ख़बर वहशत-असर थी
ख़बर वहशत-असर थी
उसे ऐसे लगा
जैसे ज़मीं पाँव के नीचे से सरकती जा रही है
तबक़ सातों के सातों आसमाँ के इस के सर पर आ गिरे हैं
इक धमाके से
नज़र के सामने हद्द-ए-नज़र तक एक काली धुँद के
मंज़र शिकन पर्दे
ज़मीं से आसमाँ तक तन गए हैं
हवा के पाँव में मन मन की ज़ंजीरें पड़ी हैं
उधर दिल को टटोला तो लगा उसे
कि जैसे आसमाँ की वुसअ'तों में कोई तय्यारा घिरा हुआ आँधियों में
और गिर्दाब हवाई में मुसलसल पै-ब-पै खाता हो हचकोले
उधर चेहरे को देखा तो लगा ऐसे
कि जैसे उस किताब-ए-ज़िंदगी से
सारे हर्फ़ों की चमकती रौशनाई उड़ चुकी हो
ख़लिश ऐसे थी सीने में
कि जैसे कोई काँटे-दार झाड़ी पर महीन मलमल को बेदर्दी से खींचे
और तार-ओ-तार कर डाले
लहू सारे बदन का खिंच के आँखों के शिकस्ता जाम-ओ-मीना से
टपकना चाहता था
उसे इस हाल में देखा तो आईने चटख़ कर रेज़ा रेज़ा हो गए
और आरज़ू के उस बहिश्त-आबाद की सब चीज़ें
अपने अपने मरकज़ से लगीं हटने
फ़लक को चूमने वाले कलस और कंगरे पल-पल भर में मिट्टी चाटते थे
और धरती की शिकस्ता जा-ब-जा कट जाने वाली
सर्द रेखाओं में अपने ठोकरें खाते मुक़द्दर ढूँडते थे
दरख़्त अपनी जगह से हिल गए
और उन की शाख़ों पर लदा सब बौर
फल बनने से पहले झड़ गया
ग़रज़ हर शय पे वहशत थी
ख़बर ही इस क़दर वहशत-असर थी
सुना है जब दिलों की लहलहाती खेतियाँ बर्बाद होती हैं
तो ऐसे ज़लज़ले आया ही करते हैं
- पुस्तक : Shakh-e-Zaryab (पृष्ठ 70)
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