इक बिसात-ए-वुजूद-ओ-बदन के तहत
सालहा-साल तक
हम से 'उर्यानियत का 'अजब खेल खेला गया
हम शिकस्ता रहे
तुम अज़ल से ग़लत चाल चलते रहे
हम तुम्हारी ज़हानत सराहा किए
तुम हमारे सभी फ़लसफ़े जिस्म के ज़ावियों पर परखते रहे
तुम तो दस्त-ए-हुनर का तराशीदा फ़न छोड़ कर
उस की अंगुश्त-ए-मख़रूत के ख़ाल-ओ-ख़त से उलझते रहे
और ख़यालात के पोरों से लिपटा बेबस क़लम
चीख़ता रह गया
इब्न-ए-आदम की ये फ़ितरी मजबूरियाँ
आपसी रंजिशों के तईं
बीच बाज़ार में अपनी माओं को तुम ने बरहना किया
अपनी बहनों के सर से रिदा नोच ली
और जीवन के कमज़ोर लम्हात में
जो क़बाएँ तुम्हारे लिए आसरा थीं वो सब
कुछ खनकते हुए क़हक़हों के 'एवज़
चाय-ख़ानों की मेज़ों पे नीलाम कीं
राह चलते ग़लाज़त भरे फ़िक़रे कसते रहे
मो'तबर बैठकों में निजासत परोसी गई
हम को ना-करदगी की सज़ा दी गई
और तुम्हारी तलाफ़ी को जरगे बुलाए गए
आख़िरश
तीरगी जब उजाले निगलने लगी
ताक़चों में सजे
फिर तुम्हारे वदी'अत-शुदा
ये नज़ाकत के सारे दिए
अपने सीने की आतिश से रौशन किए
और तुम्हारे तक़ाज़ों के मद्द-ए-नज़र
हम ने बिस्तर की शिकनों से मिसरे चुने
देखो ये खेल की आख़िरी चाल है
हर्फ़ को जिस्म बनते हुए देख लो
मेरी नज़्मों की दोशीज़गी की क़सम
इन में मौजूद लफ़्ज़ों का 'उर्यां बदन
दस्तरस से परे
और दस्त-ए-तख़य्युल से भी दूर है
सो तुम्हारी ये ज़िल्लत भरी बेबसी देख कर
इंतिक़ामी बदन का हर इक रेशा रेशा बड़ी ज़ोर से
क़हक़हे मार के हंस पड़ा
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