थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
बनाया है चिड़ियों ने जो घोंसला
सो एक एक तिनका इकट्ठा किया
गया एक ही बार सूरज न डूब
मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है ग़ुरूब
क़दम ही क़दम तय हुआ है सफ़र
गईं लहज़े लहज़े में उम्रें गुज़र
समुंदर की लहरों का ताँता सदा
किनारे से है आ के टकरा रहा
समुंदर से दरिया से उठती है मौज
सदा करती रहती है धावा ये फ़ौज
करारूँ को आख़िर गिरा ही दिया
चटानों को बिल्कुल सफ़ा-चट किया
बरसता जो मेंह मूसला-धार है
सो ये नन्ही बूँदों की बौछार है
दरख़्तों के झुण्ड और जंगल घने
यूँही पत्ते पते से मिल कर बने
हुए रेशे रेशे से बन और झाड़
बना ज़र्रे ज़र्रे से मिल कर पहाड़
लगा दाने दाने से ग़ल्ले का ढेर
पड़ा लम्हे लम्हे से बरसों का फेर
जो एक एक पल कर के दिन कट गया
तो घड़ियों ही घड़ियों बरस घट गया
लिखा लिखने वाले ने एक एक हर्फ़
हुईं गड्डियाँ कितनी काग़ज़ की सर्फ़
हुई लिखते लिखते मुरत्तब किताब
इसी पर हर इक शय का समझो हिसाब
हर इक इल्म-ओ-फ़न और कर्तब हुनर
न था पहले ही दिन से इस ढंग पर
यूँही बढ़ते बढ़ते तरक़्क़ी हुई
जो नेज़ा है अब था वो पहले सुई
जुलाहे ने जोड़ा था एक एक तार
हुए थान जिस के गज़ों से शुमार
यूँही फुइयों फुइयों भरे झील ताल
यूँही कौड़ी कौड़ी हुआ जम्अ माल
अगर थोड़ा थोड़ा करो सुब्ह ओ शाम
बड़े से बड़ा काम भी हो तमाम
- पुस्तक : Bchchaun ke ismail meruthi (पृष्ठ 47)
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