बड़े शहर का ख़्वाब
बड़ा शहर बड़ा शहर, बड़ा शहर बड़ा शहर
किसी के लिए तू बाइस-ए-तमानियत
किसी के लिए तू सामान-ए-मसर्रत
और किसी के लिए है तू, सरासर क़हर
बड़े शहर की चाह में, जाने कितने तबाह हुए
कितने रूठे अपनों से
कितने छूटे हम-वतनों से
लम्हा लम्हा उलझते रहे
सच्चे झूटे सपनों से
बड़े शहर का ख़्वाब लिए, हर पल नया अज़ाब लिए
भागते रहे तमाम उम्र, पेश-ए-नज़र सराब लिए
ला-हासिली का ख़्वाब लिए
घोड़े के आगे घास हो जैसे
हर साँस नई आस हो जैसे
जीने की उमंग में
मरते रहे, मरते रहे
जन्नत पाँव की छोड़ के, ठंडक गाँव की छोड़ के
रूह जलती रही तमाम उम्र, बदन की चिता में
ज़िंदगी अज़ाब लिए
बड़े शहर का ख़्वाब लिए
जलते रहे, तपते रहे, बड़े बनने के फ़िराक़ में
शॉर्टकट लेते रहे
रातों-रात, अमीर बनने की ताक में
हम चलते रहे, चलते रहे
बड़े शहर की चाह में, जाने कैसे कैसे गुनाह किए
यहाँ तक कि आँखें हमारी पथरा गईं, पाँव हमारे शल हुए
इंसानियत हम से छिन गई, हम दरिंदों के मिस्ल हुए
ख़ुशियों की तलाश में, हम जीते-जी लाश हुए
इस क़दर बेहिस-ओ-बद-हवास हुए, हम ख़ुद से ही उदास हुए
बड़ा शहर बड़ा शहर, बड़ा शहर बड़ा शहर
बे-ईमानियों की डगर, बद-उनवानियों का नगर
सच है तेरी चाह में, जाने कितने तबाह हुए
सारा गाँव अपनों से ख़ाली हो गया
मातमी फ़ज़ा में, अब हर तरफ़ हसरत-ओ-यास है
फिर भी बड़े शहर की प्यास है कि कभी बुझती नहीं
एक ख़िल्क़त है कि कभी रुकती नहीं!
एक हिजरत है कि कभी रुकती नहीं!
ज़िंदगी किसी से हार जाए, ये कभी मुमकिन नहीं
ज़िंदगी किसी से मात खाए, ये भी अब मुमकिन नहीं
ज़िंदगी रुकती नहीं!!
ज़िंदगी झुकती नहीं!
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