बशर की शक्ल में इस अहद का
तुझ को खाने से न कुछ मतलब न कुछ पीने से काम
शेर कह कह कर सुनाने और फ़क़त जीने से काम
है बहुत तकलीफ़-दह शाएर की वो जिंस-ए-अजीब
जो सुनाने के लिए बेचैन रहता हो ग़रीब
उस को अच्छा कर नहीं सकता कोई कामिल तबीब
शाएरी की जिस को बद-हज़मी हो हैज़ा के क़रीब
चाहता है सब सुना दूँ जो कहूँ इक साल में
मुब्तला है शायरी के सख़्त-तर इस्हाल में
नज़्म कर लेता है सब कुछ इतनी आसानी के साथ
जिस तरह बहते हैं तिनके तेज़-रौ पानी के साथ
जब कि तू लेता नहीं अपने दिमाग़ ओ दिल से काम
सहल से है तुझ को मतलब और क्या मुश्किल से काम
सब को क़िल्लत वक़्त की तुझ को फ़रावानी मिली
संग को इंसान की शक्ल-ए-हयूलानी मिली
कस्ब-ए-ज़र सब के लिए तुझ को ग़ज़ल-ख़्वानी मिली
मुफ़्त की बे-गार करने को सुख़न-दानी मिली
हर ज़रूरत तेरी इक झूटा बहाना बन गई
माज़रत तक आह उज़्र-ए-शाइराना बन गई
कुछ सऊबात-ए-सफ़र होते नहीं माना तुझे
सोहबत-ए-शेर-ओ-सुख़न में फ़र्ज़ है जाना तुझे
काम शब भर जागना मिसरे का दोहराना तुझे
हर ग़ज़ल की दाद देना और चिल्लाना तुझे
तेरी शिरकत लाज़मी हर शहर में हर गाँव में
सर में सौदा-ए-सुख़न और सनीचर पाँव में
देख तेरी क़द्र यूँ करते हैं तेरे क़द्र-दाँ
कोई मेला हो कहीं पर या नुमाइश या निहाँ
जिस में सर्कस भी हो दंगल में लड़ें कुछ पहलवाँ
याद कर लेते हैं भूले से तुझे भी मेहरबाँ
देते हैं लालच मेडल का तेरी इज़्ज़त के लिए
थर्ड का तुझ को टिकट मिलता है शिरकत के लिए
ये भी जब काफ़ी ज़मानत हो कि शाएर आएगा
ये किराया तो कहीं ले कर न खा जाएगा
एक भरती करने वाला ख़ुद टिकट दिलवाएगा
अपनी हम-राही में तुझ को रेल पर बिठलाएगा
पढ़ न ले जब तक ग़ज़ल होती रहेगी देख-भाल
बअ'द इस के एक वोटर और शाएर का मआ'ल
ये भी है शाएर के ज़िम्मे इक ज़रूरी और काम
जब ग़ज़ल पढ़ने शरीक-ए-बज़्म हो ये नेक-नाम
अपने जूतों का करे अपनी बग़ल में इंतिज़ाम
वर्ना नंगे पैर घर आना पड़ेगा वस्सलाम
बज़्म में कुछ क़दर-दाँ इस क़िस्म के आ जाएँगे
छाँट कर अक्सर नए जूते चुरा ले जाएँगे
पैसे वालों की समझ में आ गई है अब ये बात
सर्फ़-ए-बेजा नाच-गाने का है बिल्कुल वाहियात
जब कोई जल्सा ख़ुशी का हो कहीं पर हो बरात
मुनअक़िद बज़्म-ए-सुख़न होती है ता कट जाए रात
पहले अरबाब-ए-नशात आते थे गाने के लिए
अब तो शाएर जाते हैं ग़ज़लें सुनाने के लिए
याद-ए-अय्यामे कि शाएर को ज़बाँ पर नाज़ था
क़ुव्वत-ए-तख़ईल ही सरमाया-ए-एज़ाज़ था
लफ़्ज़ ही में सोज़ था और लफ़्ज़ ही में साज़ था
नग़्मा-ए-शाएर का रूहुल-क़ुद्स हम-आवाज़ था
अब अगर क़ाबू हो इन पर तो मिले शाएर को दाद
सर-रखब गंधार मद्धम पंजम और धेवत-निखार
रफ़्ता रफ़्ता बढ़ गया गर शौक़-ओ-ज़ौक़-ए-नग़्मा-साज़
शाएर अब आएँगे महफ़िल में पहन कर पेशवाज़
ख़त्म इस फ़िक़रा पे होगी हर ग़ज़ल उस्ताद की
सुनिए मैं हों जानकी-बाई इलाहाबाद की
तू नमूना सर-ब-सर अख़्लाक़ ओ ख़ुद्दारी का था
इक सफ़ा आईना तो क़ुदरत-ए-बारी का था
तू मुआलिज नफ़्स-ए-अम्मारा की बीमारी का था
तू ज़रीया मुल्क और मिल्लत की बेदारी का था
कितनी इबरत-ख़ेज़ शय अब आलम-ए-हस्ती में है
जिस ने क़ौमों को उभारा था वही पस्ती में है
पेशा-वर जितने हैं इन की मुल्क में इज़्ज़त तो है
कम सही लेकिन हर इक सनअ'त की कुछ क़ीमत तो है
हर ज़रूरत पर किसी सन्नाअ की हाजत तो है
जुज़ तिरे हर अहल-ए-फ़न की कुछ न कुछ उजरत तो है
क़िस्मत-ए-बर्बाद तेरी बन के उड़ जाती है भाप
है सिला तेरा यही क्या ख़ूब फ़रमाते हैं आप!
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