घास से बच के चलो रेत को गुलज़ार कहो
नर्म कलियों पे चढ़ा दो ग़म-ए-दौराँ के ग़िलाफ़
ख़ुद को दिल थाम के मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार कहो
रात को उस के तबस्सुम से लिपट कर सो जाओ
सुब्ह उट्ठो तो उसे शाहिद-ए-बाज़ार कहो
ज़ेहन क्या चीज़ है जज़्बे की हक़ीक़त क्या है
फ़र्श पर बैठ के तब्लीग़ के अशआ'र कहो
इसी रफ़्तार से चलता है जहान-ए-गुज़राँ
इन्ही क़दमों पे ज़माने के क़दम उठते हैं
कोई ऐनक से दिखाता है तो हम देखते हैं
कोई काँधों पे उठाता है तो हम उठते हैं
एक रक़्क़ासा-ए-तन्नाज़ की महफ़िल है जहाँ
कभी आते हैं भतीजे कभी अम उठते हैं
कभी इक गोशा-ए-तारीक के वीराने में
किसी जुगनू के चमकने पे फ़ुग़ाँ होती है
कभी इस मर्हमत-ए-ख़ास का अंदाज़ा नहीं
कभी दो बूँद छलकने पे फ़ुग़ाँ होती है
कभी मंज़िल के तसव्वुर से जिगर जलते हैं
कभी सहरा में भटकने पे फ़ुग़ाँ होती है
हम ने इस चोर को सीनों में दबा रक्खा है
हम इसी चोर के ख़तरे से परेशान भी हैं
कौन समझेगा कि इस सत्ह-ए-ख़ुश-आवाज़ के बा'द
उसी ठहरे हुए तालाब में तूफ़ान भी हैं
भाई की आँख के काँटे पे नज़र है सब की
देवता भी हैं इसी बज़्म में इंसान भी हैं
ख़त्त-ए-सर्तान से आती है मिलर की आवाज़
और अमरीका के बाज़ार में खो जाती है
जॉइस की फ़िक्र ने ता'मीर क्या है जिस को
वो ज़मीं हसरत-ए-मे'मार में खो जाती है
कभी मंटो का क़लम बन के दहकती है हयात
कभी सरमाए की तलवार में खो जाती है
हर पयम्बर पे हँसा है ये ज़माना लेकिन
हर पयम्बर ने झुकाई है ज़माने की जबीं
अपने हम-अस्र से ख़ाइफ़ न हो ऐ वक़्त की आँच
इस की मिट्टी में सितारों का धुआँ है कि नहीं
इसी मिट्टी से दमकती है ये धरती वर्ना
दुर्द-ए-यक-साग़र-ए-ग़फ़लत है चे दुनिया ओ चे-दीं
जिस्म के दाग़ छुपाना तो कोई बात नहीं
रूह के ज़ख़्म सुलगते हैं पस-ए-पर्दा-ए-दिल
सर छुपा लेते हो तुम रेत में जिस के आगे
इसी तूफ़ान में घिर जाते हैं लाखों साहिल
एक राही जिसे एहसास न हसरत न तलब
इक सफ़र जिस में न मंज़िल न सुराग़-ए-मंज़िल
अपनी हस्सास सुबुक नाक से रूमाल हटाओ
खाद में महज़ तअफ़्फ़ुन ही नहीं ख़ेज़ भी है
ज़ौक़ दरकार है क़तरे को गुहर करने में
ये मय-ए-नाब पुर-असरार भी है तेज़ भी है
कुछ तो है वज्ह-ए-दिल-आज़ारी-ओ-आहंग-ओ-सतेज़
वर्ना ये तब-ए-ख़ुश-अख़्लाक़-ओ-कम-आमेज़ भी है
शहर की तीरा-ओ-तारीक गुज़रगाहों में
दास्ताँ होगी तो मंटो का क़लम लिक्खेगा
ज़ीस्त क़ानून ओ फ़रामीन-ए-क़फ़स के आगे
बे-ज़बाँ होगी तो मंटो का क़लम लिक्खेगा
इस शिफ़ा-ख़ाना-ए-अख़लाक़ में नश्तर के क़रीब
रग-ए-जाँ होगी तो मंटो का क़लम लिक्खेगा
गोपी-नाथ और ज़फ़र-शाह के जैसे किरदार
कितनी गुमनामी में जी लेते हैं मर जाते हैं
किस ने उन आँखों में वो ख़्वाब लहकते देखे
जो इस इंसानों के जंगल में बिखर जाते हैं
किस का आईना है मोज़ेल की उस रूह का अक्स
जिस में मर्यम के हसीं नक़्श निखर जाते हैं
ऐ नए अस्र की रग रग को समझने वाले
फ़हम-ओ-इदराक बदी हैं तो बदी तेरी है
चंद लम्हों की ख़ुदाई है रिवायात के साथ
फ़न के आदर्श की रूह-ए-अबदी तेरी है
मौत ये सिर्फ़ सआ'दत की है मंटो की नहीं
ये शब-ओ-रोज़ तिरे हैं ये सदी तेरी है
- पुस्तक : Kulliyat-e-Mustafa Zaidi(Mouj meri sadaf sadaf) (पृष्ठ 54)
- रचनाकार : Mustafa Zaidi
- प्रकाशन : Alhamd Publications (2011)
- संस्करण : 2011
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