अधूरा ख़्वाब
शहर कैसे ये अजनबी ठहरा
कैसे पहचान खो गई मेरी
अब कोई जानता नहीं मुझ को
सोचता हूँ तो काँप जाता हूँ
सहमे सहमे से हैं दर-ओ-दीवार
खिड़कियाँ देख कर तअ'ज्जुब से
गुफ़्तुगू कर रही हैं आपस में
कौन आया है मिलने बरसों बाद
कह रही है ये मुझ से क्या अँगनाई
पूछती है कहाँ से आए हो
कुछ बताओ तो किस से मिलना है
सोचता हूँ कहूँ मैं क्या उस से
मेरी बातों को कब ये मानेगी
मेरे क़िस्सों को झूट जानेगी
जिस से मिलना था वो नज़र ही नहीं
हाए अब कोई मुंतज़िर ही नहीं
ज़ेहन ये सोचने पे है मजबूर
वाक़ई देर हो गई है क्या
रास्ते में कहीं रुका ही नहीं
देर कैसे हुई फिर आने में
- पुस्तक : مرے تصور میں رنگ بھردو (पृष्ठ 111)
- रचनाकार : بسمل عارفی
- प्रकाशन : نور پبلی کیشن، دریا گنج،نئی دہلی (2019)
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