अलाव
हम अजनबी थे मुसाफ़िर थे ख़ाना-वीराँ थे
और इस अलाव के रक़्साँ हिनाई बातों ने
बुला लिया हमें अपने हसीं इशारों से
तो इस की रौशनी-ए-अहमरीं की ताबिश में
ख़ुद अपने आप को इक दूसरे से पहचाना
कि हम वो ख़ाना-बदोशान-ए-ज़ीस्त हैं जिन को
अज़ल से अपने ही जैसे मुसाफ़िरों की तलाश
किए हुए है इन्ही दश्त-ओ-दर में सर-गरदाँ
हमारी अपनी सदा अजनबी थी अपने लिए
दिलों ने पहले-पहल ज़ेर-ए-लब कहा हम से
कि अहल-ए-ज़र्फ़-ओ-ग़रीबान-ए-शहर-ए-एहसासात
तरस रहे हैं सुख़न-हा-ए-ग़ुफ़्तनी के लिए
और इस अलाव के शो'लों ने हम से बातें कीं
हमारी गुंग ज़बानों को फिर ज़बानें दीं
और अपनी अपनी सुनाईं कहानियाँ हम ने
कहानियाँ जो हक़ीक़त में एक जैसी थीं
फिर इस अलाव ने हम से कहा कि दीवानो
वो शय जो शो'ला-फ़िशाँ है तुम्हारे सीनों में
उसी को ज़ीस्त का रौशन अलाव कहते हैं
यही अलाव है जिस ने मुहीब रातों में
शुऊ'र-ए-शो'ला-तराज़ी अता किया तुम को
इसी अलाव से उभरा है आरज़ू का फ़ुसूँ
इसी अलाव से सीखा है तुम ने इस्म-ए-जुनूँ
और इस के बा'द मुझे याद है कि हम सब ने
ये एक अहद किया था इसी अलाव के गिर्द
कि इस की आग में ख़ाशाक-ए-ग़म जलाएँगे
और इस अलाव को अपना ख़ुदा बनाएँगे
- पुस्तक : namuud (पृष्ठ 154)
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