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जब भी राज़-ए-कुन-फ़काँ कहना पड़ा

रईस-उस-शाकरी

जब भी राज़-ए-कुन-फ़काँ कहना पड़ा

रईस-उस-शाकरी

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    जब भी राज़-ए-कुन-फ़काँ कहना पड़ा

    रहमतों को बे-कराँ कहना पड़ा

    ग़ुर्बतों में गुम्बद-ए-ख़ज़रा की छाओं

    बे-मकानों का मकाँ कहना पड़ा

    नग़्मा-ए-तौहीद और ‘इश्क़-ए-रसूल

    क़िस्सा-ए-हर्फ़-ए-अज़ाँ कहना पड़ा

    पाँव उस ने जिस ज़मीं पर रख दिए

    उस ज़मीं को आसमाँ कहना पड़ा

    पत्थरों में नर्म लहजे की बहार

    दश्त को भी गुलसिताँ कहना पड़ा

    वो मुसाफ़िर फिर वो अंदाज़-ए-सफ़र

    रह-गुज़र को कहकशाँ कहना पड़ा

    रहमतों की फ़स्ल के सच्चे गुलाब

    बाग़बाँ को बाग़बाँ कहना पड़ा

    ख़ूबसूरत जिस्म-ओ-जाँ का इत्तिहाद

    दो नफ़स का इम्तिहाँ कहना पड़ा

    वो इशारे फिर मिरा दस्त-ए-हुनर

    सहल है कार-ए-जहाँ कहना पड़ा

    रहमतों के शग़्ल को मुँह चाहिए

    हर सुख़न को बे-ज़बाँ कहना पड़ा

    ना'तिया शे'र-ओ-अदब में 'रईस'

    एक बूढ़े को जवाँ कहना पड़ा

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