धुँद
रौशन रौशन रौशन
आँखें यूँ मरकूज़ हुई हैं जैसे मैं ही मैं हूँ
मुझ में ला-तादाद फ़साने और मआनी हैं
मैं सद-हा असरार छुपाए फिरता हूँ
मैं ख़ुश-क़िस्मत हूँ मेरे साथ जहान-ए-रंग-ओ-रानाई है
और दरीचा-बंद निहाँ-ख़ानों से रूह-ए-यज़्दाँ की ख़ुश्बू उठती है
मेरा सर ओ मशाम मोअत्तर करती है
और मिरी तक़दीर जहाँ पर ख़ल्क़ हुई है
जो अरमान किसी के दिल में है मैं उस की ख़ुश्बू हूँ
वा-हसरत का अर्ज़ ओ समा में फैला नग़्मा
जब महबूब तलक जा पहुँचे
तो फिर मैं आवाज़ नहीं रहता हूँ
और न शिरयानों का बहता ख़ून-ख़राबा
बल्कि लफ़्ज़-ए-मुतलक़ बन जाता हूँ
आँखें यूँ मरकूज़ हुई हैं जैसे मैं ही मैं हूँ और नहीं है कोई
सच्ची बात मगर है इतनी
मैं मुरदार समुंदर हूँ
एहसास ज़ियाँ का झोंका है
आँखें बोल नहीं सकती हैं
और बदन बीनाई से महरूम हुआ है
लेकिन मैं तो अब तक ख़्वाब-ज़दा तस्वीरें देख रहा हूँ
और समुंदर के पर्बत पर ठहरा जंगल
बीते गीतों से पुर जंगल
अज़ली ख़ामोशी के हाले में थर-थर काँप रहा है
सदियाँ साए शोख़ फ़सीलें आमन्ना सद्दक़ना
ऐ-लो! सूरज चाँद सितारे धरती के सीने पर उतरे
मेरी राहगुज़र पर बिखरे
हल्की मद्धम और मुसलसल हरकत
मंज़िल फूल कँवल का फूल अदम के बहर-ए-बे-पायाँ में
तन्हा झूले
बाहर पर मरकूज़ निगाहों से मख़्फ़ी लफ़्ज़-ए-मुतलक़
तन्हा और उदास कँवल पर झिलमिल झिलमिल फूट बहा
मौहूम रिदा-ए-कोह-ओ-दश्त-ओ-दमन
दुनिया-ए-मन-ओ-तू पर छाई
फीकी फीकी हो कर फैल गई धूल बनी
अपना गाँव, गोरी के पाँव तक धुँदलाए
फैली रौशन और निराली धुँद, और धुँद और धुँद
- पुस्तक : Nai Nazm ka safar (पृष्ठ 211)
- रचनाकार : Khalilur Rahman Azmi
- प्रकाशन : NCPUL, New Delhi (2011)
- संस्करण : 2011
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