दीवाली
दर-ओ-दीवार पर छाई है उदासी ग़म की
महव-ए-हैरत है ख़ुशी दीदा-ए-हैराँ की तरह
कोई झोंका कोई आहट कोई आवाज़ नहीं
रात वीराँ है किसी शहर-ए-ख़मोशाँ की तरह
दिन ढले देख लिया था कोई उड़ता बादल
कुनमुनाती है फ़ज़ा मौसम-ए-बाराँ की तरह
दूर परदेस की राहों में भटकते राही
दिल में फिर याद तिरी आई है मेहमाँ की तरह
वो सर-ए-शाम दर-ओ-बाम पे जलते दीपक
क्या मिरी तरह तुझे याद नहीं आते हैं
रौशनी में वो नहाए हुए उजले मंज़र
क्या निगाहों में तिरी आज भी लहराते हैं
क्या वो बीते हुए पुर-नूर चहकते लम्हे
आज भी दिल में तिरे गीत कोई गाते हैं
क्या तिरे ख़्वाब ग़म-ए-हाल के वीराने में
अब भी माज़ी का फ़साना कोई दोहराते हैं
वो उजाले जो तिरी तरह मुझे भूल गए
दूर से अब मिरी फ़रियाद नहीं सुन सकते
दिल के तारों को बहुत जम्अ' किया है मैं ने
वो मगर नग़्मा-ए-एहसास नहीं बन सकते
मिरी आवाज़ को जज़्बात की दीवार के पार
सुन तो सकते हैं मगर सर को नहीं धुन सकते
मैं जो रोऊँ भी तो ये वक़्त के अंधे साथी
किसी बिखरे हुए मोती को नहीं चुन सकते
दीप-माला की ये बेचैन बिलक्ती हुई रात
उस के दामन में मिरे अश्क-ए-रवाँ पलते हैं
हम-सफ़र कोई नहीं है मिरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मिरे चलते हैं
डबडबाई हुई आँखों में है सावन की झड़ी
और दिल में मिरे यादों के शजर पलते हैं
देख मैं ने भी मनाई है यहाँ दीवाली
मिरी पलकों पे भी अश्कों के दिए जुलते हैं
- पुस्तक : Kalam Qateel Shifai (पृष्ठ 223)
- रचनाकार : Qateel Shifai
- प्रकाशन : Farid Book Depot Pvt. Ltd (2011)
- संस्करण : 2011
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