आदम-ए-नौ का तराना-ए-सफ़र
फ़रेब खाए हैं रंग-ओ-बू के सराब को पूजता रहा हूँ
मगर नताएज की रौशनी में ख़ुद अपनी मंज़िल पे आ रहा हूँ
जो दिल की गहराइयों में सुब्ह ज़ुहूर-ए-आदम से सो रही थीं
मैं अपनी फ़ितरत की उन ख़ुदा-दाद क़ुव्वतों को जगा रहा हूँ
मैं साँस लेता हूँ हर क़दम पर कि बोझ भारी है ज़िंदगी का
ठहर ज़रा गर्म-रौ ज़माने कि मैं तिरे साथ आ रहा हूँ
जहाज़-रानों को भी तअ'ज्जुब है मेरे इस अज़्म-ए-मुतमइन पर
कि आँधियाँ चल रही हैं तुंद और मैं अपनी कश्ती चला रहा हूँ
तिलिस्म-ए-फ़ितरत भी मुस्कुराता है मेरी अफ़्सूँ-तराज़ियों पर
बहुत से जादू जगा चुका हूँ बहुत से जादू जगा रहा हूँ
ये मेहर-ए-ताबाँ से कोई कह दे कि अपनी किरनों को गिन के रख ले
मैं अपने सहरा के ज़र्रे ज़र्रे को ख़ुद चमकना सिखा रहा हूँ
मिरा तख़य्युल मिरे इरादे करेंगे फ़ितरत पे हुक्मरानी
जहाँ फ़रिश्तों के पर हैं लर्ज़ां मैं उस बुलंदी पे जा रहा हूँ
ये वो घरौंदे हैं जिन पे इक दिन पड़ेगी बुनियाद-ए-क़स्र-ए-जन्नत
न समझें सुक्कान-ए-बज़्म-ए-इस्मत कि मैं घरौंदे बना रहा हूँ
ये नाज़-परवरदगान-ए-साहिल डरें डरें मिरी गर्म रौ से
कि मैं समुंदर की तुंद मौजों को रौंदता पास आ रहा हूँ
- पुस्तक : Intikhab-e-Kalam-e-Jameel Mazhari (पृष्ठ 121)
- रचनाकार : Kausar Mazhari
- प्रकाशन : Sahitya Academy (2011)
- संस्करण : 2011
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