मैं चाहती हूँ
कि अगली रुत में मिलूँ जो तुम से
जनम जनम की थकावटों के ख़ुतूत चेहरे से मिट चुके हों
क़दम क़दम इक सफ़र की पिछली अलामतें सब गुज़र चुकी हों
मलाल-ए-सहरा-नवर्दी पाँव के आबलों में सिमट चुका हो
मुसाफ़िरत की तमाम रंजिश
मिरे मसामों से धुल चुकी हो
किसी भी पत्थर का कोई धब्बा
किसी भी चौखट का कोई क़र्ज़ा
मिरी जबीं पर रहे न लर्ज़ां
मैं चाहती हूँ कि अगली रुत में मिलें जो हम तुम
दमक रहा हो यूँ मेरा दामन
कि तुम जो चाहो
नमाज़ पढ़ लो
- पुस्तक : azadi ke bad urdu nazm (पृष्ठ 755)
- रचनाकार : shamim hanfi and mazhar mahdi
- प्रकाशन : qaumi council bara-e-farogh urdu (2005)
- संस्करण : 2005
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