बुज़दिल
हुजूम-ए-संग-ए-अना और ज़ब्त-ए-पैहम ने
मिसाल-ए-रेग-ए-रवाँ बे-क़रार रक्खा है
मिरे वजूद की वहशत ने रात भर मुझ को
ग़ुबार-ए-क़ाफ़िला-ए-इंतिज़ार रक्खा है
ब-पेश-ए-ख़िदमत-ए-चश्म-ए-सराब-आलूदा
हवा ने दस्त-ए-तलब बार बार रक्खा है
मैं तेरी याद के जादू में था सहर मुझ को
न-जाने कौन सी मंज़िल पे ला के छोड़ गई
कि साँस साँस में तेरे बदन की ख़ुशबू है
क़दम क़दम पे तिरी आहटों का डेरा है
मगर नज़र में फ़क़त शब-ज़दा सवेरा है
तही तही से मनाज़िर हैं गर्द गर्द फ़ज़ा
मता-ए-उम्र वही एक ख़्वाब तेरा है
तिरे जमाल का परतव नहीं मगर फिर भी
ख़याल आईना-ख़ाना सजाए बैठा है
जिधर भी आँख उठाता हूँ एक वहशत है
तू ही बता कि कहाँ तक फ़रेब दूँ ख़ुद को
कि मेरा अक्स मिरे ख़ौफ़ की शहादत है
मिरा वजूद है और शहर-ए-संग-बाराँ है
बचाऊँ जान कि तामीर-ए-क़स्र-ए-ज़ात करूँ
मैं अपना हाथ बग़ल में दबाए सोचता हूँ
मिरे नसीब में सूरज कहाँ जो बात करूँ
मैं वादियों की मसाफ़त से किस लिए निकलूँ
सफ़र इक और पहाड़ों के पार रक्खा है
- पुस्तक : Barzakh (पृष्ठ 62)
- रचनाकार : Amjad Islam Amjad
- प्रकाशन : Mawara Publishers, Bahawalpur Road Lahore (1986)
- संस्करण : 1986
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