क़ब्रिस्तान में ख़ुद-कलामी
मिरे पास
मौत के बहुत से ऑपशन्ज़ हैं
मैं किसी भी वक़्त कहीं भी मारा जा सकता हूँ
मोबाइल छीनने वाला नौजवान
मुझे टख़ने पर गोली मार सकता है
पुलिस के नाके पर न रुकने की पादाश में
मुझे थाने के अंदर मारा जा सकता है
रात के पिछले पहर
घर में घुसने वाला डाकू काली जेब होने के जुर्म में
मुझे बंदूक़ के हिट-मार्के से हलाक कर सकता है
जी पी फ़ंड के हुसूल की ख़ातिर
मैं
ए-जी ऑफ़िस की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
दिल के दौरे से भी मर सकता हूँ
और
किसी गुंजान मार्किट या मस्जिद में होने वाले धमाके में बा-आसानी
शहादत पा सकता हूँ
अब तो
ग़ुर्बत की लकीर से लटक कर
मेरे भूक से मरने के इम्कानात भी पैदा होने लगे हैं
अगरचे जंग में काम आने का ज़माना गुज़र चुका है
मगर बाज़ मुक़द्दस दुश्मन
मेरी मौत के एवज़ जन्नत के तलबगार हैं
मेरी समाजी मौत से अब किसी को कोई फ़ाएदा नहीं
हत्ता कि मुझे भी नहीं
मगर प्लाट माफ़िया के अलावा ज़ख़ीरा-अंदोज़ और सट्टे-बाज़
मेरी मौत के मुंतज़िर हैं
और
उन्हों ने मुझे बे-तौक़ीर कर के
सड़क पर मेरी ख़ुद-सोज़ी का रास्ता कुशादा कर दिया है
जम्हूरियत और इंसानी हुक़ूक़ की बाज़याफ़्त के लिए मरना मेरा ख़्वाब था
मगर
बच्चों की फीसें अदा करने के लिए और टाइम लगाने के बाइ'स
मेरे पास ऐसी अय्याशी के लिए वक़्त नहीं
सो
मैं ब-क़ाएमी होश-ओ-हवास ऐसे फ़र्सूदा नज़रियात को मुस्तरद करता हूँ
रात देर गए
घर लौटते हुए
राह-गीरी मौत मारे जाना मेरी हरगिज़ तरजीह नहीं
मगर उस में हर्ज भी क्या है
कि उस के एवज़ सरकारी ख़ज़ाने से पाँच लाख रूपए मिलते हैं
मैं
ज़िंदा रहने के इम्कानात से तक़रीबन महरूम किया जा चुका हूँ
मगर न-जाने क्यूँ
मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ
- पुस्तक : Duniyazad (पृष्ठ 158)
- रचनाकार : Asif Farrakhi
- प्रकाशन : AG Printing Services Karachi (2005)
- संस्करण : 2005
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